पैसे लेकर खबर छापने वाले मुद्दे पर तो खूब चर्चा हुई लेकिन अभी कई ऐसे मुद्दे हैं जो पीछे छूट गए हैं। ये मुद्दे ऐसे हैं जो पैसे लेकर खबर छापने वाली बात से भी कहीं ज्यादा महत्वूपर्ण हैं। पटना से संजय कुमार जी ने भी एक ऐसा ही मुद्दा उठाया है। वैसा ही एक मुद्दा है “खबर न छापने के लिए पैसा लेना यानि ब्लैकमेलिंग”। हमारे बीच कुछ लोग ऐसे हैं जिनके लिए पत्रकारिता मात्र एक धंधा है। उनके लिए पत्रकारिता एक चोखा बिज़नेस है। प्रेस कार्ड की मूक शक्ति को आधार बनाकर ये ‘गिद्ध पत्रकार’ हर वह काला काम करते हैं जिसके खिलाफ आवाज उठाना पत्रकारों की नैतिक जिम्मेदारी होती है। एक छोटे अखबार, लोकल टीवी चैनल से लेकर बड़े-बड़े मीडिया हाउसेज तक के पत्रकार इस गोरखधंधे में लिप्त हैं। आज अगर पत्रकारिता को खतरा है तो सिर्फ इन्ही ‘गिद्ध’ पत्रकारों से है जिनके लिए पत्रकारिता के आदर्श और मूल्य के जरा भी मायने नहीं हैं। हिन्दुस्तान के हर शहर और गली-मोहल्लों में आपको ऐसे लोग मिल जाएंगे जिन्होंने पत्रकारिता को नोट छापने का धंधा बना रखा है।
पैसा लेकर खबर छापना अगर गलत है और इस मुद्दे पर इतना कोहराम मच सकता है तो पैसा लेकर खबर न छापने वाले लोगों का आप क्या करेंगे? खबर न छापने के एवज में पैसे की दरकार रखने वाले ये लोग दो तरह से अपने कारनामों को अंजाम देते हैं। एक तो ये ग़ैर-कानूनी या असामाजिक काम करने वालों को ब्लैकमेल किया करते हैं। वो ये शर्त रखते हैं कि अगर उन्होंने पैसे नहीं दिए तो खबर छपवा देंगे या चैनल पर दिखा देंगे। इनका दूसरा तरीका होता है कि ईमानदार, रसूखदार और धनवान आदमी को षड्यंत्र में फंसाना। वो ऐसे लोगों के खिलाफ षड्यंत्र रचकर झूठी खबरें लगाते हैं। अपनी इज्जत को बचाने के लिए शरीफ लोग गिद्ध पत्रकारों का मुंह पैसे से बंद करने की कोशिश करते हैं। भई, मीडिया की शक्ति के आगे हर कोई बेबस है। आपके खिलाफ अगर मास मीडिया में कोई खबर आ गई तो आपकी इज्जत की धज्जियां उड़ जाती हैं। कोर्ट में केस हो जाए और खबर गलत साबित हो जाए या अखबार पूरे पेज पर माफीनामा छाप दे.. तो भी गई इज्जत वापस नहीं मिल पाती। इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने वाले पत्रकार अपराधी नहीं तो और क्या हैं? ये समाज से सरोकार रखने वाली खबरों को दबाकर अपने ईमान का सौदा करते हैं और पत्रकारिता को नीलाम करते हैं। इन पत्रकारों में कुछेक उसी तरह के दसटकिया पत्रकार होते हैं जिनकी बात संजय कुमार जी ने की है। ब्लैकमेलिंक के इस धंधे में बड़े मीडिया हाउसेज के लोग भी संलिप्त हैं। ये लोग बड़ी मछलियों को फांसते हैं।
आज भी कई लोग हैं जो अभावों में रहते हुए भी पत्रकारिता के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं। लेकिन उन्हीं लोगों के बीच कई धनलोलुप ऐसे भी हैं जिनके लिए सिर्फ पैसे की ही अहमियत है। मै जानता हूं कि बिना पैसे के घर नहीं चलता। अगर पत्रकारिता करने से मिल रहे पैसे से घर नहीं चल रहा तो भाई ये लाइन छोड़ दो। और भी बहुत काम हैं दुनिया में। लेकिन नहीं, वो क्यों ऐसा करेंगे? प्रेस कार्ड तो एटीएम कार्ड से भी शक्तिशाली है। हर गैर-कानूनी काम प्रेस कार्ड और प्रेस स्टीकर की आड़ में आसानी से किया जा सकता है। फिर भला क्यों कोई छोड़े इस फील्ड को?
इसके अलावा दिल्ली और एनसीआर में अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के हितैषी कई ऐसे अखबार चल रहे हैं जो जागृति के नाम पर विभ्रम और धार्मिक विद्वेष फैला रहे हैं। इन अखबारों का एक पन्ना पढ़ लो तो आप कितने भी धर्म निरपेक्ष हो, जरूर कट्टरवादी हो जाओगे। क्यों नहीं ऐसे प्रकाशनों के खिलाफ कोई आवाज उठाता है? आज अगर पत्रकारिता को खतरा है तो सिर्फ ‘गिद्ध’ पत्रकारों से, उन लोगों से जिनके लिए पत्रकारिता के आदर्श और मूल्य जरा भी मायने नहीं रखते। ऐसे लोग जिनके लिए सिर्फ गुलाबी नोट मायने रखते हैं। आजकल पत्रकार ज्यादा हो गए हैं और श्रोता कम। हर-गली मोहल्ले में चौथा आदमी छाती पर प्रेस कार्ड टांगे फिरता है और हर दसवीं गाड़ी पर प्रेस चस्पा रहता है। यही लोग पत्रकारिता के लिए खतरा हैं। मैं समझता हूं, पैसा लेकर खबर छापना/दिखाना गलत है या नहीं, इस विषय से पहले इस समस्या का इलाज किया जाना जरूरी है कि खबरों को पैसा लेकर दबाया न जाए। लेकिन इस ओर कौन ध्यान देगा? ये भी तो कमाई का एक जरिया है ही….
……एक जाल है जो नीचे से लेकर ऊपर तक फैला हुआ है…..
लेखक आदर्श राठौर युवा पत्रकार हैं और प्याला नामक ब्लाग के माडरेटर भी हैं। आदर्श से संपर्क करने के लिए आप 09953537943 पर काल कर सकते हैं.