इशरत जहां के फर्जी मुठभेड़ के बाद मैंने एक लेख ‘मीडिया को शर्म से सिर झुका लेना चाहिए’ शीर्षक से लिखा था जिसमें मैंने मीडिया के बारे में कुछ टिप्पणी की थी. अपनी एक निजी याद का ज़िक्र किया था कि कैसे मैंने अपने उस वक़्त के एक मित्र, जो एक बड़े न्यूज़ चैनल में बड़े पद पर विराजमान हैं, से इशरत मुठभेड़ मामले की खबर की सच्चाई जांचने के बाद ही आगे बढ़ाने के लिए निवेदन किया था. लेकिन उन्होंने स्पष्ट तौर पर कह दिया कि रिपोर्ट सही है, आप परेशान न हों. तमांग रिपोर्ट आने के बाद मैंने सुझाव दिया था कि अब उन श्रीमानजी सहित उन सभी को माफी मांगनी चाहिए जिन्होंने खबर को बिना जांचे-परखे प्रसारित कर दिया.
बहस शुरू हुई और उसी दौर में अपने ज़मीर की आवाज़ पर वरिष्ठ और प्रतिष्ठित पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने बात को सही परिप्रेक्ष्य में रखते हुए अपनी बात कही और कहा कि “इशरत, हमें माफ़ कर दो”. यह एक ऐसे आदमी की टिप्पणी थी जिसका ज़मीर अभी जिंदा है. पुण्य प्रसून का लेख, मेरे हिसाब से उनकी व्यक्तिगत माफी नहीं थी. वह पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने वालों को सही बात कहने की हिम्मत विकसित करने की एक प्रेरणा भर थी. लेकिन संयोग ऐसा है कि कुछ लोगों को लगा कि मैंने अपने लेख में जिस बड़े पत्रकार का ज़िक्र किया था, वह पुण्य प्रसून वाजपेयी ही थे. यह सच नहीं है. मैंने जिनका ज़िक्र किया था, वे श्रीमानजी तो अभी उसी बड़े चैनल में उसी बड़े पद पर विराजमान हैं और जहां तक मेरी जानकारी है, उनके कान पर कोई जूँ फटक भी नहीं पायी है. उन्होंने कोई माफी नहीं माँगी है. पुण्य प्रसून वाजपेयी मेरे मित्र नहीं हैं और न कभी थे लेकिन अब मैं सोचता हूँ कि काश! पुण्य प्रसून मेरे मित्र होते. आपके पास यह लिख कर इसलिए भेज रहा हूँ कि कहीं लोग श्री वाजपेयी को ही वह पत्रकार न मान लें जिसका मैंने अपने लेख में ज़िक्र किया था.
-शेष नारायण सिंह