अपने बच्चे तो बच्चे और दूसरों के बच्चे जनसंख्या. मतलब- अपने या अपने परिवार में जो है, जैसा है, वो तो सही है पर दूसरे हर हाल में गलत हैं। ये कहावत मीडिया पर भी बिल्कुल सही बैठ रही है। मंदी का हौव्वा मचाकर मीडियाकर्मियों की नौकरी खा रहे मीडिया हाउस अपने घर में चाहे जो मर्जी करें लेकिन अगर मंदी से त्रस्त कोई कम्पनी या उद्योगपति अपने यहां छंटनी कर दे तो पूरे देश में मीडिया तूफान खड़ा कर देता है. जेट एयरवेज छंटनी के मसले को कोई भूला न होगा.
वहां से निकाले गए कर्मचारियों की आवाज को अगर मीडिया न उठाता तो शायद वो सब आज सड़क पर होते. शर्मनाक और दुखद ये है कि मीडिया अपने लिए कोई नियम नहीं अपनाता. मंदी का नाम लेकर जाने कितनों की नौकरी ली जा चुकी है, कितनों की जाने वाली है. शायद पत्रकार की किस्मत ऐसी ही है कि वो दूसरों का दर्द तो दुनिया के सामने ला सकता है लेकिन उसके दर्द को जानने वाला या समझने वाला कोई नहीं है. मीडिया में मंदी के नाम पर नौकरी की बलि तो ली जा रही है लेकिन इस बात को देखने और पूछने वाला कोई नहीं है कि क्या केवल कुछ लोगों की नौकरी को खाकर करोड़पति मीडिया हाउस मंदी से बच जायेंगे? नौकरी खाने की बजाय फालतू खर्चों को कम करके मंदी से क्यूं नहीं बचा जा रहा है? कुछ लोगों को नौकरी से निकालने की बजाय अगर मीडिया हाउस फालतू खर्चे कम कर दें तो ज्यादा फायदे में रहेंगे क्योंकि जिन्हें निकाला जा रहा है उन सबकी कुल तनख्वाह से भी ज्यादा पैसा अखबार या न्यूज चैनल फालतू में खर्च कर देते हैं.
कथित मंदी के इस दौर में ज्यादातर ऐसे लोगों की नौकरी पर ही तलवार लटकी हुई है जिनकी अपने बॉस से नहीं बनती. आपकी नौकरी तभी जायेगी जब आपकी बॉस से नहीं बनेगी. अगर उनकी नजर आप पर मेहरबान है तो फिर तो गधा भी पहलवान है. कितनी ही मंदी क्यूं न आ जाए, आपकी नौकरी सुरक्षित है. जब जेट ने अपने यहां छंटनी की थी तो कई पत्रकार उन युवा जेटकर्मियों के घर भी पहुंच गये थे जिनकी नौकरी जा रही थी. किसी ने टूट गए सपने पर घंटों चर्चा की तो किसी चैनल ने इस बात पर बहस की कि किसी भी उद्योगपति को मंदी के नाम पर सपने तोड़ने का कोई हक नहीं. ये अलग बात है की मीडिया हाउसों पर ये बात लागू नहीं होती.
हरियाणा में एक कहावत है कि ठाडा मारेगा भी और रोण भी ना देगा. स्थिति बिल्कुल ऐसी ही है. मीडिया हॉउस के मालिकों ने मंदी का असर दिखते ही अपने कर्मचारियों को आश्वासन दिया था कि किसी की नौकरी नहीं जायेगी. बस, उन खर्चों को कम किया जाएगा जो बेवजह के हैं. ज्यादातर मीडिया हाउस सभी खर्चों को छोड़कर नौकरी खाने पर तुले हैं. कल तक जिन पत्रकारों पर नाज था, अब वो कामचोर और बेकार हो गये हैं। हालत ये है कि नया हो या 20 और 30 साल से काम कर रहा वरिष्ठ पत्रकार, किसी की नौकरी सलामत नही है. कभी न्यूज चैनल तो कभी अखबार, सभी जगह से कर्मचारियों को निकाले जाने की खबरें आ रही हैं. इस सम्बन्ध में ना कोई कानून काम करता है ना ही कहीं चर्चा होती है। अपना पूरा जीवन किसी अखबार या न्यूज चैनल को देने वाला पत्रकार नौकरी जाने के बाद अपने परिवार का पेट कैसे भरेगा?
मंदी के इस दौर में भी कुछ चैनल और अखबार ऐसे भी हैं जिन्होंने वाकई अपने खर्चों में कटौती की है और अभी तक किसी की नौकरी नहीं ली है. ज्यादा दुःख तब आता है जब मीडिया हॉउस अपने कर्मचारियों के लिए परिवार शब्द का प्रयोग करते हैं, संस्थान का प्रयोग करते हैं। पर यही परिवार और संस्थान एक झटके में अपने सदस्य की नौकरी ले लेते हैं। जब सरकार चैनल पर नकेल कसने की बात करती है तो सरे देश का मीडिया जगत एकजुट नजर आता है और सरकार का विरोध करके सरकारी फरमान को बदलवा देता है। जब किसी पत्रकार की नौकरी जाती है तो कोई बोलने वाला नजर नहीं आता. सबको अपनी पड़ी है. सभी को लगता है की अगर दूसरे का साथ दिया तो कहीं उनकी नौकरी ही संकट में ना आ जाए.
15 या 20 लोगों को नौकरी से निकाल कर न्यूज चैनल अपना कितना घाटा पूरा कर लेंगे. ज्यादा से ज्यादा 4 से 5 लाख रूपये महीना. ये केवल उतना ही है जितना किसी बड़े पद पर बैठे बॉस की तनख्वाह या फिर उनका टूर बिल. तो ऐसा क्यूँ नहीं होता कि ऐसे ही खर्चों पर नकेल कसी जाए जिनके बिना काम चल सकता है. अगर ऐसा हो जाता है तो 5 से 10 लाख रूपये तो ऐसे ही बच जाएंगे. साथ ही उन पत्रकारों की नौकरी भी बच जाएगी जिन्हें इतनी तनख्वाह ही मिल पाती है जिसमें वो अपने परिवार का पेट पाल सकें.
एनडीटीवी के बारे में खबर है कि मंदी से निपटने के लिए वहां फालतू खर्चों में कटौती के अलावा लाखों की सेलरी लेने वालों के वेतन में थोडी कटौती हो रही है ताकि यहां किसी की नौकरी जाने की नौबत ना आए. उनका ये फैसला तारीफ और सराहना के काबिल है. जैसा इस ग्रुप के बारे में आज तक सुना है, लगता है ये बिल्कुल वैसा ही है. खर्चे घटाकर और वेतन में कुछ महीनों के लिए थोड़ी कटौती करके अगर दर्जन भर लोगों की नौकरी बच सकती है तो इससे बेहतर कुछ नही. लेकिन लगता नहीं की खबरों के मामले के एक दूसरे चैनल को देखकर रिपोर्टिंग करवाने वाला प्रबंधन इस बात/तरीके को मानेगा.
देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले कुछ हफ्तों या महीनों में मानवीय संवेदना कहीं नजर आती है या दूसरो के दुःख को अपना दुःख बना लेने वाले न्यूज चैनल अमानवीय बने रहकर कर्मचारियों की नौकरी की बलि लेते ही रहते हैं. ये भी देखना बाकी है कि पूरी दुनिया या भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी का ये कथित दौर कब तक जारी रहता है. पर एक बात तो साफ है की न्यूज चैनलों या अखबारों में तो जब तक मीडिया हॉउस चाहेंगे, तब तक ‘मंदी’ का ये दौर जाने वाला नहीं है.
लेखक आदित्य चौधरी पिछले 10 वर्षों से मीडिया में सक्रिय हैं। वे चंडीगढ़ में टीवी पत्रकार हैं। उनसे [email protected] के जरिए संपर्क किया जा सकता है।