प्रमुख चिंतक और पत्रकार अशोक शास्त्री की स्मृति में राजस्थान श्रमजीवी पत्रकार संघ के तत्वावधान में पिछले दिनों राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर के सभागार में ‘पत्रकारिता के सामाजिक सांस्कृतिक सरोकार’ विषय पर व्याख्यान माला का आयोजन किया गया। इसमें प्रसिद्ध विचारक-कवि डा. नन्दकिशोर आचार्य ने मुख्य वक्ता के रूप में प्रबुद्ध व्याख्यान दिया। उन्होंने जो कुछ कहा, वह बेहद सामयिक, पठनीय व विचारणीय है। व्याख्यान इस प्रकार है-
जो कर्म अपनी आत्मा में ही सामाजिक-सांस्कृतिक है उसके सरोकार और क्या हो सकते हैं। दुर्भाग्य यह है कि यह जो कथित राजनीति है, कथित इसलिए कि दरअसल वह राजनीति नहीं है। कथित राजनीति हमारे जीवन पर और उस कारण से संचार कार्य पर भी हावी हो गई है। इसलिए हम उस कर्म के सांस्कृतिक-सामाजिक सरोकारों के बारे में सोचने लगे हैं जो मूलतः अपनी प्रक्रिया में ही सामाजिक और सांस्कृतिक है। यह हमारे समय पर भी एक टिप्पणी है कि हम कैसे समय में रह रहे हैं। अगर सीधे और सरल शब्दों में बात की जाए तो पत्रकारिता एक तरह से वर्तमान में हो रहा है उसे होते हुए बयान करना है। पत्रकारिता एक तरह से मौजूदा हालात की वाकिया नवीसी है। आज जो इतिहास हम पढ़ रहे हैं या जिस आधार पर इतिहास लिखा जाता है वह उन्हीं वाकिया नवीसों द्वारा लिखा हुआ हमारे पास छोड़ा गया इतिहास है और उसी के आधार पर वह अधिकांशतः लिखा जाता है। पत्रकारिता जो वाकिया नवीसी करती थी उसमें फर्क यह है कि वह केवल घटनाओं का वर्णन करती थी। उसमें यह प्रयत्न रहता था कि सुल्तान को उठाया जाये या किस को नीचा दिखाया जाये अथवा भविष्य में किसका क्या स्थान रहेगा। इसके बावजूद जो कुछ हो रहा होता था उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं होता था। यह तो होता था कि कोई वाकिया नवीस किसी सुल्तान के पास काम करता है तो वह सुल्तान को इतिहास में ठीक तरह से जिन्दा रखने के लिए कुछ तोड़ मरोड़ कर लिखता था। इसके विपरीत पत्रकारिता एक वाकिया नवीसी होने के बावजूद अलग तरह की वाकिया नवीसी है। पत्रकारिता में वाकिया नवीस वह तो बताता ही है जो कुछ हो रहा है लेकिन वह इस तरह से बताता है कि उसमें उसका होना भी शामिल होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो पत्रकारिता ऐसी वाकिया नवीसी है जो हो रहे होने को अपने से प्रभावित करती है।
आज अगर अखबार या वैद्युतिक मीडिया अगर कुछ कहता है तो जो घटना घटित हो रही है, होती है या प्रक्रिया में होती है उसको प्रभावित करती है। यूं भी कहा जा सकता है कि उसको बदलने में उसकी भूमिका होती है और हुई भी है। हम सभी जानते हैं कि कब-कब पत्रकारिता ने ऐसा किया है। ऐसा भी हुआ है कि देश की संसद के एक सदन ने एक प्रस्ताव पारित कर दिया लेकिन पत्रकारिता ने ऐसा हस्तक्षेप किया कि दूसरे सदन में उसे ठंडी आलमारी में रख दिया गया और वह पारित नहीं हुआ। मैं मानहानि विधेयक की बात कर रहा हूं। उस वक्त राजीव गांधी के जमाने में इतना हल्ला मचा कि सरकार ने उसे पारित कराना ठीक नहीं समझा और आज तक पड़ा हुआ है। यह पत्रकारिता की ताकत पर एक टिप्पणी है वहीं दूसरी ओर यह इस स्थिति पर भी टिप्पणी है कि हमारी राजनीति कैसी हो गई है। बनते हुए इतिहास का यह कर्म जिसे पत्रकारिता कर्म या संचार कर्म कहते हैं, वह बनते हुए इतिहास में हस्तक्षेप कर सकता है। यह काम पहले की वाकिया नवीसी नहीं कर सकती। दूसरा काम जो पत्रकारिता को मुख्य रूप से करना चाहिए लेकिन वह नहीं करती। वह यह कि कोई भी घटना केवल एक घटना नहीं होती है। जो कुछ आप देख रहे हैं उसे किसी एक कोण या नजरिये से नहीं देखा जा सकता। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप उसे किस दृष्टि से देख रहे हैं और किन-किन दृष्टियों से उस पर विचार किया जा सकता है। दूसरी बात यह कि सीधे वर्णन कर देना ही उसे देखना या उसके पीछे के कारणों की एक श्रृंखला है, ऐतिहासिक प्रक्रिया है जो आज घटित हो रही है। क्या पत्रकारिता उस ऐतिहासिक प्रक्रिया में से गुजरे बिना, उसको जाने बिना किसी घटना का वर्णन करती है तो क्या हम सही वर्णन मान सकते हैं, क्या उसे ऐसा वर्णन मान सकते हैं जो वास्तव में घटना के चरित्र को ठीक-ठाक प्रस्तुत करता है, तब इसमें यह भी जुडा हुआ है कि वह क्या चीज है जिसके परिप्रेक्ष्य में हमें उस घटना को देखना है। उस घटना को पूरे मानवीय विकास के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना है। उसे उस परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है जिस मानव या जिस समाज के बारे में बात हो रही है। यह भी देखना होगा कि मानव जाति विकास के परिप्रेक्ष्य में उस घटना का क्या महत्व है। अगर उस घटना का वैसा महत्व नहीं है तो वर्णन करने का भी कोई महत्व नहीं है।
हम जिसे मानव मूल्य कहते हैं या जिसे इतिहास से प्राप्त अनुभूत मानव मूल्य अथवा नैतिक मूल्य कहते हैं अगर उन मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में किसी घटना का विश्लेषण नहीं करते हैं और उस तरह से प्रस्तुत नहीं करते हैं तो पत्रकारिता नहीं कर रहे हैं। हमें मानना चाहिए कि वह वास्तविक पत्रकारिता नहीं है। जो विज्ञापन वाली कविता करता है वह भी कहलाता तो कवि ही है लेकिन हम जानते हैं कि वह कैसा कवि है। इसी तरह जो ऐसी पत्रकारिता करते हैं वे कहलाते तो पत्रकार ही हैं और कानूनी रूप से उन्हें पत्रकार ही कहेंगे किन्तु पत्रकारिता कर्म के प्रति कितने प्रतिबद्ध हैं, अपने मन में,अपनी भावनाओं में अपने नैतिक अस्तित्व में वे कितने पत्रकार हैं, इस पर विचार किया जाना चाहिए। जो मूलतः सांस्कृतिक कर्म ही है उसके सांस्कृतिक सरोकारों की बात अलग से क्यों की जाये, शायद इसलिए कि संस्कृति को हमने एक उत्सव की चीज मान लिया है? जब हम संस्कृति की बात करते हैं तो एक मूल्य निष्ठा, एक मूल्य चेतना और मूल्यान्वेषण की बात करते हैं। संस्कृति किसी भी समाज की मूल्यान्वेषण और मूल्यानुभूति की प्रक्रिया होती है। प्रत्येक कर्म अन्ततः एक सांस्कृतिक कर्म है अगर वह मानवीय कर्म है तो और पत्रकारिता को इससे अलग कैसे किया जा सकता है, अगर किसी पत्रकार को यह अहसास है कि वह इस समाज के आत्म के सृजन की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने में समर्थ हिस्सा है तो अपने भीतर सोचकर देखें कि उन्होंने कितनी जिम्मेदारी आयद की है। अगर वे इस जिम्मेदारी को पूरा नहीं करते हैं तो वे क्या हैं, इसका निर्णय स्वयं करें। पत्रकार होने के नाते जो सरकारी सुविधाएं मिलनी हैं वे भी उन्हें मिल जायेंगी लेकिन वे कहां तक पत्रकार हैं इसे स्वयं तय करना चाहिए।
विभिन्न चैनलों पर आये दिन गानों और नाच की प्रतियोगिताएं हो रही हैं। खबरों के चैनल भी बीच-बीच में यही काम कर रहे हैं। यह संस्कृति नहीं बल्कि आत्म साक्षात्कार करने की प्रक्रिया को एक खास तरह की उत्तेजना से ठगना है और भ्रम में डालना है। जो अखबर या मीडिया अपने पाठक को बेवकूफ समझता है वह उसे इस उत्तेजना में बहा ले जाना चाहता है। इस कोशिश का अर्थ यही है कि हम पाठक को बेवकूफ समझते हैं। जब आप पाठक को या अपने गृहीता को विचारशील-संवेदनशील नहीं बनाना चाहते और इसकी बजाय उसे हंसाना चाहते हैं, उसे ऐसी मनोरंजन की दुनिया में ले जाना चाहते हैं जो उसको भ्रम में डाल दे, जो उसे केवल ऐन्द्रिक अस्तित्व बनाकर रख दे तो ऐसी पत्रकारिता को सांस्कृतिक कहने पर अपनी भाषा के ज्ञान पर संदेह होने लगता है।
अब जो परिस्थितियां बनी हैं उसमें पत्रकारिता व्यवसाय बन चुकी है, इससे इनकार नहीं कर सकते। समानान्तर पत्रकारिता उस तरह से समाज को प्रभावित नहीं कर सकती क्योंकि उसकी पहुंच दूर तक नहीं होती। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं कि पत्रकारिता एक उद्योग है लेकिन देखना यह है कि वह किस चीज का उद्योग है। पत्रकारिता क्या उत्पादन कर रही है और किसके लिए कर रही है? हर उद्योग की अपनी एक नैतिकता होती है। डाक्टर और वकील भी उद्योग जैसा काम कर रहे हैं। मानवीय संवेदना कम हो तो कोई डाक्टर फीस ज्यादा ले सकता है लेकिन मरीज का इलाज तो सही करे, वकील सामने वाले प्रतिपक्षी से तो नहीं मिल जाये। कोई उद्योग बिना नैतिकता के नहीं चल सकता। क्या पत्रकारिता उद्योग होते हुए भी इस प्रतिमान पर खरा उतरी है, क्या हम अपने व्यवसाय के प्रति उतने ही प्रतिबद्ध हैं जितनी आशा दूसरों से करते हैं। हम कितनी नकली खबरें देते हैं और कितनी असली खबरों को छुपाते हैं, कितनी ऐसी खबरें देते हैं जिसका इस समाज के विकास में कोई योगदान नहीं है और समाज में झूठ के प्रतिष्ठित करती है। इसके विपरीत जो सच को प्रदर्शित करने वाली खबरें हैं उनको हम व्यवसाय के नाम पर नहीं देते। व्यवसाय तो सच का व्यवसाय है। पत्रकारिता अगर व्यवसाय भी है तो सच का है क्योंकि सच को बेचते हैं लेकिन सच को बेचते हैं तो हमें मालूम करना होगा कि सच है क्या, उसको सच्चे स्वरूप में पेश करना होगा लेकिन हम सच नहीं बेचते बल्कि सच के नाम पर झूठ बेचते हैं और उसमें मिलावट करते हैं। अभी हुए आम चुनावों में लोगों ने देखा कि कितने अखबार कितने प्रत्याशियों के एजेन्ट के रूप में काम कर रहे थे। एक अखबार को इतना हक है कि वह किसी के लिए कहे कि यह आदमी ठीक है। मैं इसमें बुरा नहीं मानता लेकिन वह पैसा लेकर कहे, अखबार के लिए विज्ञापन लेकर कहे, तो कैसे ठीक होगा।
जब तक हम मानवीय मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में इतिहास के अनुभव से प्राप्त अपने कर्म को जांचने-परखते नहीं है तब तक आप अपना सामाजिक और सांस्कृतिक दायित्व पूरा नहीं करते हैं। दुर्भाग्य से अधिकांश पत्रकारिता यह दायित्व अभी पूरा नहीं कर रही है। दर्शनशास्त्र का सिद्धान्त है – एक्सेप्शन प्रूव द रूल। अपवाद नियम की पुष्टि करते हैं। इसका अर्थ यह है कि कोई चीज अपवाद है तो नियम कुछ और है। नियम तो यही है कि अभी पत्रकारिता हमारे समाज के सामने दिखाई दे रही है वह अपने मूल उत्तरदायित्वों को पूरा नहीं कर पा रही है और व्यवसाय की शर्तों पर खरा नहीं उतर रही है। यह इसलिए कि व्यवसाय के लिए उसकी एथिक्स को मानना आवश्यक है। सामाजिक सांस्कृतिक शब्द लगाना फिजूल लगता है। व्यवसाय की एक नैतिकता को स्वीकार करें। अगर हम ऐसा नहीं करते तो उस व्यापक प्रक्रिया में जिसे हम आत्म सृजन और आत्मान्वेषण की प्रक्रिया कहते हैं एवं जो सांस्कृतिक प्रक्रिया है, उस प्रक्रिया में न केवल भागीदार नहीं हो पा रहे बल्कि उसके विरोध की प्रक्रिया को बढ़ाने में सहयोग दे रहे हैं। ऐसा करने वाले को पत्रकार कहा जाये या नहीं, नैतिक अर्थों में, यह उन्हीं लोगों को विचार करना है जो इस काम में लगे हैं। अगर आप मानते हैं कि यह सांस्कृतिक कर्म है तो सोचिए कि जो कुछ आप करते हैं क्या वह सांस्कृतिक कर्म के अनुकूल है। सांस्कृतिक कर्म केवल कहानी-कविता प्रस्तुत करने तक सीमित नहीं है। वह ज्यादा व्यापक चीज है। ज्यादा मूल्यानुभुति की चीज है। मूल्यानुभूति सभी चीजों में होती हैं। प्रत्येक कर्म उस कर्म के माध्यम से अपने को रचते हैं। जो कुछ आप कर रहे हैं उसके माध्यम से अपने आपको क्या बना रहे हैं। जब आप कोई चीज चुराते हैं तो होता होगा उसका नुकसान परन्तु, आपने स्वयं अपने को क्या बनाया, इस पर विचार करना चाहिए। हम अपने को ही संस्कृति विरोधी बना रहे होते हैं। हम अपने को ही आत्म सृजन की बजाय आत्म संहार का माध्यम बना रहे होते हैं।
इससे पूर्व प्रमुख विचारक सुरेश पण्डित ने स्वर्गीय अशोक शास्त्री की स्मृतियों को संजोते हुए दैनिक अरानाद और अरूण प्रभा के प्रकाशन की चर्चा की और कहा कि वह समाचार-पत्र नहीं बल्कि आन्दोलन था। ईशमधु तलवार और जगदीश शर्मा जैसे युवा पत्रकार शास्त्री के प्रमुख सहभागी थे। शास्त्री राजनीति या दलीय राजनीति के व्यक्ति नहीं थे। इसके बावजूद वे सामाजिक सरोकारों और संस्कृति कर्म के प्रति अधिक प्रतिबद्ध थे। उन्होंने ‘इतवारी पत्रिका’ और ‘जनसत्ता’ को अपने विचारों से नया स्वरूप दिया। पण्डितजी ने कहा कि छोटे-छोटे पत्रकार और क्षेत्रीय समाचार पत्र आम आदमी के सरोकारों के प्रति ज्यादा सजग दिखाई पड़ते हैं। दुर्भाग्यवश छोटे समाचार पत्र-पत्रिकाओं के आर्थिक स्त्रोत काट दिये गये हैं।
प्रमुख कवि जुगमंदिर तायल ने अध्यक्षता करते हुए कहा कि पत्रकारिता का जो हथियार यूरोप में उस दौर में विकसित हुआ था जब सामन्तवाद और पूंजीवाद के बीच में एक निर्णायक संघर्ष की शुरूआत हुई थी। 15वीं शताब्दी में सबसे पहले जर्मनी में गुटेनबर्ग नाम के व्यक्ति ने छापने का यंत्र बनाया उसके बाद यूरोप में यह दौर शुरू हुआ। तभी ‘फोर्थ स्टेटका एक मुहावरा बना और चौथी ताकत के रूप में पत्रकारिता को पहचाना गया। पत्रकारिता मुख्य रूप से उस दौर के पूंजीवाद की उपज है। शुरू से ही इसमें तकनीक का बहुत भारी योगदान रहा है। संचालन राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव प्रेमचन्द गांधी ने किया और राजस्थान श्रमजीवी पत्रकार संघ के अध्यक्ष ईशमधु तलवार ने आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर डा. सुलोचना रांगेय राघव, शीन काफ निजाम, डा. हेतु भारद्वाज, नन्द भारद्वाज, कविता श्रीवास्तव, भगवान अटलानी, जगदीश शर्मा, एकेश्वर हटवाल, ओमेंद्र, अशोक राही, सम्पत सरल आदि मौजूद थे।
इस रिपोर्ट के लेखक फारूक आफरीदी से संपर्क ई-750, न्यायपथ, गांधी नगर, जयपुर, मोबाइल- 09414335772, मेल- [email protected] से कर सकते हैं।