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दुख-दर्द

मरते-मरते देह मेडिकल कालेज को दान कर गए

सिद्धार्थ कलहंसलखनऊ : चंद्रदत्त तिवारी नहीं रहे। आज ही अखबार में खबर पढ़ी। कोई साथी ऐसा नहीं जो मरने के तुरंत बाद ही यह खबर देता। मेरा नाता उनसे बहुत कम था। जो था वो यह कि देश के जाने-माने पत्रकार अंबरीष कुमार एक लखनऊ यूनिवर्सिटी थिंकर्स काउंसिल बना गए थे जिसमें तिलक छात्रावास में रहने वाले अपने सीनियर राजेंद्र तिवारी मुझे घसीट ले गए थे। चंद्र दत्त तिवारी घनघोर गांधीवादी, आजादी के सिपाही और लोहिया के साथी थे। हम लोग जो छात्र थे उन्हें भी उनका स्नेह मिलता रहता था।

सिद्धार्थ कलहंस

सिद्धार्थ कलहंसलखनऊ : चंद्रदत्त तिवारी नहीं रहे। आज ही अखबार में खबर पढ़ी। कोई साथी ऐसा नहीं जो मरने के तुरंत बाद ही यह खबर देता। मेरा नाता उनसे बहुत कम था। जो था वो यह कि देश के जाने-माने पत्रकार अंबरीष कुमार एक लखनऊ यूनिवर्सिटी थिंकर्स काउंसिल बना गए थे जिसमें तिलक छात्रावास में रहने वाले अपने सीनियर राजेंद्र तिवारी मुझे घसीट ले गए थे। चंद्र दत्त तिवारी घनघोर गांधीवादी, आजादी के सिपाही और लोहिया के साथी थे। हम लोग जो छात्र थे उन्हें भी उनका स्नेह मिलता रहता था।

हम लोग उन्हें अपनी हर गोष्ठी में घसीट लाते थे। एक कोचिंग चलाने वाले राजीव जी तो हमारे संरक्षक जैसे थे और चंद्रदत्त जी उनके जीवन के खास अंग। राजीव जी ने हमें भी बहुत पोसा। पत्रकारिता जगत के कई बड़े नाम जैसे अंबरीष, नवीन जोशी, हरजिंदर, राजेंद्र तिवारी, अमिताभ, प्रमोद जोशी, शिक्षक प्रमोद कुमार और भी कई सारे उन्हीं के स्कूल से निकले। लखनऊ में डीएवी, लखनऊ मॉंटेसरी, बालिका विद्यालय जैसे कई संस्थानों का संचालन उनके हाथों हुआ।

पेपर मिल कालोनी के उनके अदना से मकान को देख कर कोई सोच भी नहीं सकता था कि कौन है यह आदमी। चंद्रशेखर जी को वह जब चाहे बुला लेते थे और कई बड़े नेता तो उनसे मिलने में गर्व महसूस करते। सरल थे। जिंदगी भर कुंवारे रहे। हम जैसे भी जाते तो खुद चाय बना पिलाते। मरते-मरते देह मेडिकल कालेज को दान कर गए।

जब मैं पॉयनियर में चीफ रिपोर्टर था तो मेरे संपादक उदय सिन्हा ने एक बार मुझसे चंद्रदत्त जी का इंटरव्यू लेने को कहा और मैं गया। रात में मिल पाया। खूब बात हुई। तब मैं कुंवारा था। चलते समय पूछा- खाना कहां खाओगे। जैसे ही मैंने कहा कि कमरे पर बना लूंगा, चंद्रदत्ता जी ने वहीं रोक लिया। मैंने उनके हाथ की खिचड़ी खाई। मैं उन दिनो पॉयनियर में जूनियर था। पहली बार मेरे जैसे की खबर ‘एजेंडा’ नाम के साप्ताहिक परिशिष्ट में छपी। बहुत बाद में एक बार उदय जी के घर दीवाली पर एक महफिल में पूछा कि मुझसे ही क्यों लिखवाया, तो जवाब था कि अंग्रेजी के लोग कहां समझते हैं इन लोगों को।

चंद्रदत्त तिवारी से आखिरी बार मुलाकात लखनऊ मांटेसरी के एक  फंक्शन में हुई। बीमार थे, सो ज्यादा बोल नहीं पा रहे थे  पर पुरानी जान पहचान थी सो काफी कुछ बोले। पत्रकारिता से नाराज थे, कहा केवल अंबरीष, एक्सप्रेस और इतवार को आने वाला नई दुनिया ही लिख पा रहा है सरकार के खिलाफ। जान कर खुश हुए कि मैं नई दुनिया के लखनऊ के प्रभारी योगेश मिश्रा को जानता हूं। नंबर लिया योगेश जी का, पता नहीं बात की या नहीं। मुझसे कहा कि कहां इंडियन एक्सप्रेस छोड़ बिजनेस स्टैंडर्ड में चला गया। पापी पेट का हवाला देने पर कहा कि इससे अच्छा तो बदरपुर से आने वाली गिट्टी बेचो। 

आज नहीं रहे चंद्रदत्त जी तो यह सोचता हूं कि बच्चे को किस के बारें में बताउंगा कि इनने आजादी की लड़ाई लड़ी, कि ये दुर्गा भाभी के साथी रहे थे। क्या होगा लखनऊ मॉंटेसरी का। डीएवी तो पहले ही गर्त में जा चुका है। पर भरोसा है कि भाई देवेंद्र उपाध्याय जो अब सरकार के स्थाई अधिवक्ता हैं, साथी रमन पंत, राजीव जी, राजेंद्र, मसूद, और सबसे आगे अंबरीष जी उनके सपनों को मरने नही देंगे। न जाने क्यों अपने आखिरी दिनों में चंद्रदत्त जी कहते थे कि राहुल गांधी को देश का प्रधानमंत्री होना चाहिए। बड़े कमिटमेंट के साथ कहते थे यह।  न जाने राहुल में उन्हें क्या दिख रहा था। राज तो दफन हो गया न उनके साथ। लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रमोद कुमार जी से बात करने पर शायद कुछ पता चले।

बस अब इतना ही, सलाम चंद्रदत्त जी को, सागर थे वो और हम घड़े, और घड़े में घड़े जितना ही समाया


लेखक सिद्धार्थ कलहंस लखनऊ के पत्रकार हैं। इन दिनों बिजनेस स्टैंडर्ड, लखनऊ के प्रिंसिपल करेस्पांडेंट हैं। उनसे संपर्क करने के लिए [email protected] पर मेल कर सकते हैं या फिर 09336154024 पर फोन कर सकते हैं।
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