मंदी के नाम पर मनमानी
अभी 31 जनवरी, 2009 को सेवामुक्त हुए एक पत्रकार ने अनुमान के आधार पर बताया कि पिछले चार महीने में लगभग चार हजार पत्रकार नौकरी से निकाले गए हैं।
बड़े बड़े अखवारों, टीवी चैनलों में काम करने वाले वरिष्ठ पत्रकारों की हालत यह है कि दफ्तर के लिए निकलते वक्त हर दिन यह आशंका बनी रहती है कि घर वापसी तक नौकरी बची रहेगी या नहीं। ऐसे पत्रकार जिन्होंने अपनी लेखकीय निष्ठा से नहीं, बल्कि तिकड़म और दलाली के माध्यम से राजनीतिक गलियारों और नौकरशाहों के बीच अपना ठिकाना बना रखा है, अपेक्षाकृत वे अपने को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। शेष पत्रकार भारी दहशत में डूबे हुए हैं। युवा पत्रकार जिनकी गृहस्थी अभी छोटी है या अभी जिन्होंने घर नहीं बसाया है, वे तो संकट आएगा तो देखा जाएगा के मनोभाव में हिम्मत कर रहे हैं, लेकिन पचास पार के पत्रकार जिनके लिए महानगर में गृहस्थी चलाना जहाज चलाने की तरह होता है, उनकी नौकरी अचानक चली जाए यह किसी बड़ी विपत्ति से कम नहीं है। कितनों ने इन्हीं नौकरियों के भरोसे बैंक से कर्ज लेकर मकान खरीद रखा था, कार खरीद रखी थी, अब वे कर्ज कैसे चुकाएंगे. अगर यह संकट नहीं है तो फिर संकट किसे कहते हैं. हादसे सिर्फ वही नहीं हैं जिनमें जानें जाती हैं, हादसा वह भी है जो हद से निकल जाए। पत्रकारों पर यह अन्याय हद को पार करना ही है।य़ह आश्चर्य है कि पत्रकारों पर हो रहे अन्याय के खिलाफ कहीं कोई शोर नहीं है बल्कि एक अजीब किस्म का सन्नाटा पसरा हुआ है। पत्रकार संगठन भी इस मुद्दे पर बिल्कुल चुप है।
भारत के योग्य गृह मंत्री पी. चिदम्बरम जो कुछ दिनों पहले तक वित्त मंत्री थे, कहते हैं कि यहां मंदी का असर कोई खास नहीं है। चिदम्बरम साहब की बात यदि मान ली जाए तो क्या फिर यह मानना चाहिए कि मंदी के नाम पर मीडिया हाउस मनमानी कर रहा है। ज्यादा लोग यही मान रहे हैं कि जिस बेरहम रफ्तार से पत्रकारों की छंटनी है रही है, वह मंदी की वास्तविकता नहीं है, नीयत की बेईमानी है।
उस व्यापक छंटनी की यदि न्यायिक जांच हो और पता लगाया जाए कि पत्रकारों के अलावा प्रबंधन के कितने लोग निकाले गये हैं तो अत्यंत ही चौंकाने वाले तथ्य सामने आएंगे। मंदी के असर से अखबारों को विज्ञापन कम मिल रहे हैं यह सच है, लेकिन क्या इसकी क्षतिपूर्ति सिर्फ पत्रकारों को ही शहीद कर करना जाहिए। ऐसे सीईओ अधिकारी या समूह संपादक जो प्रति माह लाखों करोड़ों लेते हैं उनका वेतन एक चौथाई क्यों नहीं कर दिया जाता। दरअसल, जो दिमाग इन चीजों पर फैसला लेता है वह पत्रकार को फालतू मानता है और सोचता है कि पत्रकार के बिना मैनेजर से ही अखबार निकल जाएगा।
बाढ़ में डूबना, सूखे से मरना, भूकंप से धंसना यदि आपदा है तो हजारों पत्रकारों की अकारण नौकरी जाना आपदा कैसे नहीं है। इस संकट पर सरकार क्यों नहीं सोचे. यदि इस देश में कोई श्रम मंत्रालय और समाज कल्याण मंत्रालय है तो इन श्रमजीवी पत्रारों के कल्याण के बारें में क्यों नहीं सोचता। पत्रकार क्या समाज के बाहर हैं. तकलीफदेह बात यह है कि गणेश जी द्वारा दूध पीने के वक्त या प्रिंस के गड्ढे में गिर जाने पर जो मीडिया हाय तोबा मचाए रहता है वह इस मसले पर उसी तरह से चुप है जिस तरह से दुर्योधन के दरबार में बड़े-बड़े महारथी चुप थे। किसी बड़े लेखक और पत्रकार ने भी इस सवाल पर कभी-कभार भी कागद कारे नहीं किए। सत्ता पक्ष के राजनीतिज्ञ चुप हैं तो बात समझ में आती है, विपक्ष के राजनीतिज्ञों का भी जब इस मुद्दे पर मुंह नहीं खुल रहा है तब यह क्यों नहीं मान लेना चाहिए कि यह राजनीति जनहित के लिए नहीं उद्योगपतियों के हित के लिए है। यह कैसी करुण सच्चाई है जो पत्रकार दुनिया भर के अन्याय और अत्याचार के खिलाफ कलम उठाते रहे आज उन पर जब अन्याय हो रहा है तो सड़क से संसद तक कोई आवाज उठाने वाला नहीं है। सड़क, पर्यावरण, उद्योग, फिल्म आदि मामलों में सरकार को फटकार लगाने वाली न्यायपालिका भी पत्रकारों पर हो रहे अन्याय पर चुप है। हजारों पत्रकारों के परिवार के भरण-पोषण का सवाल जनहित का मामला क्यों नहीं बन सकता? आरटीआई के दायरे में मीडिया हाउस को भी लाना चाहिए। वह अपने लेखा-जोखा और मुनाखे को सार्वजनिक करे और बताए कि किन परिस्थितियों में ऐसी छंटनी हुई।