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भाषा को संवेदनहीन बना रहा बाजार

मीडिया की भाषा आंख खोलने वाली होनी चाहिए : मीडिया की भाषा आंख खोलने वाली होनी चाहिए जिसे हमारे मनीषियों ने पश्यन्ती कहा है। ऐसी भाषा जो जन सामान्य की अभिरुचि को सुसंस्कृत करे और उन्हें सजग बनाए। सुपरिचित कवि-आलोचक डा. सत्यनारायण व्यास ने ’मीडिया और भाषा’ विषयक परिसंवाद में उक्त विचार व्यक्त किए। राजस्थान के उदयपुर के जनार्दराय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय के मीडिया अध्ययन केन्द्र द्वारा आयोजित इस परिसंवाद में डा. व्यास ने कहा कि मीडिया की शब्द रचना के केन्द्र में संवेदना होनी चाहिए। संवेदना का मूल मानवीय करूणा है। उन्होंने मीडिया और साहित्य की बढ़ती दूरी को चिन्ताजनक बताते हुए कहा कि भूलना नहीं चाहिए कि प्रेमचन्द, माखनलाल चतुर्वेदी और रघुवीर सहाय ने मीडिया की भाषा को साहित्य के संस्कार दिये हैं।

<p align="justify"><strong>मीडिया की भाषा आंख खोलने वाली होनी चाहिए : </strong>मीडिया की भाषा आंख खोलने वाली होनी चाहिए जिसे हमारे मनीषियों ने पश्यन्ती कहा है। ऐसी भाषा जो जन सामान्य की अभिरुचि को सुसंस्कृत करे और उन्हें सजग बनाए। सुपरिचित कवि-आलोचक डा. सत्यनारायण व्यास ने ’मीडिया और भाषा’ विषयक परिसंवाद में उक्त विचार व्यक्त किए। राजस्थान के उदयपुर के जनार्दराय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय के मीडिया अध्ययन केन्द्र द्वारा आयोजित इस परिसंवाद में डा. व्यास ने कहा कि मीडिया की शब्द रचना के केन्द्र में संवेदना होनी चाहिए। संवेदना का मूल मानवीय करूणा है। उन्होंने मीडिया और साहित्य की बढ़ती दूरी को चिन्ताजनक बताते हुए कहा कि भूलना नहीं चाहिए कि प्रेमचन्द, माखनलाल चतुर्वेदी और रघुवीर सहाय ने मीडिया की भाषा को साहित्य के संस्कार दिये हैं। </p>

मीडिया की भाषा आंख खोलने वाली होनी चाहिए : मीडिया की भाषा आंख खोलने वाली होनी चाहिए जिसे हमारे मनीषियों ने पश्यन्ती कहा है। ऐसी भाषा जो जन सामान्य की अभिरुचि को सुसंस्कृत करे और उन्हें सजग बनाए। सुपरिचित कवि-आलोचक डा. सत्यनारायण व्यास ने ’मीडिया और भाषा’ विषयक परिसंवाद में उक्त विचार व्यक्त किए। राजस्थान के उदयपुर के जनार्दराय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय के मीडिया अध्ययन केन्द्र द्वारा आयोजित इस परिसंवाद में डा. व्यास ने कहा कि मीडिया की शब्द रचना के केन्द्र में संवेदना होनी चाहिए। संवेदना का मूल मानवीय करूणा है। उन्होंने मीडिया और साहित्य की बढ़ती दूरी को चिन्ताजनक बताते हुए कहा कि भूलना नहीं चाहिए कि प्रेमचन्द, माखनलाल चतुर्वेदी और रघुवीर सहाय ने मीडिया की भाषा को साहित्य के संस्कार दिये हैं।

अजमेर विजय सिंह पथिक श्रमजीवी महाविद्यालय के प्राचार्य और कवि डा. अनन्त भटनागर ने कहा कि मीडिया में भाषा के स्तर पर हुए स्खलन ने हमारी सामाजिक चेतना को प्रभावित किया है। उन्होंने कुछ चर्चित विज्ञापनों की भाषा का उल्लेख कर स्पष्ट किया कि बाजार की शक्तियां भाषा को संवेदनहीन बनाकर ग्लैमर से जोड़ती हैं। डा. भटनागर ने कहा कि सचेत पाठक वर्ग हस्तक्षेप कर भाषा के दुरुपयोग को रोक सकता है। प्रभाष जोशी जैसे पत्रकारों के अवदान को रेखांकित कर उन्होंने बताया कि हिन्दी में लोक का मुहावरा अपनाकर मीडिया की भाषा को व्यापक जन सरोकारों से जोड़ा जा सकता है।

परिसंवाद में राजस्थान विद्यापीठ के अंग्रेजी विभागाध्यक्ष प्रो. हेमेन्द्र चण्डालिया ने नयी प्रौद्योगिकी के कारण मीडिया में आए बदलावों की चर्चा की। उन्होंने कहा कि प्रौद्योगिकी निरपेक्ष नहीं होती, वह अपने साथ अपनी संस्कृति को लाती है जो मीडिया की भाषा और मुहावरे को भी बदलने का काम करती है। प्रो. चण्डालिया ने भाषा और सत्ता के सम्बन्धों की ऐतिहासिक सन्दर्भ में व्याख्या कर बताया कि सत्ता का चरित्र भाषा को निर्धारित करता है।

इससे पहले मीडिया अध्ययन केन्द्र के समन्वयक डा. पल्लव ने परिसंवाद की प्रस्तावना रखते हुए कहा कि मीडिया के चरित्र को समझने के लिए भाषा की संरचना और प्रयोग का विश्लेषण बेहद आवश्यक है। केन्द्र के अध्यापक आशीष चाष्टा ने केन्द्र की गतिविधियों की जानकारी दी एवं अतिथियों का स्वागत किया। परिसंवाद में केन्द्र के विद्यार्थियों मनोज कुमार, निखिल चित्तौड़ा ने विषय-विशेषज्ञों से अपनी जिज्ञासाओं का समाधान भी प्राप्त किया। आयोजन में डा. मलय पानेरी, डा. मुकेश शर्मा, डा. योगेश मीणा, एकलव्य नन्दवाना सहित विद्यार्थी, शोध छात्र और अध्यापक उपस्थित थे। अन्त में केन्द्र की छात्रा मंजु जैन ने आभार प्रदर्शित किया।

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0 Comments

  1. sapan yagyawalkya

    January 23, 2010 at 4:31 pm

    yah kahna galat na hoga ki bhasha ko sahejne -samwarne ki jimmedari ishke upyog men mahir logon ki kuchh jyada hai.bazar ki pravratti badalne ke liye ham sabhi ko prayash karna honge.

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