पत्रकारिता में मील का पत्थर साबित हुए ‘स्वराज्य’ जिसके आठों संपादकों जिसमें कुछ को पत्रकारीय मूल्यों के लिए कैद तो कुछ को काले पानी तक की सजा हुयी, के शहर इलाहाबाद में अखबार गलीजपन की हदें स्थापित कर रहे हैं। बीतें लोकसभा चुनावों में अखबारों ने पैसे लेकर खबरों को विज्ञापन के रूप में ही नहीं बल्कि खबरों व खबरों के स्थान के लिए प्रत्याशियों के सामने लाखों रुपये के पैकेज तक पेश किये। खुलेआम यह ऐलान किया कि बिना पैसा लिए खबर नहीं छापेंगे। चुनाव के परवान चढ़ने के बाद यह अभियान इतना तेज हो गया कि अखबारों का दूसरे अखबार से प्रतिस्पर्धा बस इसी के लिए रह गयी कि कौन कितना बड़ा पैकेज ले पा रहा है।
बौद्धिक विरासत की पहचान वाले इलाहाबाद की दोनों लोकसभा सीटों पर दैनिक जागरण और हिंदुस्तान सबसे ज्यादा पैकेज लेने वाल अखबारों में रहे। दैनिक जागरण जिसने ‘जन जागरण’ का ठेका लिया था, ने कांग्रेस से बसपा में आये राजनीतिक गणितबाज अशोक बाजपेयी के सर्वसमाज के लिए अपने को उनके सुपुर्द कर दिया था। ऐसा नहीं कि दैनिक जागरण ने सिर्फ बाजपेयी की ही खबरों को पैसा लेकर छापा, उसने सबके पास अपनी नीलामी के पैकेज भेजे थे। जिसमें बाजपेयी सबसे ज्यादा बोली लगाने वाले निकले। अखबारी सूत्रों के मुताबिक उन्होंने 55 से 60 लाख रुपये खबरों के स्थान खरीदने के लिए दिये थे। दैनिक जागरण ने हद तो तब कर दी जब 14 अपैल की सतीश चंद्र मिश्रा की सभा की खबर को आधे पेज के विज्ञापन के रुप में छापा। जबकी अन्य समाचार पत्रों में यह खबरों के रुप में भले ही नीलामी में आवंटित जगह पर छपी। मीडिया के अंदरुनी जानकारों के मुताबिक चुनावों में बाजार गर्म होने के कारण इसकी कीमत एक से सवा लाख के तकरीबन थी। खबरों की नीलामी के इस खेल को प्रसिद्ध गांधीवादी और आजादी बचाओ आंदोलन के संयोजक बनवारी लाल शर्मा जनता के विवेकपूर्ण तरीके से सूचना पाने के हक को प्रभावित करने वाला मानते हैं। वे कहते हैं कि मीडिया में आए विदेशी निवेश ने हमारी पत्रकारिता को पराभव की ओर अग्रसर कर दिया है। मीडिया जिसकी जिम्मेदारी समाज निर्माण करना और तीनों स्तंभों की रखवाली करना था आज उसका काम सबको भ्रष्ट बनाने का हो गया है।
आज जब पूरे विश्व में मंदी का ढिंढोरा पीटा जा रहा है और छंटनी की जा रही है तब यह अहम सवाल है कि आखिर चुनावों के कुछ महीनें पहले अखबारों ने कैसे अपने नए संस्करण शुरु किये। हिन्दुस्तान ने भी इस चुनावी महासमर में अपनी इलाहाबाद संस्करण की नयी दुकान खोली। सिविल लाइन्स स्थित काफी हाउस की बैठकों में इन दिनों इसी पर चर्चा चल रही है कि किसने कैसे कितना कमाया। पर हिन्दुस्तान के नए संस्करण की चर्चा उसकी खबरों को लेकर नहीं बल्कि उसके पैकेजों को लेकर है। इसका परिणाम हिन्दुस्तान को भविष्य में भुगतना पड़ेगा। अधिक प्रसार वाले अखबार तो चुनावों बाद भी बच जाएंगे क्योंकि उनकी जमीन पुरानी है। पर हिन्दुस्तान के साथ ऐसा नहीं होगा। चुनाव के दरम्यान अखबार के दफ्तर वार रूम में तब्दील हो गए थे जहां हर उम्मीदवार अपने ‘सामर्थ्य’ के हिसाब से धन दे रहा था। इस चुनाव में एक ‘गैर सरकारी’ संगठन के प्रत्याशी डा. नीरज जिनके बस यही विचार हैं कि ‘देश खतरे में है’,‘मतदाता मेरा भगवान’, काफी चर्चा में रहे। लोग यह कह रहें हैं कि जब हर खबर बिक रही हो और उसको खरीद कर अपनी लोकप्रियता बढ़ाई जाने की आपा-धापी हो तो ऐसे लोग भी अपनी दुकान चलाने में लग जाते हैं। डा. नीरज को मात्र 1563 वोट मिले थे पर चुनावों में हर दिन उनकी खबर रहती थी क्योंकि वे चुनाव नहीं बल्कि खबरों के लिए लड़ रहे थे। जितनी ज्यादा उनकी खबरे छपेगी उतना ज्यादा उन्हें बाद में ‘फंडिंग’ होगी।
जानकारों के मुताबिक इलाहाबाद में अमर उजाला ने इस बार पैसा नहीं लिया था। इसका कारण यह है कि पिछले विधानसभा चुनावों में उसने भाजपा का खूब प्रचार किया था और सरकार तक बनवा रहा था। पर नतीजों के बाद जहां भाजपा गर्त में चली गयी तो इससे अमर उजाला की छवि भी बहुत खराब हुयी। अपनी गिरी हुयी साख को फिर से बरकरार करने कि लिए उसने अबकी बार खुलेआम तो खबर बेचने का काम नहीं किया। पर रिपोर्टरों ने जरूर कुछ किया। सबसे ज्यादा सरकुलेशन की वजह से दैनिक जागरण ने इस चुनाव में तकरीबन दो से ढाई करोड़ का व्यापार इन दोनों सीटों पर किया। प्रबंधन द्वारा आधिकारिक स्वीकृत के बाद भी प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रकार का कारोबार हुआ। एक तो वह जो सीधे मालिकों के हाथों गया। दूसरा अच्छी खबरें लिखने और अच्छी फोटो के लिए काम कर रहे पत्रकारों ने अलग से दिहाड़ी वसूली। खबरें मुख्यतः दो प्रकार की थीं। एक वो स्थान जिसे प्रत्याशी अपने लिए आवंटित कराता था, वहां हू-ब-हू जैसे वह लिखवाकर भेजता था, वैसे ही चेप दी जाती थी। दूसरी वो खबरें जिसमें रिपोर्टर अपनी ‘विलक्षण प्रतिभा’ से रिपोर्टिंग कर किसी के पक्ष में तो किसी के खिलाफ माहौल बनाता था। इलाहाबाद से लड़ रहे बसपा के अशोक वाजपेयी की तीन से चार खबरें दैनिक जागरण में लगती थीं तो वहीं सपा के रेवती रमण सिंह की एक या दो। इन दोनों की तुलना में भाजपा के योगेश शुक्ला और कांग्रेस के श्याम कृष्ण पाण्डेय नाम मात्र खबरें रहा करती थीं। तो वहीं कभी नेहरु का गढ़ रहे फूलपुर से बसपा के कपिल मुनि करवरिया खबरों के मामले में सपा के श्यामा चरण से डेढ़ गुना आगे थे।
भाजपा के करण सिंह पटेल और कांग्रेस के धर्मराज पटेल भी नाम मात्र का ही स्थान खबरों में पाए। इन सभी प्रत्याशियों के चुनाव परिणामों पर अगर नजर डालें तो यह निष्कर्ष निकलता है कि खबरों में इनकी उपस्थिति और परिणामों में जमीन आसमान का अंतर है। फूलपुर से लड़ रहे अपना दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनेलाल पटेल और अपना दल के बागी उम्मीदवार प्रदीप कुमार श्रीवास्तव की खबरों और चुनावों परिणामों में काफी अंतर दिखा। प्रदीप कुमार श्रीवास्तव की जहां खूब खबरें रहा करती थीं तो वहीं अपना दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के बावजूद सोनेलाल खबरों में नदारद थे। भले ही इसकी जातीय गणित के चलते सोनेलाल को आवश्यकता न थी। इतना ही नहीं प्रदीप के पक्ष में सोनेलाल की नकारात्मक रिपोर्टिंग की गयी। सोनेलाल को 76699 मत मिले तो वहीं प्रदीप को 1438।
दैनिक जागरण ने कपिल मुनि करवरिया, जिनकी बालू माफिया की छवि है, का मेकओवर करने के लिए उन पर कई फोटो फीचर छापे। इसमें कभी वो घर में पूजा करते तो कभी परिवार में शांत भाव में बैठे दिखाई देते जो उनकी वास्तविक छवि के एकदम विपरीत है और जिसका चुनावी रिपोर्टिंग से कोई मतलब नहीं दिखता। अखबारों ने बसपा की भाई चारा समितियों का जो पुलिंदा बाधा था, उसने चुनाव आते-आते अपना भाण्डा खुद फोड़ दिया। मतदान के दिन ब्राह्मण भाई-चारा समिति के अध्यक्ष अक्षयवर नाथ पाण्डेय को भुंडा गांव के दलितों ने जबरन अशोक बाजपेयी के पक्ष में वोट डलवाने के चलते नंगाकर दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। दरअसल ये जो भी प्रत्याशी थे, इनको अपना मेकओवर इसलिए भी करवाना पड़ा क्योंकि कोई छवि ही नहीं थी। जहां करवरिया की पहचान बालू माफिया की थी तो वहीं अशोक वाजपेयी की पहचान कांग्रेस के भगोड़े की थी।
अखबारों में चल रहीं इस रिपोर्टिंग के खिलाफ ‘डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट’ ही एक ऐसा अखबार था जिसने मोर्चा खोला। 29 मार्च को ‘मीडिया के घोड़े भी चुनावी मैदान में’ सुर्खियों से छपी खबर ने इस गोरखधंधे का खुलासा किया। आजादी के बाद भारत की पत्रकारिता पर लेखन कर रहे अभय प्रताप कहते हैं कि आजादी के बाद मीडिया अपने चरित्र निर्माण के प्रति उदासीन होती चली गयी, जिसका विकृत रूप खबरों के खरीद-फरोख्त में दिख रहा है। तो वहीं इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के प्राध्यापक सुनील उमराव कहते हैं कि जिस तरह से खबरों का व्यवसाय हुआ उसने इन मीडिया संस्थानों ही नहीं, इनके द्वारा संचालित मीडिया स्कूलों पर भी सवाल उठाया है कि ये संस्थान अपने छात्रों को पत्रकारिता के किन मूल्यों पर खड़ा कर रहे है, जब इनका प्रबंधन खुलेआम पैसे की मांग कर रहा है तो ये क्या-क्या करेंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है।