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नोएडा के पत्रकार, प्रेस कांफ्रेंस, 100 का नोट

अंदर तक हिला देने वाली और बहुत से मिथक तोड़ देने वाली इस घटना में शामिल होने का जितना मुझे दुख है, उससे कहीं अधिक रोष। घटना के बाद मैं देर तक यही सोचता रहा कि अगर नोट एक हजार का होता तो क्या ऐसे हालात बनते? पत्रकार प्रेस कांफ्रेंस का बहिष्कार करके जाते? या फिर चुपचाप अंटी में लिफाफा दबाकर लंच करते और चल देते? पर इस वाकया से एक बात जरूर साफ हो गई है कि पत्रकारिता की औकात नेताओं के नजर में क्या रह गई है।

अंदर तक हिला देने वाली और बहुत से मिथक तोड़ देने वाली इस घटना में शामिल होने का जितना मुझे दुख है, उससे कहीं अधिक रोष। घटना के बाद मैं देर तक यही सोचता रहा कि अगर नोट एक हजार का होता तो क्या ऐसे हालात बनते? पत्रकार प्रेस कांफ्रेंस का बहिष्कार करके जाते? या फिर चुपचाप अंटी में लिफाफा दबाकर लंच करते और चल देते? पर इस वाकया से एक बात जरूर साफ हो गई है कि पत्रकारिता की औकात नेताओं के नजर में क्या रह गई है।

वह भी ऐसे टुच्चे नेताओं की नजर में जो एक जिले या प्रदेश की राजनीति करते हैं। हुआ यूं कि एक जून को उत्तर प्रदेश महिला कांग्रेस की नवनियुक्त महासचिव जाहिरा जैदी ने नोएडा में प्रेस वार्ता की। प्रेस वार्ता का सारा जिम्मा कांग्रेस से लोकसभा के प्रत्याशी रहे रमेश चंद्र तोमर व अन्य कथित नेताओं पर था। वार्ता में बड़ी-बड़ी बातें कहकर, खुद को देशभक्त बताकर जैदी ने प्रेस रिलीज को लिफाफे में रखकर बांटना शुरू कर दिया। पत्रकारों ने जैसे ही लिफाफे को खोला उसमें, सौ का नोट भी निकला जो निश्चित रूप से पत्रकारों को रिश्वत के तौर पर दिया गया था ताकि वार्ता का कवरेज बेहतर हो। लेकिन पत्रकारों ने सौ का नोट देखकर आपा खो दिया और वार्ता का बहिष्कार कर दिया। नेताओं के होश उड़ गए। मांफी मांगते फिरते रहे और खूब मिन्नतें कीं। कुछ पत्रकार मान गए और कुछ चल दिए। सोचता हूं कि आखिर इन कथित नेताओं के मन में पत्रकारों की औकात क्या रह गई है ? बताया गया कि किन्हीं दलाल पत्रकारों ने उनके शुभ चिंतक होने और अच्छा कवरेज कराने की बात कहकर उन्हें यह सलाह दी थी कि लिफाफे में 100 रुपए रख कर देना। नेता अखबारों और चैनल के कार्यालय में फोन करते रहे और खुद पत्रकारों की सलाह पर ऐसा कृत्य करने की बात कहते रहे।

इस घटना के बाद से मैं बड़ा आहत हूं। पत्रकारिता को लेकर जो मिथक और सपने मैंने गढ़े थे उन्हें बड़ा धक्का लगा है। खासकर धक्का उस समय घाव बन गया जब खबर नेताओं के खिलाफ न छाप कर सीधे तरीके से प्रकाशित की गई। मैं सोच रहा था कि खबर मुख्य पृष्ठ पर जाएगी और पत्रकारिता का अपमान करने के कारण जाहिरा जैदी की महासचिव पद से छुट्टी हो जाएगी, पर अभी तक तो ऐसा कुछ नहीं हुआ। अपने हाल ही में शुरू हुए पत्रकारिता जीवन में इस तरह का यह पहला मौका था। गंदी हो चुकी राजनीति का यह कार्य सहनशीलता से बाहर है। लेकिन पत्रकारों की यह औकात आखिर बनाई किसने है? इतना बड़ा अपमान वहां मौजूद कुछ अखबारों के संपादक और बड़े रिपोर्टर हंसते-हंसते सह गए। हां, मेरी उम्र के कुछ नए पत्रकारों और फोटोग्राफरों ने विरोध किया और नेताओं के पुरजोर आग्रह के बावजूद लौटकर वापस नहीं गए। पत्रकारिता का इस तरह से पतन देखकर मन अंदर से बहुत भारी हो गया। लगा, जैसे पत्रकारिता की धार पैसों ने कुंद कर दी है। पिछले एक साल से नोएडा की पत्रकारिता की छवि देखकर अब महसूस करता हूं कि अगर नोट एक हजार का होता तो क्या जो पत्रकार वापस आ गए या जो विरोध हुआ, वह भी होता क्या? चुनाव का मौका हो या फिर छोटा-मोटा लाभ पाने की स्थिति, खबरों से हमेशा ही तो समझौता होता है। लोकसभा चुनाव में पत्रकारों की हैसियत भी तो इसी बात से नापी गई थी कि किसने कितना पैसा पार्टियों से लिया। जिसने ज्यादा पाया वह ज्यादा बड़ा पत्रकार माना गया।

अफसोस यह कि बड़े पत्रकारों की सौदेबाजी में हम जैसे आत्मसम्मान से जीने वाले रिपोर्टर की इज्जत हर कदम पर जार-जार होती है। टुच्चे नेताओं में 100 रुपए देने का साहस तभी आया जब बड़े पत्रकार बड़े नेताओं से करोड़ों का सौदा करते हैं। अक्सर पत्रकारिता को वैश्या कहे जाने का रिवाज सुर्खियों में आता रहा है लेकिन कुछ दलालों ने इसे वेश्या से भी गया गुजरा बनाकर छिनाल का रूप दे दिया है। वैश्या तो मजबूरी में पेट पालने के लिए जिस्म का सौदा करती है, पर छिनाल तो अपने आनंद के लिए कई लोगों के साथ हमबिस्तर होने में सुकून पाती है। ऐसी ही हालत पत्रकारिता की होती जा रही है जो अलग-अलग लोगों के फायदे के लिए धनाढ्यों की रखैल बनकर रह गई है। पैसा दो, कुछ भी छपवा लो। रात को पत्रकारों को दारू पिलाओ और कुछ भी छपवा लो।

लेकिन पत्रकारिता का यह रूप कितने समय तक उसे जीवित रख सकता है? यह वाकया जरूर एक जिले का हो लेकिन यह हालत बड़े स्तर पर और भी भयावह है। पत्रकारिता के मायने खो गए हैं। एसी और लग्जरी गाड़ियों में सफर करने वाले संपादक अभी भी सावधान नहीं हैं। राज्यसभा में जाने का सपना संजोये बैठे ये संपादक लोग सौ रुपए की जलालत नहीं झेल रहे हैं लेकिन वे इस बात में फूले नहीं समाते कि अमुक नेता से उनके अच्छे संबंध हैं। मेरा नेताओं को दोष देने का मन कतई नहीं हो रहा है क्योंकि बिकाऊ तो हमारी ही बिरादरी हो गई है। और जो चीज बिकाऊ हो, उसे कौन नहीं खरीदना चाहता है। पैसा है तो खरीद रहे हैं। लेकिन दुख इस बात पर है कि बाहर से बेहतर छवि परोसने वाली पत्रकारिता किस स्तर तक गिर गई है और ऐसे ही हालात रहे तो और किस स्तर तक गिरेगी….?


लेखक राहुल कुमार युवा पत्रकार हैं और इन दिनों एक बड़े अखबार के नोएडा ब्यूरो में कार्यरत हैं। यह आलेख भड़ास ब्लाग से साभार लिया गया है। राहुल के इस साहस और सोच को अगर आप सपोर्ट करना चाहते हैं, शाबासी देना चाहते हैं,  तो उनके लिखे मूल आलेख पर कमेंट जरूर करें। इसके लिए क्लिक करें- अगर नोट एक हजार का होता तो….
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