राहुल कुमार को हमारे-आपके सहयोग की दरकार है भी या नहीं?

पंकज झा: हम राहुल कुमार के साथ हैं, लेकिन….! : यशवंत जी, भास्कर में राहुल से संबंधित खबर के बाद आपका आलेख पढ़ कर याद आया कि संबंधित साइट भड़ास4मीडिया ही है. वह प्रकरण भी याद आया. तो यहां यह कहना ज़रूरी है कि निश्चित ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे लोकतंत्र को पावन बनाता है.

यशवंतजी, हमें जरा राहुल कुमार की बहादुरी भी देखने दीजिए!

संजय कुमार सिंहयशवंतजी, पत्रकार राहुल कुमार का प्रकरण मुझे याद है। अभी मैं इस चर्चा में नहीं पड़ रहा हूं कि पुलिस को उसके खिलाफ कार्रवाई करना चाहिए कि नहीं या कार्रवाई सही है अथवा गलत। मुझे लग रहा है कि इस मामले से खुद को जोड़कर आप भी उसी भावुकता का परिचय दे रहे हैं, जो राहुल ने दिया था।

विचार.भड़ास4मीडिया.कॉम के एक लेख पर पत्रकार राहुल के खिलाफ आईटी एक्ट में मुकदमा

बात पुरानी हो चली है. पत्रकार राहुल कुमार ने गरीबों-आदिवासियों-निरीहों के सरकारी दमन से आक्रोशित होकर गृहमंत्री पी. चिदंबरम को संबोधित एक पद्य-गद्य युक्त तीखा आलेख भावावेश में लिख दिया. और उसे हम लोगों ने भड़ास4मीडिया के विचार सेक्शन में प्रकाशित भी कर दिया.

यशवंत दोगला और डरपोक है

राहुल कुमारउस दिन जब नई दिल्ली, फ्रेंड्स कॉलोनी में स्पेशल सेल (दिल्ली पुलिस) में पुलिस इंस्पेक्टर के सामने बैठा था तो अंदाजा हुआ कि बाहर से बड़ी-बड़ी बातें करने और बिंदास लिखने वाला यशवंत कितना दोगला और डरपोक है. उस दिन चिदंबरम का बयान आया था कि अगर किसी ने भी माओवादियों के समर्थन में बोला तो उसे राष्ट्रद्रोही समझा जाएगा और उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. इसी से तमक कर मैंने कुछ उल्टी-सीधी चीजें लिखी थी जिसे यशवंत ने खट से छाप दिया.

खूब बिकी किशोरी वो तो नोएडा वाली आरूषि थी

आरुषि हत्याकांड पर एक टीवी न्यूज चैनल की पेशकशसिर्फ मरा हाथी ही सवा लाख का नहीं होता। यहां तो मासूम किशोरी आरूषि मरने के बाद मीडिया के लिए करोड़ों की साबित हुई है। धंधा बन चुकी और टीआरपी की गुलाम मीडिया ने जैसे चाहा, आरूषि को वैसे बेचा। किसी ने ‘पापा का पाप’ कहकर बेचा तो किसी ने ‘पापा तूने क्यों मारा’ कहकर। किसी ने उसे ‘मासूम’ करार दिया तो किसी ने ‘आज की आधुनिक लड़की’, जिसे माता-पिता भी नहीं समझ सके। तरह तरह से, पचासों एंगल से उसे बेचा।

नोएडा के पत्रकार, प्रेस कांफ्रेंस, 100 का नोट

अंदर तक हिला देने वाली और बहुत से मिथक तोड़ देने वाली इस घटना में शामिल होने का जितना मुझे दुख है, उससे कहीं अधिक रोष। घटना के बाद मैं देर तक यही सोचता रहा कि अगर नोट एक हजार का होता तो क्या ऐसे हालात बनते? पत्रकार प्रेस कांफ्रेंस का बहिष्कार करके जाते? या फिर चुपचाप अंटी में लिफाफा दबाकर लंच करते और चल देते? पर इस वाकया से एक बात जरूर साफ हो गई है कि पत्रकारिता की औकात नेताओं के नजर में क्या रह गई है।