मीडिया और मुकदमा : बड़े-बड़े मीडिया हाउस जब अपने कर्मियों को जायज हक न दें तो उनसे कौन लड़े? यह सवाल अगर बनारस में कोई किसी पत्रकार से पूछे तो वो तुरंत बताएगा- अपने ‘दादा’ लड़ेंगे। ये ‘दादा’ नाम है एडवोकेट अजय मुखर्जी का। इन्हें सभी लोग प्यार से दादा कहते हैं। आपको यकीन नहीं होगा लेकिन यह सच है कि दादा ने पत्रकारों के 100 से ज्यादा मुकदमें न सिर्फ लड़े हैं बल्कि जीते भी हैं। बड़े-बड़े अखबारों के प्रबंधन को पीड़ित पत्रकारों का हक देने के लिए मजबूर किया है। पत्रकारों के बारे में वैसे भी कहा जाता है कि वह आमजन की लड़ाई तो लड़ता है लेकिन जब बात अपने अधिकारों की होती है तो वह अक्सर चुप रह जाता है। नौकरी जाने के डर से वह अपने जायज हक की मांग भी नहीं उठा पाता। मालिकों द्वारा शोषित होता हुआ वो लगातार अपने फर्ज को अंजाम देने में जुटा रहता है।
इसी तरह के पत्रकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं बनारस के दादा उर्फ एडवोकेट अजय मुखर्जी। अजय मुखर्जी का जन्म बनारस में ही हुआ। वहीं पले-पढ़े। वह 1984 से बनारस में वकालत कर रहे हैं। मुखर्जी सिविल और लेबर वकील हैं। अखबार के गैर संपादकीय कर्मचारियों के हक के लिए जंग की शुरुआत उनके पिता ने 1950 में ‘प्रेस मजदूर सभा’ का गठन कर किया था। इस संगठन से पत्रकार अछूते रह गए तो अजय मुखर्जी ने 1980 में ‘समाचार पत्र कर्मचारी यूनियन (जर्नलिस्ट/ गैर जर्नलिस्ट)’ का रजिस्ट्रेशन कराया। मुखर्जी अब तक पत्रकारों को उनका अधिकार दिलाने के लिए लगभग 100 मुकदमें लड़ चुके हैं। वे काशी पत्रकार संघ समेत कई पत्रकार संघों के लीगल एजवाइजर भी हैं। आखिर उन्हें पत्रकारों की लड़ाई लड़ने की क्यों सूझी? पूछने पर अजय मुखर्जी कहते हैं कि इसकी शुरुआत मेरे पिता ने प्रेस मजदूर सभा के जरिए की थी। वह बनारस में मजदूर यूनियन के जन्मदाता रहे हैं। कुछ एक प्रकरण स्वतः आए तो मैंने इसे गंभीरता से लेना शुरू कर दिया। पत्रकारों का केस लड़ने के लिए आर्थिक मदद कहां से मिलती है?
यह पूछने पर उनका कहना है कि मैं केस के लिए कोई शुल्क नहीं लेता। हमारे यूनियन में लगभग 835 मीडियाकर्मी जुड़े हैं। यूनियन का सलाना शुल्क 30 रुपये है। इसी से काम चलता है। अधिक खर्च होने पर खर्चा पत्रकार संघ उठाता है। मुकदमा लड़ने के लिए पत्रकारों का समर्थन मिलता है या नहीं? इस सवाल के जवाब में मुखर्जी का कहना है कि शत-प्रतिशत समर्थन मिलता है। लेकिन चूंकि सभी पत्रकार किसी न किसी मीडिया हाउस से जुड़े हैं, इसलिए उनका समर्थन नैतिक और पर्दे के पीछे से होता है। पत्रकारों से जुड़े मुकदमों में उन्हें कितनी सफलता मिली है? इसके जवाब में दादा कहते हैं कि हमने शत-प्रतिशत मुकदमों में जीत हासिल की है और पत्रकारों को उनका हक दिलाया है। मुखर्जी कहते हैं कि मीडिया हाउस पत्रकारों का जमकर शोषण कर रहे हैं। वह खुद तो करोड़ों में खेल रहे हैं लेकिन मीडियाकर्मियों को उनका वाजिब हक देने से आज भी कतरा रहे हैं। उन्हें यूं ही चैन से नहीं बैठने दिया जाएगा।
दादा से पूछा कि आजकल कौन सा मुकदमा लड़ने में तन, मन और धन लगाए हैं तो उन्होंने बताया कि वे आजकल ‘कुरुप वेजबोर्ड’ के आदेश को लागू करवाने में जुटे हैं। मिनिस्ट्री आफ लेबर पत्रकारों के वेतन को रिवाइज करने के लिए वेजबोर्ड बैठाता है। हालिया कुरुप वेजबोर्ड ने अपने आदेश में मीडियाकर्मियों को उनके बेसिक का 30 फीसदी देने का आदेश दिया है। वेजबोर्ड ने यह बढ़ोतरी 1 जनवरी 2008 से देने का आदेश दिया है। इस संबंध में 5 महीने पहले गजट भी आ चुका है। बावजूद इसके मीडिया संस्थानों के मालिकों ने इसे लागू नहीं किया है। इसको लेकर मुखर्जी नवंबर 2008 में शिकायत दर्ज करा चुके हैं। एडिशनल लेबर कमिश्नर, वाराणसी जोन ने मामले पर संज्ञान लेते हुए 1 दिसंबर 2008 को सभी मीडिया मालिकों को कारण बताओ नोटिस जारी किया। इसके बाद भी स्थिति जस की तस बनी हुई है। हार नहीं मानते हुए मुखर्जी ने फरवरी-मार्च 09 में दुबारा शिकायत की है। मामला फिलहाल एडिशनल लेबर कमिश्नर वाराणसी जोन के पास है।
दादा कहते हैं कि इस बेजवोर्ड के आदेश के लागू होने से हर मीडियाकर्मी के वर्तमान बेसिक वेतन में 30 फीसदी का इजाफा होगा। जैसे अगर किसी सब एडिटर का बेसिक 10 हजार रुपये है तो उसे 3 हजार रुपये का अतिरिक्त फायदा होगा। जिसका बेसिक 20 हजार रुपये है उसे 6 हजार रुपये फायदा होगा। वेजबोर्ड ने मीडिया संस्थान के मालिकों को एरियर देने का भी आदेश दिया है। सीनियर लोगों के एरियर की राशि 25 हजार रुपये तक होगी।
अजय मुखर्जी एडवोकेट उर्फ दादा से संपर्क करने के लिए और उनके हौसले को सलाम करने के लिए आप उन्हें उनकी मेल आईडी [email protected] पर मेल भेज सकते हैं।