माओवादी बताकर गिरफ्तार की गईं इलाहाबाद की पत्रकार सीमा आजाद के मामले में मीडिया की रिपोर्टिंग से आहत कामरेडों ने पत्रकार बंधुओं के नाम एक अपील जारी की है. कुछ सलाह दी है. जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी नामक संगठन की ओर से जारी अपील में कई अच्छी बातें कही गई हैं. पत्रकार जब रिपोर्टिंग करें तो आंख-नाक-कान खुले रखें और सवाल पूछने की हिम्मत भी रखें, सिर्फ वही न लिखें, जो उन्हें ब्रीफ या फीड कर दिया जाता है. साथ ही नक्सलवाद, माओवाद और आतंकवाद के बारे में अपनी धारणा को बदलें. जानें कि इस श्रेणी के अपराध बाकी अपराधों से किस तरह अलग हैं. अपील जारी करने वाले लोगों में जिनके नाम हैं, वे नाम अक्सर मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की ई-मेलों में भी दिख जाया करते हैं. हम यहां कामरेडों की अपील को इस उद्देश्य से प्रकाशित कर रहे हैं कि मीडिया के लोगों से अगर कोई संगठन कुछ अपेक्षा कर रहा है तो उसकी बात सभी मीडियाकर्मियों तक पहुंचनी चाहिए. जरूरी नहीं कि आप इस अपील से पूरी तरह सहमत ही हों. अगर आप कोई अलग राय रखते हैं तो उसका इजहार नीचे कमेंट के रूप में कर सकते हैं.
-यशवंत
एडिटर, भड़ास4मीडिया
नक्सलवाद / माओवाद / आतंकवाद की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों से जेयूसीएस की एक अपील
साथी,
पत्रकार बंधुओं,
देश में नक्सलवाद / माओवाद / आतंकवाद के नाम पर चल रहे सरकारी दमन के बीच मीडिया और आप सभी की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। सत्ता जब मीडिया को अपना हथियार व पुलिस पत्रकारों को अपने बंदूक की गोली की भूमिका में इस्तेमाल करे तो ऐसे समय में हमे ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है। पुलिस की ही तरह हमारे कलम से निकलने वाली गोली से भी एक निर्दोष के मारे जाने की भी उतनी ही सम्भावना होती है, जितनी की एक अपराधी की। हमें यहां यह बातें इसलिए कहनी पड़ रही हैं क्योंकि नक्सलवाद / माओवाद / आतंकवाद जैसे मुददों पर रिपोर्टिंग करते समय हमारे ज्यादातर पत्रकार साथी न केवल पुलिस के प्रवक्ता नजर आते हैं, बल्कि उससे कहीं ज्यादा वह उन पत्रकारीय मूल्यों को भी ताक पर रख देते हैं, जिसके बल पर उनकी विश्वसनीयता बनी है।
हमें दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हाल ही में इलाहाबाद में पत्रकार सीमा आजाद व कुछ अन्य लोगों की गिरफ़्तारी के बाद भी मीडिया व पत्रकारों का यही रुख देखने को मिला। सीमा आजाद इलाहाबाद में करीब 12 सालों से एक पत्रकार, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता के बतौर सक्रिय रही हैं। इलाहाबाद में कोई भी सामाजिक व्यक्ति या पत्रकार उन्हें आसानी से पहचानता होगा। कुछ नहीं तो वैचारिक-साहित्यिक सेमिनार / गोष्ठियां कवर करने वाले पत्रकार उन्हें बखूबी जानते होंगे। लेकिन आश्चर्य की बात है कि जब पुलिस ने उन्हीं सीमा आजाद को माओवादी बताया तो किसी पत्रकार ने आगे बढ़कर इस पर सवाल नहीं उठाया। आखिर क्यों? क्यों अपने ही बीच के एक व्यक्ति या महिला को पुलिस के नक्सली / माओवादी बताए जाने पर हम मौन रहे? पत्रकार के तौर पर हम एक स्वाभाविक सा सवाल क्यों नहीं पूछ सके कि किस आधार पर एक पत्रकार को नक्सली / माओवादी बताया जा रहा है? क्या कुछ किताबें या किसी के बयान के आधार पर किसी को राष्ट्रद्रोही करार दिया जा सकता है? और अगर पुलिस ऐसा करती है तो एक सजग पत्रकार के बतौर क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती?
पत्रकार साथियों को ध्यान हो, तो यह अक्सर देखा जाता है कि किसी गैर-नक्सली / माओवादी की गिरफ्तारी दिखाते समय पुलिस एक रटा-रटाया सा आरोप उन पर लगाती है। मसलन यह फलां क्षेत्र में फलां संगठन की जमीन तैयार कर रहा था / रही थी, या कि वह इस संगठन का वैचारिक लीडर था / थी, या कि उसके पास से बड़ी मात्रा में नक्सली / माओवादी साहित्य (मानो वह कोई गोला बारूद हो) बरामद हुआ है। आखिर पुलिस को इस भाषा में बात करने की जरूरत क्यों महसूस होती है? क्या पुलिस के ऐसे आरोप किसी गंभीर अपराध की श्रेणी में आते हैं? किसी राजनैतिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार करना या किसी खास राजनैतिक विचारधारा (भले ही वो नक्सली / माओवादी ही क्यों न हो) से प्रेरित साहित्य पढ़ना कोई अपराध है? अगर नहीं तो पुलिस द्वारा ऐसे आरोप लगाते समय हम चुप क्यों रहते हैं? क्यों हम वही लिखते हैं, जो पुलिस या उसके प्रतिनिधि बताते हैं। यहां तक की पुलिस किसी को नक्सलवादी / माओवादी / आतंकवादी बताती है और हम उसके आगे ‘कथित’ लगाने की जरूरत भी महसूस नहीं करते। क्यों?
हम जानते हैं कि हमारे वो पत्रकार साथी जो किसी खास दुराग्रह या पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होते, वह भी खबरें लिखते समय ऐसी ‘भूल’ कर जाते हैं। शायद उन्हें ऐसी ‘भूल’ के परिणाम का अंदाजा न हो। उन्हें नहीं मालूम की ऐसी ‘भूल’ किसी की जिंदगी और सत्ता-पुलिसतंत्र की क्रूरता की गति को तय करते हैं। जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) सभी पत्रकार बंधुओं से अपील करती है कि नक्सलवाद / माओवाद / आतंकवाद की रिपोर्टिंग करते समय कुछ मूलभूत बातों का ध्यान रखने की कोशिस करें…
नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद तीनों अलग-अलग विचार हैं। नक्सलवाद/माओवाद राजनैतिक विचारधाराएं हैं तो आतंकवाद किसी खास समय, काल व परिस्थियों से उपजे असंतोष का परिणाम है। यह कई बार हिंसक व विवेकहीन कार्रवाई होती है जो जन समुदाय को भयाक्रांत करती है. इन सभी घटनाओं को एक ही तराजू में नहीं तौला जा सकता। नक्सलवादी/माओवादी विचारधारा का समर्थक होना कहीं से भी अपराध नहीं है। इस विचारधारा को मानने वाले कुछ संगठन खुले रूप में आंदोलन चलाते हैं और चुनाव लड़ते हैं तो कुछ भूमिगत रूप से संघर्ष में विश्वाश करते हैं। कुछ भूमिगत नक्सलवादी/माओवादी संगठनों को सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा है। लेकिन यहीं यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इन संगठनों की विचारधारा को मानने पर कोई मनाही नहीं है। इसीलिए पुलिस किसी को नक्सलवादी/माओवादी विचारधारा का समर्थक बताकर गिरफ्तार नहीं कर सकती है, जैसा की पुलिस अक्सर करती है। हमें विचारधारा व संगठन के अंतर को समझना होगा।
इसी प्रकार पुलिस जब यह कहती है कि उसने नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य (कई बार धार्मिक साहित्य को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है) पकड़ा है तो उनसे यह जरूर पूछा जाना चाहिये कि आखिर कौन-कौन सी किताबें इसमें शामिल हैं। मित्रों, लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी खास तरह की विचारधारा से प्रेरित होकर लिखी गई किताबें रखना/पढ़ना कोई अपराध नहीं है। पुलिस द्वारा अक्सर ऐसी बरामदगियों में कार्ल मार्क्स / लेनिन / माओत्से तुंग / स्टेलिन / भगत सिंह / चेग्वेरा / फिदेल कास्त्रो / चारू मजूमदार / किसी संगठन के राजनैतिक कार्यक्रम या धार्मिक पुस्तकें शामिल होती हैं। ऐसे समय में पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि कालेजों / विश्वविद्यलयों में पढ़ाई जा रही इन राजनैतिक विचारकों की किताबें भी नक्सली / माओवादी / आतंकी साहित्य हैं? क्या उसको पढ़ाने वाला शिक्षक / प्रोफेसर या पढ़ने वाले बच्चे भी नक्सली / माओवादी / आतंकी हैं? पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि प्रतिबंधित साहित्य का क्राइटेरिया क्या है, या कौन सा वह मीटर / मापक है जिससे पुलिस यह तय करती है कि यह नक्सली / माओवादी / आतंकी साहित्य है।
यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है की अक्सर देखा जाता है की पुलिस जब कोई हथियार, गोला-बारूद बरामद करती है तो मीडिया के सामने खुले रूप में (कई बार बड़े करीने से सजा कर) पेश की जाती है, लेकिन वही पुलिस जब नक्सलवादी / माओवादी / आतंकवादी साहित्य बरामद करती है तो उसे सीलबंद लिफाफों में पेश करती है. इन लिफाफों में क्या है, हमें नहीं पता होता है लेकिन हमारे सामने इसके लिए कुछ ‘अपराधी’ हमारे सामने होते हैं. आप पुलिस से यह भी मांग करें कि बरामद नक्सलवादी / माओवादी / आतंकवादी साहित्य को खुले रूप में सार्वजनिक किया जाए.
नक्सलवाद / माओवाद / आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तारियों के पीछे किसी खास क्षेत्र में चल रहे राजनैतिक / सामाजिक व लोकतांत्रिक आन्दोलनों को तोड़ने / दबाने या किसी खास समुदाय को आतंकित करने जैसे राजनैतिक लोभ छिपे होते हैं। ऐसे समय में यह हमें तय करना होता है कि हम किसके साथ खड़े होंगे। सत्ता की क्रूर राजनीति का सहभागी बनेंगे या न्यूनतम जरूरतों के लिए चल रहे जनआंदोलनों के साथ चलेंगे।
हम उन तमाम संपादकों / स्थानीय संपादकों / मुख्य संवाददातों से भी अपील करते हैं, की वह अपने क्षेत्र में नक्सलवादी / माओवादी / आतंकवादी घटनाओं की रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी अपराध संवाददाता (क्राइम रिपोर्टर) को न दें. यहां ऐसा सुझाव देने के पीछे इन संवाददाताओं की भूमिका को कमतर करके आंकना हमारा कतई उद्देश्य नहीं है. हम केवल इतना कहना चाहते हैं कि यह संवाददाता रोजाना चोर, उच्चकों, डकैतों और अपराधों की रिपोर्टिंग करते-करते अपने दिमाग में खबरों को लिखने का एक खांचा तैयार कर लेते हैं और सारी घटनाओं की रिपोर्ट तयशुदा खांचे में रहकर लिखते है. नक्सलवाद / माओवाद / आतंकवाद की रिपोर्टिंग हम तभी सही कर सकते हैं जब हम इस तयशुदा खांचे से बहार आयेगे. नक्सलवाद / माओवाद / आतंकवाद कोई महज आपराधिक घटनाएं नहीं है, यह शुद्ध रूप से राजनैतिक मामला है.
हमे पुलिस द्वारा किसी पर भी नक्सलवादी / माओवादी / आतंकवादी होने के लगाए जा रहे आरोपों के सत्यता की पुख्ता जांच करनी चाहिये। पुलिस से उन आरोपों के संबंध में ठोस सबूत मांगे जाने चाहिये। पुलिस से ऐसे कथित नक्सलवादी / माओवादी / आतंकवादी के पकड़े जाने के आधार की जानकारी जरूर लें।
हमें पुलिस के सुबूत के अलावा व्यक्तिगत स्तर पर भी सत्यता की जांच करने की कोशिश करना चाहिये। मसलन अभियुक्त के परिजनों से बातचीत करना चाहिये। परिजनों से बातचीत करते समय अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरूरत होती है। अक्सर देखा जाता है कि पुलिस के आरोपों के बाद ही हम उस व्यक्ति को अपराधी मान बैठते हैं और उसके बाद उसके परिजनों से भी ऐसे सवाल पूछते हैं जो हमारी स्टोरी व पुलिस के दावों को सत्य सिद्ध करने के लिए जरूरी हों। ऐसे समय में हमें अपने पूर्वाग्रह को कुछ समय के लिए किनारे रखकर, परिजनों के दर्द को सुनने/समझने की कोशिश करनी चाहिए। शायद वहां से कोई नयी जानकारी निकल कर आए जो पुलिस के आरोपों को फर्जी सिद्ध करे।
कोई भी अभियुक्त तब तक अपराधी नहीं है, जब तक कि उस पर लगे आरोप किसी सक्षम न्यायालय में सिद्ध नहीं हो जाते या न्यायालय उसे दोषी नहीं करार देती। हमें केवल पुलिस के नक्सलवादी / माओवादी / आतंकवादी बताने के आधार पर ही इन शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ऐसे शब्द लिखते समय ‘कथित’ या ‘पुलिस के अनुसार’ जरूर लिखना चाहिये। अपनी तरफ से कोई जस्टिफिकेशन नहीं देना चाहिये।
पत्रकार बंधुओं, यहां इस तरह के सुझाव देने के पीछे हमारा यह कत्तई उद्देश्य नहीं है कि आप किसी नक्सलवादी / माओवादी / आतंकवादी का साथ दें। हम यहां कोई ज्ञान भी नहीं देना चाहते। हमारा उद्देश्य केवल इतना सा है कि ऐसे मसलों की रिपोर्टिंग करते समय हम जाने / अनजाने में सरकारी प्रवक्ता या उनका हथियार न बन जाए। ऐसे में जब हम खुद को लोकतंत्र का चौथा-खम्भा या वाच डाग कहते हैं तो जिम्मेदारी व सजगता की मांग और ज्यादा बढ़ जाती है। जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) आपको केवल इसी जिम्मेदारी का एहसास करना चाहती है। उम्मीद है कि आपकी लेखनी शोषित / उत्पीड़ित समाज की मुखर अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकेगी !!
निवेदक
विजय प्रताप, राजीव यादव, अवनीश राय, ऋषि कुमार सिंह, चन्द्रिका, शाहनवाज आलम, अनिल, लक्ष्मण प्रसाद, अरूण उरांव, देवाशीष प्रसून, दिलीप, शालिनी वाजपेयी, पंकज उपाध्याय, विवेक मिश्रा, तारिक शफीक, विनय जायसवाल, सौम्या झा, नवीन कुमार सिंह, प्रबुद़ध गौतम, पूर्णिमा उरांव, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, अर्चना मेहतो, राकेश कुमार
जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस)
D.John
February 15, 2010 at 5:57 am
!-kya ye patrakar batayenge ki ye kis -kis media se jude hain.
2-kya ye batayenge ki maovadi athwa CPIML se tootkar tukde-tukse me bate NEO COMUNISTO ke pas kitni NGO hai.
3-kya in NGO ko WESTERN LOBY ie AMERICAN LOBY se bhari FUNDING nahi hoti
4-AMERICAN paise se kaun se samyawad ki ye vakalat karte hain.
Rakesh
February 15, 2010 at 12:54 pm
Ab lag raha hai ki journalism MAOISTS Logo se sikhni hogi
ravi
February 16, 2010 at 12:44 pm
kamredo ko D John dwara uthaye sawalon ka jawab dena chahiye.
alok nandan
February 16, 2010 at 5:38 pm
chauthe astambh ke prahrion se kiye ja rahe appeal me dum hai….