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संतोष भारतीय की नजर में एसपी सिंह व एमजे अकबर

संतोष भारतीयसुरेन्द्र प्रताप सिंहएम.जे. अकबर, दो ऐसे शख्स हैं जिनके बारे में पत्रकारिता में रुचि रखने वालों को जानना ही चाहिए। पर यह भी सच है कि दोनों के बारे में सम्पूर्णता से शायद ही कोई बता सके। उतना ही बताया जा सकता है जितना अनुभव हुआ है। आज हमारे बीच एसपी नहीं हैं, पर वे जितने दिन, हमारे बीच रहे इतिहास बनाते रहे। अकबर हमारे बीच हैं लेकिन उन्होंने कभी अपने बारे में लिखा नहीं, न ही दूसरों ने उनके बारे में लिखा है। पत्रकारिता का सुनहरा काल इन दोनों को मिलाकर ही जाना जा सकता है।

संतोष भारतीय

संतोष भारतीयसुरेन्द्र प्रताप सिंहएम.जे. अकबर, दो ऐसे शख्स हैं जिनके बारे में पत्रकारिता में रुचि रखने वालों को जानना ही चाहिए। पर यह भी सच है कि दोनों के बारे में सम्पूर्णता से शायद ही कोई बता सके। उतना ही बताया जा सकता है जितना अनुभव हुआ है। आज हमारे बीच एसपी नहीं हैं, पर वे जितने दिन, हमारे बीच रहे इतिहास बनाते रहे। अकबर हमारे बीच हैं लेकिन उन्होंने कभी अपने बारे में लिखा नहीं, न ही दूसरों ने उनके बारे में लिखा है। पत्रकारिता का सुनहरा काल इन दोनों को मिलाकर ही जाना जा सकता है।

ये एम.जे. अकबर ही थे जो एस.पी. को कलकत्ता लाए, रविवार की जिम्मेदारी सौंपी, उन्हें आजाद छोड़ दिया और इस बात का अवसर दिया कि वे उन्हें संडे के सम्पादक के तौर पर अक्सर रविवार के सम्पादक के रूप में शह देते रहें। दोनों ने एक-दूसरे को शह दी पर सबसे खूबसूरत बात उनके रिश्ते की यह रही कि दोनों में से किसी ने एक-दूसरे को मात नहीं दी।

सम्पादक के रूप में सुरेन्द्र प्रताप सिंह के काम करने की शैली किसी भी सम्पादक से अलग थी। काम करते समय वे धीर-गम्भीर रहते थे पर अचानक मजाक में गम्भीर बात कह देते थे, जब तक सामने वाला सोचे कि उसे क्या प्रतिक्रिया देनी है तब तक वे स्वयं हंस देते थे, सामनेवाला सहज हो जाता था। रविवार उन दिनों हिन्दी क्षेत्र में आतंक सा बन गया था और सोचा जा सकता है कि सम्पादक की छवि लोगों में कैसी बनी होगी। एस.पी. का सामना जब भी किसी अनजान आदमी से होता था तो पहले तो वह विश्वास ही नहीं कर पाता था कि यही व्यक्ति रविवार का सम्पादक है। मैं उन दिनों लखनऊ में था, एस.पी. लखनऊ आए थे और मुख्य सचिव उनसे किसी भी तरह मिलना चाहते थे। मैं उन्हें लेकर सचिवालय गया। मुख्य सचिव के चपरासी ने कहा कि सर सम्पादक जी को तो लाइए, मैंने उससे कहा कि ये ही सम्पादक जी हैं तो उसने विश्वास ही नहीं किया। मुझे उसने दोबारा कहा, साहब सम्पादक जी? मेरे पुन: विश्वास दिलाने पर भी वह अविश्वास से ही भरा रहा। जब मुख्य सचिव के साथ उसने उन्हें चाय पीते देख लिया तभी शायद वह भरोसा कर पाया।

एस.पी. का व्यक्तित्व औघड़ का व्यक्तित्व था। एक ओर ज्ञान का अपार खजाना, दूसरी ओर इतनी सहजता कि लगता ही नहीं था कि दोनों एक ही व्यक्ति हैं। शायद इसीलिए उनके मित्रों में राजनेताओं के साथ-साथ प्रधानमंत्री निवास का माली भी था। उनका सम्पर्क क्षेत्र इतना विशाल था कि सूचनाएं उनके पास तैरकर आ जाती थीं। हम सभी उनके सम्पर्क क्षेत्र को देखकर हैरान रहते थे। राज्यों में, उनका एक स्रोत उनके संवाददाता थे तो दूसरा स्रोत कुछ और भी था। अगर कभी संवाददाता कुछ अगल कहने की कोशिश करता भी था तो वे बिना बताए क्रास चेक कर लेते थे। अलग-अलग दलों के राजनेताओं से उनका व्यक्तिगत सम्बन्ध कुछ इस तरह था कि दलों की अन्दरूनी खबरें उनके पास घटने की योजना के साथ ही आ जाती थीं।

उनकी सबसे बड़ी ताकत शायद उनका मित्रवत् व्यक्तित्व था। लोग उनके पास दोस्त की तरह जाते थे, और जो नहीं जाते थे वे दोस्त बनकर वापस आते थे। वे जितनी सहजता से चन्द्रशेखर जी से बात करते थे, उतनी ही आत्मीयता से साउथ एवेन्यू टैक्सी स्टैंड के एक ड्राइवर से बातें करते थे। इस ड्राइवर ने उन्हें बड़ी कहानियां बताई थीं, सांसदों व मंत्रियों को लेकर, क्योंकि वह उन घटनाओं का गवाह रहा था। एस.पी. ने कभी उनका पत्रकारिता में इस्तेमाल नहीं किया, हमें कभी नहीं करने दिया क्योंकि कुछ कुछ जानकारियों को उन्होंने हमें भी बताया था।

एक बार वे लखीमपुरखीरी में दुधवा के जंगलों में गए। जैसे ही उत्तर प्रदेश सरकार को पता चला, उसने एक पुलिस इंस्पेक्टर उनके साथ लगा दिया। जंगल में पहली शाम थी। एस.पी. ने बातें छेड़ीं और धीरे से बीच में कहा कि अफीम, गांजा और चरस के नशे के बारे में उन्हें नशेड़ियों ने क्या-क्या बताया है। वह इंस्पेक्टर सुनता रहा, आधे घंटे बाद बोला कि चरस देखनी हो तो दिखाऊं ? एस.पी. ने कहा दिखाओ, फिर मेरी ओर देखकर मन्द मुस्कान फेंकी। उसने जेब से चरस निकाली, उसे सिगरेट की पन्नी पर रखकर जलाया और फिर सिगरेट में भरकर कैसे पिया जाता है, दिखाया। वही इंस्पेक्टर आधे घंटे बाद तोते की तरह एस.पी. को संतोष भारतीय, प्रभु चावला और एसपी सिंहबता रहा था कि दुधवा के जंगलों में क्या-क्या होता है, कौन-कौन अधिकारी और राजनेता इसमें हिस्सेदार हैं, नेपाल सीमा से क्या-क्या आता है और क्या-क्या जाता है। हम वहां सात या आठ दिनों तक थे और उतने दिनों में वह इंस्पेक्टर एस.पी. के संवाददाता से ज्यादा उनके नजदीक था। सांसद लालमुनि चौबे के पास एस.पी. से सम्बन्धित ऐसी कई कहानियां हैं जिनमें एस.पी. कभी पात्रों को सम्पादक लगे ही नहीं, और वे उन्हें अपने अन्तरंग की तरह जानकारी आसानी से देते रहे।

एस.पी. में खबर पहचानने की अदभुत क्षमता थी। वे प्रतिदिन ज्यादा-से-ज्याद अखबार पढ़ते थे। अखबारों में भी राज्यों से और जिलों से निकलने वाले  अखबार ज्यादा होते थे। उन्होंने यह शक्ति विकसित कर ली थी कि उन्हें अंदाजा हो जाता था कि कौन-सी रिपोर्ट बड़ी खबर बन सकती है, और उनकी नजर वहीं जाकर रुक जाती थी। एस.पी. में एक आदत और थी, वे स्वयं अखबारों की कतरनें काटकर उनकी फाइल बनाकर रखते थे। पहले वे निशान लगाते थे कि कौन खबर काटने लायक है। यह प्रक्रिया आज के लोगों को यह सीख देती है कि आप यदि पूरी खबर पढ़ेंगे ही नहीं तो क्या निशान लगाएंगे और क्या कतरनें काटेंगे।

शायद इसीलिए जब उनका फोन या खत के रूप में एक छोटा नोट संवाददाता के पास पहुंचता था कि अमुक घटना पर रिपोर्ट लिखो, तो वह संवाददाता चकरा जाता था।  हममें से किसी की आदत नहीं थी कि हम जिलों से निकलनेवाले समाचार-पत्रों या सात्ताहिकों को पढ़ें। एक बार एस.पी. लखनऊ आए और मुझे सख्त तरीके से इनका महत्व समझाया। तभी से मैंने अपनी आदत बनाने की कोशिश की। मैं सूचना विभाग जाता था और जो भी जिलों से आया समाचार-पत्र मिल जाता था, पढ़ अवश्य लेता था। ज्यादा पढ़ने से ही मुझमें भी यह गुण विकसित हुआ कि खबरों के तत्व को पहचानूँ। आज जब मुझे साथी कहते हैं कि आपकी नजर सीधे वहीं कैसे रुक जाती है जहां गड़बड़ होती है तो मैं एस.पी. को तत्काल प्रणाम करता हूँ क्योंकि इसके पीछे उन्हीं की प्रेरणा और ताकत थी, जिसने थोड़ी सी शक्ति दी क्योंकि पूर्ण सिद्ध तो वे ही थे।

सम्पादक के लिए बहुत ज्यादा पढ़ना एक आवश्यक गुण है ऐसा उनका निश्चित मत था। अगर सम्पादक ऐसा नहीं करता तो वह फालोअप रिपोर्ट और विशेष रिपोर्ट तो बिल्कुल ही नहीं तलाश सकता। सम्पादक अगर नहीं पढ़ता है तो वह अपनी टीम को नेतृत्व दे ही नहीं सकता, वह केवल अच्छा मैनेजर बनकर रह जाता है।

हम सारे संवाददाता हमेशा चौकन्ने रहते थे कि कहीं एस.पी. हमें ऐसी जानकारी न भेज दें, जो हो तो हमारे आसपास और हमें पता ही न हो। हम उन्हें अपनी ओर से काम और बेकाम की बहुत सी जानकारियाँ देते रहते थे, शायद उत्साह में, या अपना नंबर बढ़ाने के लिए पर उन्होंने कभी इस पर झुंझलाहट नहीं दिखाई। हमारी हमेशा कोशिश रहती थी कि हम अपनी ओर से जो रिपोर्ट लिखें उसमें कोई कमी न हो पर जो रिपोर्ट एस.पी. को ओर से मांगी गई हो वो तो सम्पूर्ण होनी ही चाहिए। लेकिन कभी-कभी सारी मेहनत पर पानी फिर जाता था। एक लाइन का नोट आ जाता था कि “इस रिपोर्ट को फिर लिखो, इसमें यह छूट गया है।” पहले कोफ्त होती थी पर देखने पर अहसास होता था कि सही फैसला हुआ। शायद इसी कवायद ने हममें से कइयों को पत्रकारिता के गौरवपूर्ण अध्याय का हिस्सा बनने का मौका दिया।

एस.पी. हमेशा रिपोर्टरों को ध्यान में रखकर काम सौंपते थे। उन्हें कभी गलतफहमी नहीं हुई कि कौन क्या काम कर सकता है। उनके द्वारा सौंपी रिपोर्ट की जिम्मेदारी हर संवाददाता ने बखूबी निभाई। केवल उदयन शर्मा और मुझमें अघोषित मुकाबला रहता था। मुझे लगता था कि उदयन का साथ एस.पी. अपनी मित्रता के कारण देते हैं जबकि उदयन को लगता था कि एस.पी. अतिरिक्त ध्यान देकर मुझे उनके मुकाबलें में खड़ा कर रहे हैं। उदयन हर रिपोर्ट पर झपट पड़ते थे तथा किसी के साथ बाइलाइन बाँटना उन्हें पसन्द नहीं था। ऐसी कई रिपोर्ट हैं जिन पर पहली जानकारी से लेकर आखिर तक काम मैंने किया पर बाद में देखा कि उस पर नाम उदयन का छपा है और वह रिपोर्ट बदली हुई है। कई रिपोर्ट मैंने भेजी, छपीं पर उसका एक हिस्सा उदयन से भी एस.पी. ने लिखवा लिया। तब बहुत अखरता था पर बाद में समझ में आया कि एस.पी. की रणनीति ही नहीं, मुझे सँवारने की कला भी थी। उन्हें पता था कि उदयन की सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि अधिक परिपक्व है तथा रिपोर्ट के छूट गए कुछ पहलू उदयन ही लिख सकते हैं। उदयन बड़े संवाददाता तो थे ही, उनमें रिपोर्ट करने का जुनून भी था। आज जब रविवार के पुराने अंक पलटता हूँ तो उदयन की रिपोर्ट पढ़कर सब कुछ याद आ जाता है।

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एस.पी. हमेशा ध्यान रखते थे कि उनके संवाददाताओं की रिपोर्ट कैसे संवारी जाए। डेस्क की उनकी टीम हर रिपोर्ट को बहुत ही आलोचनात्मक दृष्टि से देखती थी तथा कभी-कभी उनका मजाक भी उड़ाती थी पर एस.पी. अपने उपसम्पादकों को हमेशा समझाते थे कि उनका यही बुनियादी दायित्व है कि वे रिपोर्ट की कमियों को, वाक्य विन्यास की गलतियों को तथा तथ्यों में कुछ आवश्यक हो तो जोड़-घटाकर रिपोर्ट को सर्वोत्तम बनाएं। उपसम्पादकों की अपनी पसन्द नापसन्द थी, रिपोर्ट को लेकर भी और रिपोर्टर को लेकर भी। सुरेन्द्रजी इसे जानते थे तथा हमेशा सावधान रहते थे कि डेस्क के पूर्वाग्रह का शिकार कहीं कोई संवाददाता न हो जाए। हम सब उन दिनों डेस्क से डरे रहते थे पर सुरेन्द्रजी ने अपनी पूरी ताकत संवाददाताओं को न्याय दिलाने में लगाई। उनका मत था कि रिपोर्ट को धारदार बनाने में तथा उसे सजाने-संवारने में डेस्क का सबसे महत्वपूर्ण रोल है।

संवाददाता को हमेशा कुछ नया और अलग करने की प्रेरणा वे देते रहते थे। उन्होंने कभी किसी को इस बात के लिए निरुत्साहित नहीं किया कि उसने हल्का सुझाव क्यों दे दिया बल्कि उसमें कुछ जोड़कर वे उस सुझाव को महत्वपूर्ण समाचार की भूमिका बना देते थे। वे अक्सर टारगेट दे देते थे और हम सब उसे पूरा करने में लग जाते थे। इसीलिए रविवार की रिपोर्ट हमेशा पाठकों को अलग तेवरवाली, नए रहस्य खोलनेवाली और अपने पक्ष की लगीं। एस.पी. के लिए खबर ज्यादा महत्वपूर्ण थी, लिखने की शैली को वे दूसरा स्थान देते थे। उनका मानना था कि शैली कमजोर हो तो उसे ठीक कर सकते हैं पर यदि खबर नहीं है तो किसी भी तकनीक से खबर नहीं पैदा कर सकते।

एस.पी. ने जो पत्रकारिता शुरू की थी उस पर प्रारम्भ में पीत पत्रकारिता जैसे आरोप भी लगे। उन दिनों सब कुछ साहित्यिक भाषा में गोलमोल लिखने की आदत ज्यादा थी, पर सुरेन्द्रजी ने इसे तोड़ दिया। इसलिए साहित्य के बड़े लोगों को यह सब पसन्द नहीं आया। पीत पत्रकारिता का मूल तत्व होता है ब्लैक मेल और बेडरूम स्टोरी, जिसे रविवार ने कभी नहीं अपनाया। यह सब उसी तरह है जैसे बन्दूक से आप दुश्मनों और हमलावरों को मारें तो आप बहादुर कहलाएंगे पर यदि अपने दोस्तों और घरवालों को मारें तो आप हत्यारा कहलाएंगे। इसमें बन्दूक का दोष नहीं, उसे इस्तेमाल करनेवाले का होता है। वैसे ही पत्रकारिता की कला का इस्तेमाल आप किसके लिए करते हैं, यह महत्वपूर्ण है। एस.पी. ने हमेशा पत्रकारिता के हथियार का इस्तेमाल सच के लिए करना सिखाया और निडर होकर करना सिखाया।

वह संक्रमण काल था। साहित्यकार ही पत्रकार होता था। एस.पी. ने सौम्य शब्दों में इस स्थिति की व्याख्या की थी। उनका कहना था, “हिन्दी में पीत पत्रकारिता पर मेरा यही मानना है कि पीत पत्रकारिता कोई नई बात नहीं है। हिन्दी के जो ‘गिने-चुने’ महान पत्रकार कहलाते हैं, उनके जमाने में भी ‘घासलेटी साहित्य’ लिखा जाता था। यह मेरा शब्द नहीं है, दरअसल हिन्दी के एक महान पत्रकार ने हिन्दी के एक-दूसरे महान पत्रकार की पत्रकारिता के लिए इन शब्दों का प्रयोग किया था। ये दोनों महान साहित्यकार थे। मतलब यही है कि एक-दूसरे की टाँग खींचने की पत्रकारिता तो पहले भी होती थी। जब आप आम आदमी से संवाद करने जाएंगे तो उस ऊंचाई पर बैठकर बात नहीं कर सकते जिस ऊंचाई पर साहित्य, इतिहास अथवा दर्शन रचा जाता है। इसीलिए थोड़ी-बहुत पीत पत्रकारिता तो होगी ही। जिस समाज में हम काम कर रहे हैं, जिस स्तर पर हम काम कर रहे हैं, ये उसके ‘एबरेशंस’ हैं।”

एस.पी. का मानना था कि पत्रकारिता व साहित्य को अलग होना ही चाहिए। उन्होंने ही इसकी पहल भी की। उनके शब्दों में “पत्रकारिता को मैं साहित्य हर्गिज नहीं मानता। साहित्य और पत्रकारिता में जिन लोगों ने घालमेल कर रखा है वे ही ऐसा कहते हैं, वरना पत्रकारिता और साहित्य दोनों अलग-अलग विधाएं हैं। कुछ हुए हैं महान साहित्यकार जो महान पत्रकार भी थे, तो कुछ महान राजनीतिज्ञ भी महान पत्रकार हुए। गांधीजी बहुत बड़े पत्रकार थे। पत्रकारिता और साहित्य पर मैं एक बार फिर कहूँगा कि हिन्दी पत्रकारिता और हिन्दी साहित्य दोनों एक-दूसरे से स्वतन्त्र अलग-अलग विधाएं हैं। मैं ऐसा नहीं मानता कि हिन्दी साहित्य से अलग होकर हिन्दी पत्रकारिता रसातल में जा रही है, बल्कि मुझे लगता है कि विकास की दृष्टि से यह समय हिन्दी पत्रकारिता के लिए ‘स्वर्ण काल’ है। हां, स्तर को लेकर जो चिन्ताएं हैं, वे स्वत: ठीक हो जाएंगी।”

सुरेन्द्रजी ने जो भविष्यवाणी की थी वह गलत नहीं थी। उनका आकलन था कि “हिन्दी पत्रकारिता में कोई बहुत नए ट्रेंड आए हों ऐसा मुझे नहीं लगता। हिन्दी पत्रकारिता दरअसल दो दिशाओं में जा रही है। एक तो यह आधुनिक होने की कोशिश कर रही है और आधुनिक होने की कोशिश में जो बन रही है, वह सामने है। दूसरे, हिन्दी भाषी-क्षेत्रों में हिन्दी पत्रकारिता की जड़े अब और गहरी हो गई हैं। राजस्थान मे ‘राजस्थान पत्रिका,’ मध्यप्रदेश में ‘नई दुनिया,’ ‘दैनिक भास्कर,’ व ‘देशबन्धु,’  उत्तर भारत में ‘जागरण,’ ‘अमर उजाला,’ ‘स्वतन्त्र भारत,’ ‘पंजाब केसरी’ आदि। एक नई तरह की पत्रकारिता का जन्म हुआ है- एक नई भाषा, नई शैली, नया व्याकरण- सब कुछ ईजाद हो रहा है और लोगों के सोच-विचार को पूरी तरह से बदल रहा है। यह न तो ब्रिटिश है, न ही अमेरिकन है, यह विशुद्ध भारतीय है।”

हिन्दी पत्रकारिता के बारे में एस.पी. की यह सोच सही साबित हुई क्योंकि पिछले पन्द्रह सालों के दौरान राज्यों से निकलनेवाले हिन्दी अखबार न केवल कई केन्द्रों से निकलने लगे बल्कि कई राज्यों से भी निकलने लगे। भास्कर, जागरण व नव भारत इसके उदाहरण हैं। इनमें से किसी का भी सरकुलेशन अंग्रजी अखबारों से ज्यादा है। अपने-अपने क्षेत्र में ये अग्रणी हैं। इनके पास विज्ञापन भी खूब हैं तथा उनकी दर भी अंग्रेजी अखबारों से ज्यादा ही है। दूसरी ओर राष्ट्रीय माने-जाने वाले हिन्दी अखबार कमजोर हुए हैं। दैनिक हिन्दुस्तान ने जब नई शैली अपनाई तभी वह बिहार में तेजी से फैला व प्रथम स्थान पा गया। बड़े संस्थानों ने इस बीच हिन्दी की पत्रिकाएं भी बन्द की तथा कई केन्द्रों के हिन्दी संस्करण भी बन्द किए। उनका तर्क था कि हिन्दी में विज्ञापन नहीं मिलते, पर इस तर्क को राज्यों से निकलनेवाले हिन्दी अखबारों ने गलत साबित कर दिया। हिन्दी चैनलों ने तो इस तर्क की धज्जियां उड़ा दीं तथा यह साबित कर दिया कि हिन्दी की ताकत कितनी है।

सुरेन्द्र प्रताप सिंह की राय हिन्दी पत्रकारिता के बारे में बहुत साफ थी। उनका मानना था कि, “कुछ लोग मानते हैं कि आज पत्रकारिता में विशेषज्ञता का दौर आ गया है, पर मैं ऐसा नहीं मानता क्योंकि हिन्दी पत्रकारिता में साहित्यकार ही मुख्यत: पत्रकार के रूप मे सामने आए हैं। लेकिन यह एक तरह से पत्रकारिता का सौभाग्य था तो दुर्भाग्य भी था। वह इस तरह कि साहित्यकार लोग पत्रकारिता को हमेशा दूसरे दर्जे का कर्म मानते रहे और एक प्रकार के एहसान की मुद्रा में पत्रकारिता करते रहे, जबकि पत्रकारिता अपने आप में एक अलग और स्वतन्त्र विधा है, जो कि लोगों से सीधे संवाद करने के लिए काम में लाई जाती है। इससे हिन्दी पत्रकारिता को बहुत नुकसान हुआ है और हिन्दी पत्रकारिता बहुत पीछे छूट गई है। आज जो लोग आ रहे हैं वे जरूरी नहीं कि वे अच्छे पत्रकार हों या अच्छे सम्पादक हों, पर कम-से-कम उनका ‘कमिटमेंट’ बहुत साफ है। इसलिए मेरा मानना यही है कि हिन्दी पत्रकारिता अब अपनी सही दिशा में ही जा रही है, किसी आरोपित दिशा में नहीं।”

पर ऐसा नहीं है कि एस.पी. अखबारों की गुणवक्ता से संतुष्ट थे। एक ओर वे हिन्दी के अखबारों की बढ़ती प्रसार संख्या व विज्ञापनों को हिन्दी की ताकत मानते थे वही उसकी सामग्री को लेकर वे चिन्तित भी रहते थे। उनका मानना था कि “देश के करीब-करीब सारे अखबार एक जैसे ही लगते हैं, पर यह हमारे देश की पत्रकारिता का दुर्भाग्य ही है। जिनके पास एजेंसी के साथ-साथ अपने संवाददाता भी हैं, वे भी एजेंसी की तरह की काम करने की कोशिश करते हैं। यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है। अब यह प्रश्न है कि इस दुष्चक्र को कौन तोड़े। किसी-न-किसी को तोड़ना ही होगा।”

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विश्वसनीयता को लेकर सुरेन्द्रजी बहुत चिन्तित थे। उनका कहना था कि “आज हिन्दी पत्रों की विश्वसनीयता अंग्रेजी के मुकाबले बहुत अच्छी नहीं है- आप देखिए, पूर्व में जिस तरह से राम मन्दिर के नाम पर या मंडल के नाम पर रिपोर्टिंग हुई है, जिस तरह के दंगे हुए हैं, उसके लिए प्रेस काउन्सिल जैसे संस्थान ने जिन अखबारों को दोषी ठहराया है, वे सब हिन्दी के अखबार थे। वैसे, अंग्रेजी के अखबार दूध के धुले नहीं हैं, चूँकि तुलना हो रही है इसलिए कहना पड़ रहा है। वैसे भी हिन्दी के अखबारों में इस प्रकार की रिपोर्टिंग ज्यादा ही होती है। बाकी भाषाओं के अखबारों की स्थिति हिन्दी से तो अच्छी ही है। बाँगला में अच्छी है, मलयालम में अच्छी है, मराठी में भी ठीक है। गुजराती में पत्रकारिता बड़ी जबरदस्त हो रही है लेकिन उसमें भयानक स्थिति है। हिन्दी के जैसे ही उच्छृंखल पत्रकारिता वहाँ हो रही है, इर्रेस्पांस्बिल तरह की।”

अपने कर्म से एस.पी. ने हमेशा स्थिति सुधारने की कोशिश की। रविवार में तो उन्होंने इतिहास रचा ही, वे जहाँ भी गए, पहले नवभारत टाइम्स में और बाद में आज तक में, उन्होंने वह सब नही होने दिया, जिसके लिए हिन्दी पत्रकारिता की आलोचना होती है। उन्होंने इसका एक सहज तरीका विकसित किया था। वे अपने संवाददाताओं से दोस्ती का रिश्ता रखते थे। उनके लिए सीनियर और जूनियर के साथ बात करने का तरीका अलग था पर उसका दायरा एक ही था, दोस्ती का, सभी उनसे अपनेपन से बात कर लेते थे और वे भी उसी अंदाज मे उसे इतना प्रेरित करते थे कि वह अपना सर्वोत्तम अपनी रिपोर्ट में प्रगट करने की कोशिश करता था।

संवाददाता की अच्छाइयों पर उनका ध्यान ज्यादा रहता था, कमियों पर कम। वे संवाददाता की अच्छाइयों का इस्तेमाल हथियार की तरह करते थे। उनकी कमियों को जानकर अनदेखा कर देते थे। कौन सा संवाददाता क्या काम कर सकता है और क्या नहीं इसकी पहचान उन्हें थी। और शायद सम्पादक के कई गुणों में एक गुण यह भी है। संवाददाता को अपने बारे में गलतफहमी हो सकती है कि वह हर रिपोर्ट लिख सकता है पर यह स्थिति सम्पादक के साथ नहीं होनी चाहिए। एस.पी. कैसे आदमी को गढ़ते थे उसका उदाहरण निर्मलेन्दु साहा है। निर्मल रविवार में स्टेनो टाइपिस्ट होकर आए। उन्होंने इतनी मेहनत की कि वे सुरेन्द्रजी की पारखी नजरों मे चढ़ गए। सुरेन्द्रजी ने उन्हें धीरे-धीरे सँवारा, निर्मल प्रक्रिया के दौरान सीखते रहे। कुछ उनकी मेहनत और कुछ सुरेन्द्रजी की सलाह, वे आज नवभारत टाइम्स में सहायक सम्पादक हैं।

दूसरी ओर एम.जे. अकबर हमेशा तेज रफ्तार में भरोसा करते थे, आज भी करते हैं। एम.जे. ने यह तेजी हम सबको सिखाई। एम.जे. कोशिश करते थे कि वे हमेशा घटना के केन्द्र-स्थल में रहें। हम सब उनकी तरह फिल्ड में रहने की कोशिश करते थे।

हमने किसी भी रिपोर्ट को सूचना के आधार पर, विश्वस्त सूत्रों के अनुसार या ऐसा माना जाता है, वाली शैली में कभी नहीं लिखा। हमने वही लिखा जो हमने देखा या हमारी खोज हमें जिस परिणाम तक ले गई। यह एम.जे. की शैली थी जिसका विकास हमने अपने तरीके से किया।

एम.जे. ने पहली बार हिन्दी की रिपोर्ट को अंग्रेजी में अनुवाद कर छापा। उन्होंने अंग्रेजी पत्रकारिता के उस पाखंड को तोड़ दिया जिसमें कोई भी दम न होने के बाद भी सर्वोत्तम का दम्भ रहता था। एम.जे. ने स्थापित किया कि अच्छी रिपोर्ट यदि हिन्दी में लिखी हो तो उसे अंग्रेजी मे छापना चाहिए। अकबर ने विषयवस्तु को प्रमुख माना, भाषा को नहीं। रविवार में छपी अच्छी रिपोर्ट को एम.जे. अकबर ही कर सकते थे। कमाल यह था कि एम.जे. का प्रस्तुतीकरण कुछ ऐसा होता था कि यह रिपोर्ट पहले रविवार में छप चुकी है, इसका पता ही नही चलता था।

एम.जे. अकबर ने पहली बार एक ही संस्थान से निकलनेवाले दो साप्ताहिकों में प्रतियोगिता का माहौल बना दिया था। यह ऐसी अदभुत प्रतियोगिता थी जिसमें कुछ हथियार तो दोनों के एक ही थे, यानी हम कुछ संवाददाता। अगर एम.जे. पहले स्टोरी करने के एमजे अकबरलिए कहते थे तो वह पहले संडे में जाती थी। अक्सर इस होड़ में जीत रविवार की होती थी पर अकबर को हमेशा श्रेय मिलता था। यह प्रतियोगिता खूब चली पर एस.पी. और एम.जे. में कभी वैमनस्य हुआ ही नहीं। यह भावना या भ्रम कई लोगों में बना ही रहा कि रविवार, संडे का अनुवाद है।

अक्सर एस.जे. संडे के रिपोर्टरों को भेजते थे पर उनकी मदद के लिए वे रविवार के लोगों से कह देते थे। एम.जे. का एक फोन हमारे लिए आदेश हो जाता था। एम.जे. को शायद इस बात का भरोसा था कि अन्दरूनी कहानी रविवार के लोगों के ही पास होगी।

एम.जे. में बातचीत के दौरान के दौरान खबरें निकालने की अदभुत क्षमता है। अक्सर ऐसा होता था कि एस.पी., एम.जे. मैं या कोई और खाना खाते-खाते बातें करते जाते थे। मैं कई ऐसी बातें उनको बताता था, जिनका उपयोग अपनी रिपोर्ट में नहीं रहा होता था। अचानक धीरे से मेरी मुट्ठी में कागज का एक छोटा पर्चा एम.जे. चुपचाप पकड़ा देते थे। इसमें ताकीद होती थी कि रात में इसे लिखकर सुबह उनके हवाई जहाज में बैठने से पहले उन्हें रिपोर्ट दे दी जाए। वही होता था, रात में रिपोर्ट लिखी जाती थी। ऐसा मेरे अलावा कइयों के साथ हुआ।

एम.जे. और एस.पी. मे अन्तर था। जहाँ एम.जे. को रिपोर्ट खुद करने का हद दर्जे का जुनून था वहीं एस.पी. ने गिनी-चुनी रिपोर्ट लिखीं। एस.पी. का मानना था कि सम्पादक को रिपोर्ट करानी ज्यादा चाहिए करनी कम चाहिए, जबकि एम.जे. का मानना था कि न केवल करनी चाहिए बल्कि करानी भी चाहिए। शायद दोनों अपनी-अपनी जगह सही है, पर एक बात में दोनों एक मत थे कि कभी रिपोर्ट का खंडन नही आना चाहिए। जिस संवाददाता की रिपोर्ट का खंडन आ जाता था उससे दोनों ही सावधान हो जाते थे। शायद इस अनुशासन ने ही हममें कुछ को इस लायक बनाया कि हमारी रिपोर्ट का खंडन कभी नही आया।

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एस.पी. व्यवहार में उस साधू की तरह थे जो नदी में नहा रहा था और जिसने डूबते बिच्छू को अपनी हथेली पर सहारा दिया, पर बिच्छू ने उसे ही डंक मार दिया। एस.पी. डंक खाते रहे पर कभी भी अपने किसी सहयोगी पर पलटवार नहीं किया। दर्द सहना और सहन न होने पर कहीं अकेले निकल जाना एस.पी. ने अपनी आदत बना ली थी। मैं जब भी कलकत्ता जाता था, मुझे वे अपने साथ ही ठहराते थे। शाम को दफ्तर बंद होने के बाद ड्राइवर को घर भेज देते थे तथा वे कहते थे गाड़ी चलाओ। अजीब-अजीब जगहों पर साथ ले जाते थे। दुनिया जहान की बातें करते थे। बाद में जब उन्हें समझ पाया तब पता चला कि वे अपना गम भुलाने के लिए यह सब करते थे। उनके निजी जीवन में जब भी परेशानी का लम्हा आता था वे अक्सर जंगलों, पहाड़ों की ओर भागते थे। एक बार तो एक महीने तक दुधवा और बुन्देलखंड के जंगलों में मुझे साथ लिए घूमते रहे। उसी दौरान उन्होंने कोल आदिवासियों की जिन्दगी को बहुत नजदीक से देखा। रात-रात भर कोल, ठेठ जाड़े की रात में क्यों नाचते हैं इसका कारण जाना। मानिकपुर का लोकतन्त्र कैप्टन सी.बी. सिंह से समझा। पर वे हमेशा औघड़ साधु जैसे, किसी पर वार नहीं किया, किसी से लिया नहीं, दिया ही दिया।

एम.जे. अकबर इसके उलट, स्वभाव में बिल्कुल तानाशाहों जैसे जाने जाते हैं पर अकबर तानाशाह हैं नहीं। लेकिन उन्हें कोताही कतई बर्दाश्त नहीं। यदि उनकी बात कोई नहीं मानता तो उनके साथ नहीं रह सकता। एम.जे. ने जिन्हें बढ़ाया यदि उन्होंने दूसरी नौकरी के लिए उन्हें छोड़ना चाहा  तो एम.जे. ने दो बार के बाद किसी को रूकने के लिए नहीं कहा। एम.जे. के शब्दकोष में किसी भी असफलता का कारण कोई मायने नहीं रखता। वे हमेशा कहते हैं कि आपके कारण बताने से न स्टोरी अच्छी बनती है और न फोटोग्राफ अच्छा खिंचता है। अकबर कारण सुनना ही नहीं चाहते। मैं ग्वालियर जेल के भीतर फूलन की स्टोरी करने गया। फूलन मुझे जंगलों से जानती थी। मेरे साथ फोटोग्राफर जगदीश यादव थे, उन्हें कैमरे के साथ मैंने जेल में घुसवाया। हम जेल के अन्दर ही थे कि किसी बात पर पगली घंटी बज गई- मलखान सिंह के साथियों का किसी से झगड़ा हो गया था। जगदीश ने ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें संडे के लिए खींच ली थीं पर कवर के लिए कलर नहीं खींच पाए थे। शायद वे सोच रहे थे कि बाद में खींच लेंगे। उनका कैमरा फूलन की एक रिश्तेदार के बैग मे रखकर किसी तरह जेल से बाहर निकाला। जब एम.जे. को मैंने बताया तो उन्होंने ठंडे शब्दों में कहा कि तुम्हारे कारण बताने से संडे का कवर बन जाएगा क्या ? यह अहमकानी असफलता है। उन्होंने जगदीश यादव से कुछ नहीं कहा। यह छोटी सी सीख मेरे लिए जीवन की सबक बन गई।

ऐसी छोटी-छोटी सीखों के द्वारा एस.पी. व एम.जे. अपने साथियों को पारंगत करते थे। एस.पी. व एम.जे. ने इंटरव्यू को एक बड़ी कला के रूप में इस्तेमाल किया। जय प्रकाश नारायण का पहला इंटरव्यू जिसने जनता पार्टी से उनकी नाराजगी जगजाहिर की, चन्द्रशेखरजी तब जनता पार्टी अध्यक्ष थे, मैंने ही किया। जयप्रकाशजी की मौत के बाद उनका शव पटना के बाँस घाट पर अन्तिम के लिए रखा था और प्रधानमंत्री मोरारजी वहाँ बैठे थे। मैंने उनसे इंटरव्यू किया जिसमें उन्होंने कहा कि इस आदमी ने कुछ नहीं किया इसे तो बस नाम मिल गया। संडे में एम.जे. ने इसे अपनी भूमिका के साथ छापा। सन् 80 में रायबरेली में चुनाव यात्रा के दौरान एस.पी. साथ थे, इन्दिराजी से एक बंगले में हमारी मुलाकात हो गई। साथ में एक विदेशी पत्रकार भी थे, शायद डेविड हाउसगो और संडे के श्री शुभव्रत भट्टाचार्य, मैंने उत्साह में इन्दिरजी से सवाल पूछने शुरू किए। शायद पाँचवें सवाल पर उन्होंने अखबार का नाम पूछा और जैसे ही मैंने रविवार कहा, वे गुस्से में बिफर पड़ीं। हिन्दी-अंग्रेजी में धाराप्रवाह सभ्य गालियाँ, और हम सब हतप्रभ। इंटरव्यू तो छापना ही था, पर उस टेप को एस.पी. ने बहुत सुरक्षित रखा, अक्सर कहते थे, “जब मेरा दिमाग खराब होता है तब मैं इस टेप को सुन लेता हूँ।”

एक बार एस.पी. ने कहा कि ‘संतोष रेखा से बात करो।’ रेखा थी कि किसी के हाथ ही नहीं आ रही थी।  मेरी कोशिश सफल हुई। रेखा इंटरव्यू देने के लिए तैयार हो गई। बातचीत में रेखा खुलीं और इतना अच्छा बोली कि रविवार के उस इंटरव्यू की बहुत ही ज्यादा चर्चा हुई। बाद में मैंने रेखा के कई इंटरव्यू लिए। यह इंटरव्यू लोगों को पसन्द आए यह तो मुझे अच्छा लगा पर ये इंटरव्यू रेखा को बहुत पसन्द आए, यह ज्यादा अच्छा लगा। उन्होंने कई बार मुझे कहा कि तुमने मेरे अन्दर की रेखा को पहचाना।

एस.पी. व अकबर में एक साझा गुण यह था कि वे संवाददाता के सामने चुनौती फेंकते थे और जो वो चुनौती पूरी कर देता था तो उसे शाबाशी अवश्य देते थे। बहुत से सम्पादकों में यह गुण नहीं है। सम्पादक समझ ही नहीं पाते कि अच्छे पत्रकार के लिए उनका तारीफ भरा एक शब्द कितनी शक्ति पहुंचाता है। रविवार व संडे के दिनों में एस.पी. व अकबर के आसपास रैकेटियर पत्रकारों की भीड़ नहीं रहती थी।

मेरा अपना मानना है कि एस.पी. व एम.जे. रविवार व संडे के बाद काफी आगे बढ़े, उन्हें काफी नाम मिला। लेकिन उनका सर्वोत्तम रविवार व संडे ही था। यह वह समय था जब दोनों बड़े बन रहे थे, अपने साथियों को बड़ा बना रहे थे और ये साथ-ही-साथ इतिहास रच रहे थे।


मशहूर पत्रकार और चौथी दुनिया के प्रधान संपादक संतोष भारतीय द्वारा लिखित व वर्ष 2005 में राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित किताब ‘पत्रकारिता – नया दौर : नए प्रतिमान‘ से साभार प्रकाशित। SantoshBhartiya डॉट कॉम पर क्लिक कर संतोष के बारे में ज्यादा जानकारी पा सकते हैं। पिछले आलेख को पढ़ने के लिए (1) पर क्लिक करें।

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