प्रिय यशवंत भाई, चर्चित और लोकप्रिय वेबसाइट भड़ास4मीडिया पर आपकी रिपोर्ट पढ़ने के बाद जवाब देने से नहीं रोक पा रहा हूं। ये पत्र आप छापे या न छापें, ये आपका लोकतांत्रिक हक़ है। ठीक वैसे ही, जैसे कि आपके लेख पर मेरा जवाब देना। ये कार्यक्रम एसपी की याद में था। ये आपके, दिलीप मंडल जी, पुष्कर पुष्प जी और परवेज़ अहमद जी के सहयोग से ही हो पाया। उनकी बारहवीं बरसी थीं। ग्यारह बरस तक जिसको जैसे करना था, किया। आपने प्रोत्साहित किया। लिहाज़ा मैं आगे आया। ये श्रद्धाजंलि सभा थी, गोष्ठी या बहस का मंच नहीं था। पूरी दुनिया में (खासतौर पर भारतीय संस्कृति में) ये परंपरा है कि स्मृति या श्रद्धाजंलि सभा में मृतक की अच्छाइयों पर ही बात की जाती है। विवादास्पद बातें इसलिए नहीं होती क्योंकि जवाब देने के लिए वो हमारे बीच नहीं आ सकता। ‘एसपी की याद में’ स्मृति सभा में मुझे नहीं पता था कि नूरा-कुश्ती या फ्री रेसलिंग करवानी है। और न ही ये इरादा था नए पहलवान आकर पुराने पहलवानों को धोबिया पाट देकर हवा में हाथ लहराएं।
इसके लिए ये मंच सही नहीं होता। रही बात बड़े पत्रकारों के बोलने की तो मैंने बड़ा या छोटा समझ कर किसी को आमंत्रित नहीं किया था और न ही आमंत्रण से पहले किसी का रिज़्यूमे देखा था कि कौन कितना सीनियर है और जूनियर। आपने वेब, पोर्टल और प्रिंट के पत्रकारों को न बोलने देने का सवाल खड़ा किया है। भाई साहेब, मेरे हिसाब से पत्रकार तो पत्रकार ही होता है। चाहें वो रेडियो में काम करे या फिर टीवी में। मैंने तो एसपी को करीब से जाननेवालों को बुलाया था बोलने के लिए ताकि वो बता सकें कि एक व्यक्ति के तौर और एक पत्रकार के तौर पर एसपी क्या थे और नई पीढ़ी इस बात को सुने और गुणे। आप ख़ुद बताइए कि जो व्यक्ति कभी एसपी से मिला नहीं वो एसपी के व्यक्तित्व और पेशेवर होने पर सुनी सुनाई बातों के अलावा क्या कहता? खैर, मैं बहुत ज्यादा पत्रकारों को जानता-पहचनाता नहीं। अदना सा आदमी हूं। अगर आप कोई सूची पहले दे दिए होते तो मैं उनको भी बोलने के लिए जरूर आमंत्रित करता। जैसा कि आप जानते हैं कि एसपी ने कई सेमिनारों और साक्षात्कारों में खुलकर कहा था कि वो मिशन जर्नलिज्म नहीं प्रोफेशनल जर्नलिज्म करते हैं। शायद यही साहित्यिक पत्राकारिता से आज के दौर के पत्रकारिता के बीच का अंतर है।
कौन भ्रष्ट है और कौन ईमानदार- ये मैं नहीं जानता और न ही सुनी सुनाई बातों को इतिहास बनाता हूं। आप नए लोगों की बात करते हैं । मैं तो सात–आठ साल से पत्रकारिता करने वालों ऐसे लोगों का नाम जानता हूं जो न एसपी सिंह को जानते हैं, न उदयन शर्मा को, न अपन मैनन को, न अजय चौधरी को। सच तो यशवंत भाई (पता नहीं आप स्वीकार करे या न करें) पत्रकारिता पढ़ने और दो चार साल से पत्रकारिता कर रहे पिच्चानवे फीसदी से ज्यादा लोग एसपी, अजय चौधरी, उदयन शर्मा को नहीं जानते। आपको जानकर हैरानी होगी। देश के एक बहुत बड़े चैनल के बड़े पत्रकार को मैंने हिंदी दिवस पर गेस्ट लाइन अप करने को कहा। उसने मुझसे नाम मांगा। मैंने उसे महादेवी वर्मा, अज्ञेय जी, फणीश्वर नाथ रेणू, राजेंद्र माथुर, उदयन शर्मा, अजय चौधरी और एसपी सिंह के नाम दिए। थोड़ी देर बाद उसने पूछा- सर, नंबर कहां से मिलेगा? मैंने दो संपादकों के नंबर दिए। उसने उन संपादकों को फोन करके पूछ भी लिया। अगर यकीन न हो तो निजी बातचीत में उन संपादकों के नाम बता दूंगा। फोन पर चाहें तो सत्यता की जांच कर लें।
अंत में इतना ही कहूंगा आपसे कि भ्रष्टाचार की बात तो सब करते हैं। लेकिन क्या भ्रष्टाचार पैसे लेने–देने तक ही महदूद है? या फिर इसकी परिधि बहुत बड़ी है? ये सवाल ऐसा है, जो हर कोई अपने दिल से करे और जवाब तलाशे।
यशवंत भाई, …. ज़िंदगी को देखा है इतने क़रीब से, अब तमाम चेहरे लगने लगे हैं अजीब से।
आप मुझे मार्गदर्शन देते रहें। कोशिश करूंगा सुधार की।
चंदन प्रताप सिंह
पोलिटिकल एडिटर, टोटल टीवी