एक पाठक, जो हिंदुस्तान अखबार में पत्रकार हैं, ने वहां के अंदर की स्थिति के बारे में यह कहानी बयां की है। बता दें, वे बिहार में कहीं कार्यरत हैं। इस पत्र के जरिए उन्होंने हिंदुस्तान अखबार के सबसे बेचारे पत्रकारों, जिन्हें वहां की शब्दावली में ‘सुपर स्ट्रिंगर’ कहा जाता है, की दशा-दुर्दशा बयान की है। यह पत्र इसलिए प्रकाशित किया जा रहा है ताकि मीडिया के सबसे ज्यादा शोषित और उपेक्षित तबके की आवाज व समस्याओं को सामने लाया जा सके। ऐसा नहीं है कि ये सुपर स्ट्रिंगर सिर्फ हिंदुस्तान में ही होते हैं। इनका नाम बदल जाता है पर ये होते हैं हर जगह। कुछ अखबारों में इन्हें ‘संवाद सूत्र’ कहा जाता है तो कुछ में ‘संवाद सहयोगी’। हिंदुस्तान के सुपर स्ट्रिंगरों की इस स्टोरी को हर अखबार से जोड़कर देखें, प्रतीकात्मक मानें। -एडिटर, भड़ास4मीडिया
पत्रकार के हाथ और संपादक के चरण के बीच की दूरी
हिन्दुस्तान के संपादकीय विभाग में विभिन्न प्रकार के पत्रकार पाए जाते हैं। कुछ वेज बोर्ड में हैं, जो अपने को जंगल का शेर समझते हैं। कुछ या कहें कि अधिकांश सीटीसी यानी कॉस्ट टू कंपनी के तहत कांट्रैक्ट पर हैं, जो अपने को शेर का क्लोन मानते हैं। इसमें भी कई श्रेणियां हैं। सीटीसी का पहला किस्म उन पत्रकारों का है, जिनकी नियुक्ति वेजबोर्ड के तहत हुई थी, लेकिन बाद में कंपनी के दबाव में उन्होंने कांट्रैक्ट के तहत कार्य करना स्वीकार किया। उन्हें इस बात का विश्वास दिलाया गया है कि उनकी नौकरी कंपनी नियम के मुताबिक 58 साल तक रहेगी। हालांकि अब तक दर्जन से ज्यादा सीटीसी वाले हिन्दुस्तानियों को सड़क का रास्ता दिखा दिया गया है। इसके खिलाफ किसी ने कुछ नहीं बोला। सीटीसी की दूसरी श्रेणी है थ्री इयर डिग्री कोर्स की। यानी तीन साल के कांट्रैक्ट पर नियोजन। तीन साल के बाद कंपनी की कीमत चुका सके तो आगे का कागजात मिलेगा अन्यथा समझिए आपकी सेवा पूरी। न निकालने का झंझट और न बर्खास्त करने का। बस समय पूरा और कांट्रैक्ट खत्म। इस संबंध में निर्णायक भूमिका पत्रकार के हाथ और संपादक के चरण के बीच की दूरी तय करती है।
एक बड़ा वर्ग है सर्वहारा पत्रकारों का, जिसको अखबार की भाषा में सुपर स्ट्रिंगर और चलताऊ भाषा में ‘रखैल’ कहा जाता है। काम सबसे ज्यादा और दाम सबसे कम। हिन्दुस्तान के सभी स्टेशनों पर स्टाफर से ज्यादा सुपर स्ट्रिंगर हैं। सुपर स्ट्रिंगर वर्षों तक सुपर स्ट्रिंगर बना रहता है और नए संपादक के साथ आने वाली चौकड़ी स्थानीय स्टेशनों का मालिक बन जाती है। सुपर स्ट्रिंगरों को अखबार की ओर से परिचय पत्र भी नहीं दिया जाता है। हद तो है कि चपरासी को भी हाजिरी लगाने के लिए कार्ड दिया जाता है, लेकिन यह सुविधा सुपर स्ट्रिंगरों को नसीब नहीं है। उनकी स्थिति एकदम सर्वहारा की है। मजेदार बात है कि संपादक भी स्ट्रिंगरों को अपना कर्मचारी नहीं मानता है और कंपनी के रिकार्ड में उसका कोई हिसाब-किताब नहीं है। इस तरह समझिए कि सुपर स्ट्रिंगर संपादक के लिए दिहाड़ी मजदूर है, जिसकी हाजिरी जांचने का अधिकार संपादक के क्लर्क को होता है।
प्रधान संपादक से लेकर स्थानीय संपादक तक बदल जाते हैं, लेकिन सुपर स्ट्रिंगरों की सामूहिक किस्मत कभी नहीं बदलती है। आरोप तो ये भी लगता है कि स्थानीय संपादक सुपर स्ट्रिंगरों से मोटी राशि लेकर स्टाफर बनाने की सिफारिश प्रबंधन से करता है। नियुक्ति के नाम पर विज्ञापन निकाला जाता है और फिर तहखाने से नियुक्ति कर दी जाती है यानि जितना गुड़ (चढ़ावा) उतना ही मीठा (पद) की कहावत यहां चरितार्थ होती है। उम्मीद करते हैं कि हिन्दुस्तान के नए प्रधान संपादक सुपर स्ट्रिंगरों की किस्मत सुधारने की तरफ ध्यान देंगे।