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अखबार की नौकरी छोड़ शिक्षक बने अवधेश

[caption id="attachment_15432" align="alignright"]अवधेश यादवअवधेश यादव[/caption]आईपीएस ने पटाना चाहा पर नहीं पटा : अमर उजाला, मेरठ के क्राइम रिपोर्टर अवधेश यादव ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया है। विभिन्न समाचारपत्रों में लंबी पारी खेलने के बाद अब वह गोविंद बल्लभ पंत मेमोरियल गवर्मेंट पीजी कॉलेज रामपुर बूशहर, (शिमला) में प्रवक्ता बन गए हैं। उनका सेलेक्शन हिमाचल प्रदेश पब्लिक सर्विस कमीशन के जरिये हुआ है। उनके लिए यह सोने में सुगंध जैसा है कि यहां भी उन्हें मीडिया की चहक-महक से महरूम नहीं रहना पड़ेगा। वह पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाएंगे। अपने नए सफर से वह बहुत खुश हैं और भविष्य के प्रति पहले से ज्यादा आशावान। अपने अब तक के अखबारी करियर को लेकर भी वह खुद को कत्तई कमतर महसूस नहीं करते, क्योंकि वास्ता सिर्फ क्राइम रिपोर्टिंग तक रहा। यद्यपि ऐसे भी अवसर आए, जब उन्हें तोड़ने और डिगाने की खूब कोशिशें हुईं, दफ्तर के बाहर, भीतर भी लेकिन वह कभी विचलित नहीं हुए। 

अवधेश यादव

अवधेश यादवआईपीएस ने पटाना चाहा पर नहीं पटा : अमर उजाला, मेरठ के क्राइम रिपोर्टर अवधेश यादव ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया है। विभिन्न समाचारपत्रों में लंबी पारी खेलने के बाद अब वह गोविंद बल्लभ पंत मेमोरियल गवर्मेंट पीजी कॉलेज रामपुर बूशहर, (शिमला) में प्रवक्ता बन गए हैं। उनका सेलेक्शन हिमाचल प्रदेश पब्लिक सर्विस कमीशन के जरिये हुआ है। उनके लिए यह सोने में सुगंध जैसा है कि यहां भी उन्हें मीडिया की चहक-महक से महरूम नहीं रहना पड़ेगा। वह पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाएंगे। अपने नए सफर से वह बहुत खुश हैं और भविष्य के प्रति पहले से ज्यादा आशावान। अपने अब तक के अखबारी करियर को लेकर भी वह खुद को कत्तई कमतर महसूस नहीं करते, क्योंकि वास्ता सिर्फ क्राइम रिपोर्टिंग तक रहा। यद्यपि ऐसे भी अवसर आए, जब उन्हें तोड़ने और डिगाने की खूब कोशिशें हुईं, दफ्तर के बाहर, भीतर भी लेकिन वह कभी विचलित नहीं हुए। 

शिमला की नौकरी ज्वाइन करने के बाद भड़ास4मीडिया से बातचीत में अवधेश यादव ने अपने अखबारी अतीत के कई ऐसे पन्ने पलटे, जो उनके सीनियर्स, समकालीन और नए पत्रकारों के लिए सबक भी हो सकते हैं, सीख भी। बह बताते हैं कि जब शाहजहांपुर दैनिक जागरण में क्राइम रिपोर्टर थे तो किस तरह एक सीनियर आईपीएस ने घर बुलाकर उन्हें रुपये-पैसे से पटाने की कोशिश की। वह किन संपादकों के मुरीद रहे और पत्रकारिता के सफर हर ब्यूरो चीफ उनसे कैसी-कैसी गैरपेशेवर उम्मीदें करता रहा। महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी से डीजे, एमजे, एमफिल आदि करने के साथ ही अवधेश यादव की पत्रकारिता का सफर दैनिक हिंदुस्तान के पन्नों से शुरू हुआ एक फ्रीलांसर के रूप में। छात्र जीवन से ही वह हिंदुस्तान, बनारस के फीचर पेजों के लिए फ्रीलांसिंग किया करते थे, साथ में जागरण सिटी पेज के लिए भी। नौकरी के तौर पर फुल टाइम जुड़ाव उनका सबसे पहले दैनिक जागरण वाराणसी से हुआ। जागरण प्रबंधक अनवार अली ने विज्ञापन विभाग में तीन माह कंप्यूटर की ट्रेनिंग दिलाने यानी इस अप्रेंटिसशिप के बाद मुगलसराय ब्यूरो भेज दिया। अवधेश कहते हैं- चंदौली, चकिया कस्बे का रहने वाला हूं, इसलिए मुगलसराय से चंदौली ब्यूरो में काम करने के लिए भेज दिया गया। उस समय चंदौली जिला समाप्त हो गया था। वहां मेरा मन नहीं लगता था। उस दौरान पहली बार वहां के ब्यूरो चीफ से मतभेद हुआ। लौट आया बनारस। प्रबंधक अनवार अली ने दैनिक जागरण बरेली चंद्रप्रकाश त्रिपाठी के पास भेज दिया। उन्होंने तीन माह मेरा क्राइम रिपोर्टिंग का काम देखा। उससे पहले मैं यह भी नहीं जानता था कि तमंचा क्या चीज होती है? फिर मुझे शाहजहांपुर जागरण ब्यूरो में भेज दिया गया क्राइम रिपोर्टर के रूप में। बनारस जागरण में काम के दौरान हिमांशु उपाध्याय ने प्याज पर लिखी मेरी स्टोरी पढ़कर पीठ थपथपाई थी। इसी तरह हिंदुस्तान के कुमार विजय ने पहली बार दो सौ रुपये का चेक दिया तो उससे मुझे बड़ा प्रोत्साहन मिला था। मनोबल बढ़ा, लिखना पढ़ना शुरू कर दिया। 

अवधेश का कहना है कि पहली बार शाहजहांपुर में एक सीनियर आईपीएस ने रात में फोन कर सुबह मुझे अपने बंगले पर बुलाया। चाय-पानी के बाद उसने मुझसे अवांछित उम्मीदें कीं। वह पैसे सुंघाकर मेरा जमीर गिरवी रखना चाहता था। उसे भी सुबह आफिस निकलना था। चलते-चलते उसने कहा कि कोई काम हो तो बताना। मैंने कहा कोई जरूरत नहीं। उसने स्पष्ट कहा कि रुपये-पैसे की भी जरूरत हो तो बताना। मैंने मना कर दिया। फिर उनके खिलाफ लिखना शुरू किया। उनके खिलाफ क्या, बढ़ते अपराध के खिलाफ। उस समय उस क्षेत्र में रेप की घटनाएं आए दिन हो रही थीं। मैं उन घटनाओं को क्रमशः लिखने लगा। उसी दौरान एक मर्डर हुआ। वह कप्तान भी मौके पर पहुंच गए थे। मुझे किनारे ले गए और पूछने लगे कि आखिर तुम चाहते क्या हो? मैंने कहा कि जो हो रहा है, छाप रहा हूं। उन्होंने कहा, ऐसा मत करो, ऊपर से पूछताछ हो रही है। बाद में वह मुझे मुजफ्फरनगर में मिले एसएसपी के रूप में। मैं उस समय अमर उजाला का क्राइम रिपोर्टर था। पूर्व परिचित के नाते उनसे पटरी बैठ गई लेकिन राजनीतिक कारणों से वह वहां ज्यादा दिन टिक नहीं पाए थे।

अवधेश बताते हैं कि अमर उजाला मुजफ्फरनगर के ब्यूरो हेड की गलत उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा तो अनबन हो चली। सोचा, अब यहां से हट जाना चाहिए। मैंने अपने करियर में महसूस किया कि ब्यूरो चीफ अपने क्राइम रिपोर्टर से गलत अपेक्षाए रखता है। इससे पटरी बैठाने में बहुत मुश्किलें सामने आईं। मुजफ्फरनगर के ब्यूरो चीफ से कहासुनी हो गई थी। एक दिन मुझे इतना गुस्सा आया था कि मैंने सीधे पहली बार समूह संपादक शशि शेखर का मोबाइल फोन मिला लिया। उनसे मिलने के लिए समय मांगा। उन्होंने पूछा, किसलिए मिलना चाहते हो? मैंने कहा- मिलकर बताऊंगा। वह बोले- कार में हूं, अभी जो बताना हो, बताओ। मैंने कहा- मुजफ्फरनगर ब्यूरो से मैं अपना ट्रांसफर चाहता हूं। उन्होंने कहा- अप्लीकेशन दे दो। मैंने अप्लीकेशन मेल कर दिया। मुझे मेरठ बुला लिया गया। चूंकि मुख्यालयों पर ब्यूरो जैसे हालात नहीं होते, हर खबर पर संपादक की नजर होती है, इसलिए स्थितियां ठीक हो चलीं। अमर उजाला मेरठ में भी कुछ मुश्किलें तो थीं ही। मसलन, सीनियर साथी खुद स्पॉट पर न जाकर अनावश्य मुझे दौड़ाते रहते थे। मुझे शहर को जानना था, इसलिए मैं दौड़ता भी रहा था। यहां 19 जुलाई 09 को रिजाइन कर 20 जुलाई को हिमाचल की नौकरी ज्वाइन कर ली।  

अपने अखबारी जीवन के उतार-चढ़ावों से रूबरू कराते हुए अवधेश बताते हैं कि उन्होंने कई संपादकों के साथ काम किया। लगा कि दैनिक जागरण में संपादक जैसी कोई चीज नहीं। कोई प्रभावित करने वाली प्रेरक प्रतिभा उन्हें वहां नहीं दिखी। जागरण में लॉबिंग ज्यादा होती है। अमर उजाला में पहली बार पता चला कि संपादक क्या होता है। शशिजी गाइड करते थे। किसी भी सूचना पर तुरंत आठ-दस एंगिल बता देते थे। अमर उजाला में सीखा और सिखाया जाता है। आलोक भदौरिया रहे हों या रविंद्र श्रीवास्तव, सबने सिखाया। भले मैंने कालेज ज्वाइन कर लिया है लेकिन मीडिया से लिखने-पढ़ने के स्तर पर जुड़ा रहूंगा। अभी मीडिया से जुड़ी किताबों को गहराई से पढ़ूंगा।  

इंटरव्यू भी मजेदार रहा : हिमांचल प्रदेश में कालेज की नौकरी की शुरुआत होती है इंटरव्यू से। सेलेक्शन हुआ हिमाचल प्रदेश पब्लिक सर्विस कमीशन के जरिये। इंटरव्यू 30 दिसंबर को था। 28 दिसंबर को अमर उजाला, मेरठ में शाम को काम निपटाकर अवधेश यादव सिटी चीफ राजेंद्र सिंह से दो दिन की छुट्टी लेकर रात में निकल पड़े हिमाचल प्रदेश के लिए। घना कोहरा। हाथ तक नहीं सूझ रहे थे। बस अड्डे पहुंचने का कोई साधन नहीं। एक साथी की मदद से बस अड्डे पहुंचे। वहां से शिमला किसी तरह पहुंच सके। आगे वाली गाड़ियों के डिपर के सहारे। पहली बार शिमला पहुंचे थे। कमीशन के दफ्तर में सन्नाटा था। वहां यूपी की तरह कोई भीड़भाड़ नहीं। चेयरमैन का पहला सवाल था कि नाम अवधेश है, अवध के बारे में बताइए। बताया लखनऊ से अयोध्या तक के बारे में। सुबहे बनारस भी बता दिया। कविता सुनाया था-

तितलियों के शहर में चर्चाएआम है

कलियां वो कर रही हैं जो फूलों का काम है

शाम ए अवध का नाम है बहुत हुआ करे

मगर सुबह की हर किरण पर बनारस का नाम है।

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फिर पूछा गया, आपकी नजर में हिंदी का सबसे बेस्ट अखबार कौन-सा है? जवाब दिया- अमर उजाला। अगला सवाल था- कैसे? मैंने बताया कि अमर उजाला में सिर्फ खबर छपती है, लंतरानी नहीं। प्रतिप्रश्न किया गया कि लेकिन अमर उजाला को हरियाणा में तो कोई पूछता नहीं। फिर मीडिया की मंदी पर सवाल होने लगे कि नौकरी वहां की छोड़कर यहां क्यों आना चाहते हैं? मेरा जवाब था, चालीस-पैंतालीस की उम्र के बाद पत्रकार हाशिये पर डाल दिए जाते हैं, इसलिए छोड़ना चाहता हूं।

अवधेश नौकरी छोड़ने के बाद अपने संपादक शशि शेखर से मिलना चाहते थे। नोएडा कार्यालय पहुंचे भी, लेकिन मलाल है कि वह कहीं बाहर गए हुए थे, मिल न सके।

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