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लाइबेरिया – सोमालिया सा भारतीय मीडिया

हाल ही में मैंने अलग-अलग संस्थानों से आए 500 स्नातकोत्तर विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित किया। उनसे जब यह पूछा गया कि उनमें से कितने मीडिया (प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक) का भरोसा करते हैं तो इसके जवाब में दस से भी कम हाथ उठे। अगर यह सवाल अस्सी के दशक में पूछा जाता तो ज्यादा हाथ उठते। उस समय अखबारों के सरकुलेशन की तुलना में उनकी पाठकों की संख्या का जिक्र किया जाता था। पाठकों की संख्या सरकुलेशन यानी प्रसार से छह गुना ज्यादा होती थी। आज की तारीख में सरकुलेशन बढ़ी और अखबारों की बिक्री भी।

<p style="text-align: justify;">हाल ही में मैंने अलग-अलग संस्थानों से आए 500 स्नातकोत्तर विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित किया। उनसे जब यह पूछा गया कि उनमें से कितने मीडिया (प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक) का भरोसा करते हैं तो इसके जवाब में दस से भी कम हाथ उठे। अगर यह सवाल अस्सी के दशक में पूछा जाता तो ज्यादा हाथ उठते। उस समय अखबारों के सरकुलेशन की तुलना में उनकी पाठकों की संख्या का जिक्र किया जाता था। पाठकों की संख्या सरकुलेशन यानी प्रसार से छह गुना ज्यादा होती थी। आज की तारीख में सरकुलेशन बढ़ी और अखबारों की बिक्री भी।</p>

हाल ही में मैंने अलग-अलग संस्थानों से आए 500 स्नातकोत्तर विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित किया। उनसे जब यह पूछा गया कि उनमें से कितने मीडिया (प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक) का भरोसा करते हैं तो इसके जवाब में दस से भी कम हाथ उठे। अगर यह सवाल अस्सी के दशक में पूछा जाता तो ज्यादा हाथ उठते। उस समय अखबारों के सरकुलेशन की तुलना में उनकी पाठकों की संख्या का जिक्र किया जाता था। पाठकों की संख्या सरकुलेशन यानी प्रसार से छह गुना ज्यादा होती थी। आज की तारीख में सरकुलेशन बढ़ी और अखबारों की बिक्री भी।

लेकिन क्या पठनीयता भी बढ़ी है? बहुत से लोग अखबार खरीदते हैं लेकिन हमेशा पढ़ते नहीं। इसकी दो वजहें हैं। पहली- निजी सौदेबाजी या कांट्रेक्ट और दूसरा पेड न्यूज। पहले का संबंध बिजनेस की खबरों से है और दूसर का संबंध राजनीतिक खबरों से। एक राष्ट्रीय दैनिक को इस नई खोज का श्रेय जाता है। मामला बेहद आसान है। कोई मीडिया हाउस उस कंपनी में हिस्सेदारी खरीदता है जो शेयर मार्केट में पहले से सूचीबद्ध है या सूचीबद्ध होने जा रही है। बदले में मीडिया हाउस कंपनी के पक्ष में कवरेज करता है। कंपनी के बार में नकारात्मक खबरों को दरकिनार कर दिया जाता है।

जब से संपादकीय और विज्ञापन की बारीक रेखा मिटी है, निजी सौदेबाजियों ने स्वतंत्र मीडिया की अवधारणा को काफी हद तक नुकसान पहुंचाया है। न्यूज स्पेस अब बिकाऊ हो गए हैं।  सेबी ने 15 जुलाई, 2009 को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को पत्र लिख कर इस प्रवृत्ति के बार में सचेत किया था। लेकिन प्रेस काउंसिल तो कागजी शेर से ज्यादा कुछ नहीं है। करोड़ों में खेलने वाली सैकड़ों कंपनियां आजकल मीडिया फ्रेंडली बनी हुई हैं। इस एवज में मीडिया ने भी समझौतावादी रुख अपना लिया है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में तो जितना कम कहा जाए तो उतना ही अच्छा। ऐसे मीडिया के लिए एंकर इन्वेस्टर शब्द का इस्तेमाल ज्यादा प्रासंगिक रहेगा। इस समय दर्जनों विशेषज्ञ और सलाहकार पैदा हो गए हैं, जो दर्शकों को इस और उस कंपनी के शेयर खरीदने की सलाह देते रहते हैं। यहां आपको कोई द्वंद्व या विवाद नहीं दिखेगा। यह सिर्फ आपसी हितों की बात होती है।

जमीनी स्तर पर तो हालात बेहद खराब हैं। ‘प्रेस कांफ्रेंस’ अब ‘लिफाफा कांफ्रेंस’ कही जाने लगी हैं। कंपनियां अपने पक्ष में खबर छपवाने के लिए पत्रकारों को लिफाफे में भर कर पैसे देती हैं। हालांकि हर पत्रकार के बार में ऐसा नहीं कहा जा सकता। लेकिन आप लिफाफा नहीं देते हैं तो पक्ष में खबर छपने की उम्मीद मत करिये। जब मैंने एक नामी कंपनी के अधिकारी के सामने इस पर आश्चर्य जताया तो उन्होंने कहा- आप लिखने-पढ़ने की दुनिया में रमे हैं। एकेडेमिक हैं। आपको जमीनी हकीकत की जानकारी नहीं है। राजनीतिक भाषा में ऐसी खबरों को ‘पेड न्यूज’ कहा जाता है।

महाराष्ट्र में हाल में हुए चुनाव में पेड न्यूज के कई उदाहरण दिखे। कुछ रिपोर्टरों के दबाव में प्रेस परिषद ने इस मामले के अध्ययन के लिए दो लोगों की कमेटी गठित की। कमेटी ने जो ड्राफ्ट रिपोर्ट पेश की उससे यह निष्कर्ष उभर कर सामने आया कि पेड न्यूज से लोकतांत्रिक मूल्य को चोट पहुंचती है। क्षेत्रीय भाषाओं की बात करें तो, वहां आपको ऐसे राजनीतक नेता मिल जाएंगे जो किसी न किसी अखबार या मीडिया हाउस के मालिक होंगे। पिछले कुछ समय से मीडिया में सुस्ती और दब्बूपन जैसी स्थिति दिखने लगी है। हालात दिनोंदिन और खराब ही हो रहे हैं। कुछ उदाहरणों का जिक्र करते हैं। इस देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी कांग्रेस की प्रमुख ने शायद ही किसी मीडिया हाउस को कोई इंटरव्यू दिया हो। न ही उन्होंने किसी ओपन हाउस को संबोधित किया है। यह लाइबेरिया या सोमालिया में संभव है लेकिन भारत में नहीं। लेकिन मीडिया ने इस हालात को स्वीकार कर लिया है।

भोपाल त्रासदी में मीडिया ने सारा फोकस एंडरसन पर किया हुआ है। लेकिन केशब महिंद्रा के बार में क्या कहेंगे? केशब महिंद्रा को इस त्रासदी के बाद महत्वपूर्ण पद दिया गया था। लेकिन उनके साथ कोई इंटरव्यू नहीं हुआ। उनके बारे में कोई बात नहीं हुई। भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड के फैक्टरी इंस्पेक्टरों का क्या हुआ। उस समय जो मंत्री और उद्योग सचिव प्रभारी थे, उनका क्या हुआ। मीडिया का फोकस कुछ इस तरह से है, मानो एंडरसन ही अकेला अमेरिका से फैक्ट्री चला रहा होगा। भ्रष्ट नौकरशाह और राजनीतिक नेताओं को बेनकाब करना चाहिए। लेकिन मीडिया इस मामले पर चुप्पी साधे हुए है।

हाल में बिहार और पश्चिम बंगाल में तूफान से सैकड़ों लोग मरे। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चुप रहा क्योंकि उसका सारा ध्यान आईपीएल स्कैंडल में था। कुछ अखबारों ने इन आपदाओं को अपने पन्ने पर बहुत कम जगह दी। अमेरिका और यूरोप में कुछ अखबार आर्ट, ओपेरा, थियेटर और म्यूजिक की खबरें छाप कर अप-मार्केट बने। लेकिन हमार यहां पेज 3 छाया हुआ है। मीडिया भारत को एक सभ्यता नहीं बल्कि एक बाजार मानता है। भारत में लाखों कार बिकती है। जिस दिन यह आंकड़ा चीन में कारों की बिक्री से एक भी ज्यादा हो जाएगा, उस दिन भारत का मीडिया जश्न मनाएगा। मीडिया में काम करने वाले कुछ लोग वास्तव में इस भारत के नागरिक ही नहीं हैं। होना तो यह चाहिए कि जब वे भारत की सुरक्षा पर लिखें और बोलें तो एक डिस्क्लेमर लगाना चाहिए। पारदर्शिता के लिए उन्हें इतना तो करना ही चाहिए।

लेखक आर. वैद्यनाथन का यह आलेख भास्कर समूह के हिंदी बिजनेस डेली ‘बिजनेस भास्कर’ में प्रकाशित हुआ है. वहीं से साभार लेकर इसे यहां प्रकाशित किया गया है.

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0 Comments

  1. kundan sahoo

    June 25, 2010 at 4:28 pm

    R.Madhavan ji ! aapke lekh ka sheershak padh kar aapka lekh padhne laga , lekin gaharaai kam lagi. media k vishay mein, kamobesh ye baatein sabhi jante hai, aapka lekh dekhkar socha cahlo bhagam bhag ki jindagi mein teesri duniya ke liye kisi ne kuchh to likha. afsos kuchchh na mila.

  2. अमित गर्ग. राजस्थान पत्रिका. बेंगलूरु.

    June 26, 2010 at 3:55 pm

    आर. वैद्यनाथन जी. नमस्कार।
    आपका आलेख पढ़ा। कमोवेश दिल में मिश्रित सी प्रतिक्रिया उमड़-घुमड़ कर आई। हम नहीं जानते ऐसा क्यों हुआ लेकिन, एक बात जो हम समझ सके वो ये कि आपने बहुत सी बातें अपने आलेख के जरिए बयां कीं। लेकिन, बहुत सारी चीजों को आपने यहां जान-बूझकर नहीं उकेरा। बाजारवाद की दौड़ में अंधे होकर दौड़ रहे मीडिया घरानों के अपने कर्मचारियों के प्रति किए जा रहे शोषण के बारे में आप कैसे लिखना भूल गए? या तो आपको इस बारे में जानकारी नहीं है या फिर आपको उनके दर्द से कोई सरोकार नहीं है। हम जो कह रहे हैं उसका मतलब ये कदापि नहीं है कि हम समाचारों की खरीद-फरोख्त का समर्थन कर रहे हैं। एक बात आपसे कहना चाहते हैं कि ये देशभर में बड़े पत्रकारों में शुमार जितने भी लोग पेड न्यूज को रोकने का दावा जितनी भी सभाएं-समारोहों अथवा बैठकों में चिंतन-मनन के जरिए खोज रहे हैं उससे कुछ हासिल होने की उम्म्ीद धूमिल सी दिखाई देती है। पता नहीं इनका ये चिंतन कितने समय से जारी है और ये रवैया ना जाने कितने समय तक और चलेगा। लेकिन, आज तक कोई सकारात्मक परिणाम नहीं आए हैं। और भविष्य में इनके चिंतन-मनन से इस प्रकार की कोई उम्मीद भी दिखाई नहीं दे रही है। मीडिया घरानों में काम कर रहे पत्रकारों-कर्मचारियों के आर्थिक हितों की रक्षा करने की ओर ध्यान देने की नितांत आवश्यकता है। शायद इससे भी समस्या का समाधान नहीं होगा लेकिन, कुछ अंकुश जरूर लग जाए…!

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