प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के काबिल पत्रकारों को मंदी के नाम पर बेरोजगार बनाने वाले पूंजीपतियों व प्रबंधन के चाटुकारों के खिलाफ एक मुहिम की आवश्यकता महसूस की जा रही है। ऐसी मुहिम जिसका अंजाम आत्मसम्मान की पुर्नप्राप्ति है। मंदी के नाम पर छंटनी के शिकार बने मीडियाकर्मियों के आत्मसम्मान को ठेस पहुंची है। मीडिया जगत में इन पत्रकारों का कद कम हुआ है। उन्हें हेय दृष्ठि से देखा जाने लगा है। ज्यादातर लोग सोचते हैं कि इन्हें किसी कमी के चलते हटाया गया होगा।
अधिकतर मामलों मे यह बात सामने आई है कि छंटनी के शिकार हुए पत्रकार और अन्य कर्मचारी अपने समूह के अन्य पत्रकारों एवं कर्मियों से हर श्रेणी में श्रेष्ठ और काबिल थे। वे अपने उच्चाधिकारियों के तलवे चाटने अथवा उनको तेल लगाने जैसे निम्न स्तरीय हरकतों से परहेज करते थे। वो अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए ही तथाकथित संपादकों और अन्य प्रभावशाली उच्चाधिकारियों के समक्ष नतमस्तक नहीं हुए, जिसका खामियाजा उन्हें बेरोजगार होकर भुगतना पड़ रहा है। यह बेरोजगारी उतनी दुखदायी नहीं है जितना असहनीय दर्द यह है कि इन पत्रकारों और कर्मचारियों को समाज में जो प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था, वह भूतकाल की बात हो गई है। यह उचित है कि विभिन्न संस्थान समय-समय पर छंटनी के तहत उन कर्मचारियों को बेदखल करते रहे हैं जो संस्थान की पालिसी में विश्वास नहीं रखते अथवा किसी भी प्रकार से संस्थान की प्रतिष्ठा को धूमिल करते रहते हैं। लेकिन शर्मनाक तो यह है कि हाल ही में जिन मीडियाकर्मियों पर छंटनी की तलवार चलाई गई वे सभी अपने संस्थानों के लिए पूर्णतया समर्पित थे और संस्थान एवं पत्रकारिता के सामाजिक मूल्यों में निरंतर बढ़ोतरी करने के लिए प्रयासरत रहे।
प्रश्न यह है कि मीडियाकर्मियों के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने और उन्हें समाज में अपमानित करने का यह गोरखधंधा कब तक जारी रहेगा? क्या एक संस्थान से निकाले जाने के बाद दूसरे संस्थान में कम वेतन और कम सुविधाओं का उपभोग करते हुए जीवन के शेष वर्ष गुमानी के अंधेरे में बिताना ही उन पत्रकारों को स्वीकार्य है जो छंटनी की इस बयार में बह गए? क्या उनका और मीडिया जगत के शीर्ष तथा प्राण माने जाने वाले पत्रकारों का ईमान व दीनधर्म उन्हें इस बात के लिए नहीं धिक्कार रहा कि इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की आवश्यकता है? जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए किसी भी हद तक चले जाने का सामर्थ्य रखने वाला मीडिया जगत इतना गया-गुजरा हो गया है और ऐसी दयनीय हालत में है कि उसे स्वाधिकारों व आत्मसम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिए किसी की कृपा दृष्ठि की आवश्यकता है? क्या संस्थानों से बेइज्जत कर रवाना किए गए पत्रकारों और अन्य मीडियाकर्मियों को एक मंच पर एकत्रित होकर इस कुप्रथा का अंत करने की मुहिम की शुरुआत की आवश्यकता महसूस नहीं हो रही है? क्या इस मुहिम को ‘मुहिम आत्मसम्मान’ नाम दिया जाना उचित नहीं है जिसकी प्राप्ति के लिए कानूनी और लोकतांत्रिक तरीकों से आंदोलन का आगाज करना जरूरी हो गया है?
दैनिक भास्कर के बिलासपुर (छत्तीसगढ़) संस्करण से छंटनी के तहत निकाले गए साथियों ने संस्थान के खिलाफ कोर्ट में परिवाद पेश कर सराहनीय कदम उठाया है और कोर्ट द्वारा प्राथमिक तौर पर ही उन्हें राहत दिया जाना इस बात का शुभ संकेत है कि आवश्यकता केवल आवाज उठाने की है, सुनवाई के लिए न्यायालय के द्वार खुले हैं। हम उन सभी सम्मानीय और काबिल पत्रकारों और मीडियाकर्मियों से विनम्र अपील करते हैं कि आइए और अपने आत्मसम्मान को पुनः प्राप्त करने की लड़ाई में भूमिका निभाइए। यह जंग किसी व्यक्ति विशेष अथवा संस्थान के खिलाफ नहीं बल्कि उस कुप्रथा के खिलाफ है, जिसकी आड़ में कोई भी टुच्चा अधिकारी किसी काबिल और सम्मानीय मीडियाकर्मी को मानसिक वेदना पहुंचाकर उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को आघात पहुंचा सकता है। सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान की क्षति के साथ-साथ जीवनयापन के संकट की स्थिति मीडियाकर्मियों के समक्ष उभर आई है, उससे इस चमकती दुनिया के पीछे का घोर अंधियारा भी सामने आ गया है। यह एक ऐसी खतरनाक स्थिति है कि भविष्य के पत्रकार पत्रकारिता की गरिमा को बनाए रखने की जिम्मेदारी उठाने से कतराने लगेंगे। शायद कोई भी मीडियाकर्मी ऐसा नहीं चाहेगा।
लेखक विकास सचदेवा और विनोद बिश्नोई राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले के पत्रकार हैं। इनका कहना है कि इन्हें भास्कर प्रबंधन ने 19 दिसंबर 2008 को छंटनी की आड़ में रंजिशन श्रीगंगानगर संस्करण से बाहर का रास्ता दिखा दिया। ये दोनों पत्रकार अब कानूनी व आंदोलनात्मक तरीके से अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। विकास सचदेवा से संपर्क उनके मोबाइल नंबर 09636740218 या उनकी मेल आईडी [email protected] के जरिए किया जा सकता है। विनोद बिश्नोई से संपर्क उनके मोबाइल नंबर 09829762729 या उनकी मेल आईडी [email protected] के जरिए कर सकते हैं।