व्यंग्य
टीवी न्यूज चैनलों में काम करने वाले टॉप से बॉटम तक के लोग हमेशा बदहवाश रहते हैं। टीआरपी बढ़ने-घटने के साथ इनका रक्त संचार घटता-बढ़ता रहता है। हमेशा इसी जुगाड़ में रहते हैं कि क्या दिखाएं ताकि टीआरपी बढ़े। समय-समय पर कुछ ऐसा घटता रहता है जिससे टीआरपी का जुगाड़ हो जाता है। पर यह जरूरी नहीं कि मुंबई में भयानक बारिश या आतंकी हमले, आरूषि कांड और चुनाव होते ही रहें। मुंबई हमले को नाकाम किए जाने और चुनाव बीत जाने के बाद चैनलों को टीआरपी का जुगाड़ करना कठिन होने वाला है। ऐसे में उनके लिये आसान नुस्खा पेश है।
(नोट- इस नुस्खे पर अमल से होने वाले परिणाम के लिए लेखक या पोर्टल को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता)
कई दिनों से कोई बच्चा गड्ढे में गिरा नहीं। ऐसे भयानक समय में चैनलों को टीआरपी बढ़ाने के लिए तरह-तरह के जतन करने पड़ जाते हैं। जब बच्चा गड्ढे में गिरता है तो काम आसान हो जाता है। बच्चों को तो टेलीविजन वालों पर तरस खाते हुए हर सप्ताह कहीं न कहीं गड्ढे में गिरते रहना चाहिये। केन्द्र सरकार चाहे तो चैनल वालों की सहूलियत एवं उनके फायदे के लिये नियम बना दे कि हर राज्य सरकार को हर महीने कम से कम एक बच्चे के गड्ढे में गिरने को सुनिश्चित करना होगा। जिस राज्य में ज्यादा गड्ढे या बोर खुले छोड़े जायेंगे उसे केन्द्र से विषेश ‘खुला गड्ढा अनुदान’ मिलेगा तथा उसे ‘सर्वाधिक बच्चा गिरावक राज्य‘ का दर्जा दिया जायेगा। ज्यादा से ज्यादा बोर होल खुला छोड़ने वाले कांट्रैक्टर को ‘टीआरपी रत्न‘ की उपाधि दी जायेगी। गड्ढे को खुला छोड़ने की प्रवृति को प्रोत्साहित करने के लिये सरकार को पद्म पुरस्कारों में ‘गड्ढा विभूषण‘, ‘गड्ढा भूषण‘ और ‘गड्ढा श्री‘ जैसे पुरस्कारों को भी शामिल करना चाहिये। अब जब तक सरकार इस दिशा में कुछ नहीं करती, तब तक चैनल वालों को चाहिये कि वे खुद प्रयत्न करें और इस तरह की कुछ पहल करें। पिछले दिनों एक खबरिया चैनल में काम करने वाले मेरे एक दोस्त बता रहे थे कि आजकल बच्चे टेलीविजन चैनलों के ‘ओबी वैन‘ को देखकर ही भाग खड़े होते हैं कि पता नहीं कब चैनल वाले उसे पकड़ कर किसी भी गड्ढे में डाल दें और इसके बाद वहीं से सीधा प्रसारण शुरू करें दें – ‘बच्चा फिर गड्ढे में, सिर्फ ”परसों तक” चैनल पर।‘ गड्ढे में दो दिन तक भूखा-प्यास वह पड़ा रहे और टीआरपी चैनल की बढ़े। ऐसे में कोई बच्चा क्यों गड्ढे में गिरे?
इन चैनल वालों से यह तक नहीं होता कि किसी बच्चे को बिस्किट, चाकलेट, बर्गर, जूस, कोल्ड ड्रिंक्स आदि के पैकेट पकड़ायें और कहें कि बच्चा चल गड्ढे में उतर जा, जब तक इन सब आइटमों को खा-पीकर खत्म करेगा तब तक हम अपनी टीआरपी बढ़ा लेंगे और दो चार घंटे में दमकल और सेना वाले आकर तुम्हें निकाल लेंगे। बाद में ईनाम भी मिलेंगे और चैनलों पर इंटरव्यू आयेंगे, स्वयंसेवी संगठनों की गोरी मैडमें और चिल्ला-चिल्ला कर नाक में दम कर देने वाली टेलीविजन चैनलों की खूबसूरत बालायें गोद में उठायेंगी और बाइट लेंगी सो अलग। लेकिन चैनल वाले इतना भी नहीं करना चाहते।
अब सोचिये, किसी बच्चे के अपने आप किसी बोर या गड्ढे में गिरने के लिये कितना बड़ा संयोग बैठना चाहिये। बेमेल शादी कराने के लिये जन्मपत्री बनाने में किसी पंडित जी को जो मशक्कत करनी पड़ती है, उससे कई गुना अधिक मशक्कत ब्रह्मा जी को किसी बच्चे को बोर या गड्ढे में गिराने के लिये करनी पड़ती है। चलिये, यह तो मान लेते हैं कि कांट्रैक्टर बोर को खुला छोड़ देंगे क्योंकि यह तो उनका धर्म और जन्मसिद्ध अधिकार है। लेकिन इसके आगे कितना बड़ा संयोग चाहिये क्योंकि केवल बोर या गड्ढे के खुला छोड़ देने भर से काम नहीं बनता। काम तब बनता है जब उसमें कोई बच्चा गिरे और चैनल वालों को इसकी भनक लगे। उस बोर या गड्ढे के आसपास बिलकुल बेपरवाह परिवारों और माता-पिताओं का भी होना जरूरी है जिन्हें इस बात कि फिकर ही नहीं रहती है कि उनका बच्चा खेलते-खेलते कहां निकल गया और कहां गिर गया। इसके अलावा वैसे परिवारों में ऐसे बच्चे का भी होना जरूरी है जो खेलने के लिये कहीं और नहीं, उस बोर के पास ही जाये और सीधे उसमें गिर जाये।
अब इतने सारे संयोग के लिये इंतजार करने से अच्छा है कि चैनल वाले अपने स्टूडियो में ही कोई बोर या गड्ढा खोद लें और हर सप्ताह किसी न किसी बच्चे को गिरने के लिये आमंत्रित करें। इसके अलावा स्टूडियो में लाइव डिस्कशन के लिये बच्चे के मां-बाप, पूर्व में गड्ढे में गिरने वाले किसी बच्चे, उसके माता-पिता, बोर को खुला छोड़ देने में माहिर कांट्रैक्टर आदि को पहले से बुला कर रखें। इससे ओवी वैन को कहीं मूव नहीं करना पड़ेगा। सब कुछ स्टूडियो में ही हो जायेगा। बोर यूं हो कि बच्चा एक तरफ से बोर में घूसकर दूसरी तरफ से निकल सके। साथ ही बोर में बच्चे के बैठने, खाने-पीने, सोने आदि की व्यवस्था होनी चाहिये। एसा होने से बच्चे बोर में ज्यादा से ज्यादा दिन रहेंगे और ज्यादा से ज्यादा समय तक टीआरपी बटोरी जा सकती है।
बोर से बच्चे को निकालने के नाटक को किसी कंपनी से प्रायोजित कराया जा सकता है। इसमें कंपनी का मुफ्त प्रचार होगा और वाहवाही भी खूब मिलेगी। यह नुस्खा सुपरहिट हो सकता है। अगर इस नुस्खे को आजमाया जाये तो सबका फायदा हो सकता है – चैनल वालों को, बच्चे और उसके मां-बाप को, प्रायोजक कंपनियों को और ‘सास-बहू‘ टाइप के दर्शकों को जो अपने चहते धारावाहिकों के बंद हो जाने से डिप्रेशन में चले गये हैं। सरकार और नेताओं को तो सबसे ज्यादा फायदा होगा क्योंकि आम लोग महंगाई और अन्य समस्याओं को भूल कर बच्चों को गड्ढे से निकाले जाने की चिंता में ही डूबे रहेंगे और सरकार, मंत्री और नेता देश को गड्ढे में गिराने के मिशन को तसल्ली के साथ अंजाम दे सकेंगे।
लेखक विनोद विप्लव पत्रकार और कहानीकार हैं। एक राष्ट्रीय संवाद समिति में कार्यरत हैं। इस व्यंग्य पर न्यूज चैनल के लोग अपनी भड़ास निकालने या उन्हें गरियाने के लिए 09868793203 पर फोन कर सकते हैं या फिर मेल भेजने के लिए [email protected] का सहारा ले सकते हैं।