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सिनेमा और महिलाएं (3)

Shushila Kumariविदेश से फैशन डिजाइनिंग में डिग्री लेकर लौटी युवती ट्रक कंपनी के मालिक से प्यार फिर शादी करती है। शादी के बाद वह अपना समय पति के जूतों को सही जगह रखने और धोबी से कपड़ों का हिसाब करने में बिताती है- ‘चलते-चलते’। एक आधुनिक जमाने की छात्रा प्रेमी को दूसरी तेज-तर्रार लड़की के मोहपाश से बचाने के लिए करवा चौथ व्रत रखती है- ‘इश्क-विश्क’। बॉलीवुड में चीजें जितनी ज्यादा बदलती हैं, उतनी ही वह पहले जैसी रहती हैं। मुम्बइया फिल्मों में चमक-दमक बढ़ गई है।

Shushila Kumari

Shushila Kumariविदेश से फैशन डिजाइनिंग में डिग्री लेकर लौटी युवती ट्रक कंपनी के मालिक से प्यार फिर शादी करती है। शादी के बाद वह अपना समय पति के जूतों को सही जगह रखने और धोबी से कपड़ों का हिसाब करने में बिताती है- ‘चलते-चलते’। एक आधुनिक जमाने की छात्रा प्रेमी को दूसरी तेज-तर्रार लड़की के मोहपाश से बचाने के लिए करवा चौथ व्रत रखती है- ‘इश्क-विश्क’। बॉलीवुड में चीजें जितनी ज्यादा बदलती हैं, उतनी ही वह पहले जैसी रहती हैं। मुम्बइया फिल्मों में चमक-दमक बढ़ गई है।

कलाकारों के परिधान आकर्षक हो गए हैं, गाने की झंकार अद्वितीय है और लोकेशन विदेशी, लेकिन एक चीज जो पुरानी हिंदी फिल्मों से बिल्कुल नहीं बदली, वह है हीरोइन की भूमिका। कुछ फिल्मों में तो उसकी छवि बद से बदतर हो गई है। फिल्में असल जीवन का आइना होती हैं या असल जीवन में फिल्मों का प्रभाव झलकता है- इस विषय पर हमेशा से बहस जारी रही है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार शहरी और ग्रामीण इलाकों की 26 प्रतिशत महिलाएं कामकाजी हैं लेकिन हमारी फिल्में इस तथ्य को पूरी तरह नकारती हैं। पिछले वर्षों में भारतीय महिलाओं ने प्रशासक, सर्जन, लेखक, पायलट, अंतरिक्ष यात्री, व्सवसायी आदि के रूप में अपनी पहचान बनाई है। लेकिन ऐसी कोई भी बात हमें हिंदी फिल्मों में देखने को नहीं मिलती, बल्कि हमारी फिल्मों में अच्छी शिक्षित होने पर भी हीरोइनों को घरेलू बीबी का किरदार निभाते ही ज्यादा दिखाया जाता है। ज्यादा से ज्यादा इन हीरोइनों को डॉक्टर, अध्यापिका या पत्रकार बनने की छूट होती है, लेकिन सामान्य तौर पर हीरोइनें कॉलेज जाने वाली सुंदरियां होती हैं जो फिल्म के अंत में शादी करके घर संभालती हैं। हिंदी फिल्मों में कैरियर उन्मुख महिलाएं क्यों नदारद हैं? कहां हैं वे महिलाएं जो शीर्ष तक पहुंचना चाहती हैं? हिंदी फिल्मों में सशक्त महिलाएं क्यों नहीं हैं?

सन् 1950 के दशक के कुछ क्रांतिकारी फिल्म निर्माता जैसे विमल रॉय, के.ए. अब्बास और गुरूदत्त ने अपनी फिल्मों में अभिनेत्रियों के कुछ सशक्त चरित्रों को प्रस्तुत किया था। उन फिल्मों की औरतों की अनपढ़ और घरेलू होने के बावजूद भी अपनी आवाज थी और हमेशा अपनी अलग पहचान के लिए संघर्ष करती दिखती थीं। वे किसी भी मायने में 50 के दशक की चालू बॉलीवुड फिल्मों के जैसी नहीं थीं। उस समय लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ए.बी. बोस ने 60 हिंदी फिल्मों का लगातार विश्लेषण किया जब ‘आग’, ‘आवारा’, ‘बाजी’, ‘दाग’, ‘जाल’, ‘अनारकली’, ‘देवदास’, ‘इंसानियत’, ‘काला पानी’ और ‘साधना’ जैसी फिल्में बनाई गई थी। उन्होंने पाया कि ज्यादातर फिल्मों में मध्य तथा उच्च वर्ग के पढ़े-लिखे युवक-युवतियों की कहानी है। इनमें से लगभग आधी फिल्मों के हीरो बेरोजगार थे और लगभग दो-तिहाई फिल्मों की हीरोइन के पास भी कुछ काम नहीं था। अगर ऐसा ही एक विश्लेषण पिछले दशक की फिल्मों का भी किया जाए तो नतीजे बिल्कुल वही होंगे।

इन फिल्मों में से अधिकतर में हीरो के पास काम होगा (खासकर कोई रचनात्मक कार्य) जबकि हीरोइनों को या तो कोई काम नहीं होगा अथवा होगा भी तो एक बार हीरो से मिलने के बाद वह गैर-जरूरी हो जाता है। सन् 1960 के दशक में बहुत सी अभिनेत्रियां डॉक्टर, अध्यापिका या समाज सेविका के रूप में पर्दे पर आने लगीं। 1970 के दशक में बहुत सी हिंदी फिल्मों में निम्न और मध्यम वर्ग की लड़कियों को कामकाजी महिला के रूप में दिखाया गया। कई अग्रणी अभिनेत्रियों ने विभिन्न पेशों से जुड़े किरदार निभाए। ‘जंजीर’ में जया बच्चन चाकू-छूरी तेज करती दिखी, तो ‘अभिमान’ में वह गायिका बनी। ‘शोले’ में हेमामालिनी ने तांगा चलाया तो ‘त्रिशूल’ में होटल की प्रबंधक का रोल किया। राखी ने भी ‘त्रिशूल’ में एक कारपोरेट सेक्रेटरी का किरदार निभाया तो ‘काला पत्थर’ में वह एक डॉक्टर बनी। उस समय के एक सफल निर्देशक बासू चटर्जी अक्सर अपनी फिल्मों की अभिनेत्रियों को कामकाजी महिला के रूप में प्रस्तुत करते थे- जैसे ‘छोटी सी बात’।

1980 के दशक में बॉलीवुड अभिनेत्रियों को मासूम हसीनाओं से सख्त पुलिस अफसर बनते दिखाया गया। ‘फूल बने अंगारे’ में रेखा, ‘अंधा कानून’ में हेमा मालिनी और डिम्पल कपाड़िया ने ‘जख्मी’ में इन किरदारों ने जान डाली। ये सारे रोल हवा में नहीं बनाए गए थे। उस समय महिलाओं पर देश भर में यौन उत्पीड़न की बहुत ज्यादा खबरें आ रही थीं। 70 के अंत और 80 के शुरूआती वर्षों में हीरोइनों को केवल कामकाजी महिला ही नहीं दिखाया गया, बल्कि ये महिलाएं परिवार की एकमात्र सहारा थीं और इन्हें कई सामाजिक लड़ाइयां भी लड़ते दिखाया गया। लेकिन 1990 के दशक में महिलाएं अपनी मुश्किल से अर्जित छवि खोती नजर आने लगीं। जैसे-जैसे फिल्में ज्यादा चमकीली और हाईटेक होती गईं, फिल्मों में हीरो ही सबसे प्रधान हो गया और हीरोइन का काम फिल्म को ग्लैमर देना रह गया। फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने में उनकी कोई भूमिका नहीं रह गई।

90 के दशक के शुरुआती वर्षों में जहां भारत वैश्वीकरण के जरिए व्यापक हो रहा था वहीं हमारी फिल्मों का स्तर नीचे जाता रहा। उस समय की अभूतपूर्व हिट फिल्म ‘हम आपके हैं कौन’ में माधुरी दीक्षित ने दर्शकों के दिलों में अहम मुकाम पाया। लेकिन उसने भी उस फिल्म में परिवार और पति के लिए अपनी सारी इच्छाएं, महत्वाकांक्षाएं दफन करने वाली परम्परा ही स्थापित की। हालांकि भारतीय महिलाओं ने तरक्की की, लेकिन बॉलीवुड फिल्म पटकथा लेखकों की पहली पसंद पुरुष ही बने हुए हैं।

हाल के वर्षों की फिल्में जैसे ‘कभी खुशी कभी गम’, ‘कुछ कुछ होता है’, ‘दिल तो पागल है’, ‘बीबी नं. 1’ सभी में औरतों को घर सज्जा की वस्तु अथवा आज्ञाकारी गृहणी के रूप में ही दिखाया गया है। आजकल के निर्माताओं द्वारा बनाई गई इन फिल्मों में से किसी भी फिल्म में हीरोइन का कोई कैरियर नहीं दिखता। हालांकि प्यार में हारने के बाद कैरियर याद आता है। ‘दिल तो पागल है’ में करिश्मा कपूर एक डांसर है जो माधुरी दीक्षित से प्यार में हार जाती है जिसके जीवन का लक्ष्य अपना साथी तलाशना है। ‘बीबी नं. 1’ में सुष्मिता सेन एक मॉडल तो है, साथ ही पति-पत्नी के संबंधों में दरार डालने वाली भी है और करिश्मा कपूर अपने पति परमेश्वर की हर भूल को माफ करते हुए उसे हासिल करके ही दम लेती है। यहां तक कि नई पीढ़ी की फिल्म ‘दिल चाहता है’ के निर्देशक ने भी अपनी अभिनेत्रियों को परम्परागत चरित्र ही दिए। जहां तीन पुरुष चरित्रों की अपनी-अपनी अलग पहचान है वहीं महिला चरित्रों की कोई पहचान नहीं है। केवल डिम्पल कपाड़िया के चरित्र को आत्मनिर्भर दिखाया गया लेकिन उसका अंत भी सुखद नहीं होता क्योंकि अक्षय खन्ना को हम उम्र की एक मेल खाती गर्लफ्रैंड मिल जाती है।

इन फिल्मों के निर्माताओं में से कई ने अपनी शिक्षा विदेशों में पाई है और इनकी जीवन शैली पर पश्चिम का खासा प्रभाव है। इन निर्माताओं ने हॉलीवुड की चमक-दमक को तो अपनी फिल्मों में उतार दिया लेकिन साथ ही परम्परागत भारतीय मूल्यों और रूढ़िवादिता पर लौटने का संदेश भी दिया है और इस काम को उन्होंने अपनी अभिनेत्रियों के जरिए अंजाम दिया है। फिल्म ‘मैं प्रेम की दीवानी हूं’ में अपने किरदार के बारे में करीना कपूर बताती हैं, ‘वह आज की लड़की है, बिल्कुल मेरी तरह। उसे पता है कि वह क्या चाहती है और साथ ही उसमें अपने परम्परागत मूल्यों के लिए भी सम्मान है। वह एक देशी मॉडर्न लड़की है। वह एक ऐसी लड़की है जिसे हर पुरुष अपनी पत्नी बनाना चाहेगा।’ जब अवधारणाएं मॉडर्न हो गईं तो सोच क्यों नहीं बदलती? ऐसे फिल्म निमार्ताओं के अनुसार दर्शक ही बार-बार एक जैसी चीज की मांग करते हैं। जाहिर सी बात है दर्शक भी ज्यादातर पुरुष ही हैं। एक साक्षात्कार के दौरान अभिनेता शाहरूख खान कहते हैं, ‘हमारी फिल्मों की पश्चिम से तुलना करना गलत है क्योंकि हमारे समाज की अपनी सीमाएं हैं और कुछ विषय हमारे दर्शकों को गैर-मंजूर हैं। हम महिलाओं को शक्तिशाली चरित्र के रूप में नहीं देखते। आज भी ज्यादातर हीरो आपको कहेंगे कि मुझे घरेलू पत्नी चाहिए जो मेरे घर और बच्चों की देखभाल कर सके। फिल्मी पटकथाएं तभी आगे बढ़ेंगीं जब महिलाएं आगे बढ़ें।’

पर सच तो यह है कि भारतीय महिलाओं ने तो तरक्की कर ली है लेकिन फिल्मी पटकथाएं हीरोइनों को लेकर वहीं की वहीं बनी हुई हैं।

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सुशीला कुमारी स्वतंत्र लेखिका हैं। ”आधी दुनिया का सच” के लिए उन्हें भारतेंदु हरिश्‍चन्द्र पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। उपरोक्त आलेख सुशीला की हाल में ही आई किताब ”अबला बनाम सबला” से लिया गया है। सुशीला आईआईएमसी की छात्रा रह चुकी हैं। वे इन दिनों मधुबाला पर पुस्‍तक लिख रही हैं। उनसे संपर्क  [email protected]  पर मेल भेजकर या फिर 09868793203 पर फोन करके किया जा सकता है। n This e-mail address is being protected from spambots, you need JavaScript enabled to view it   

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