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सिनेमा, बलात्कार और महिलाएं (अंतिम)

Shushila jiहिन्दी सिनेमा में बलात्कार का चित्रण सिनेमा की एक खतरनाक जरूरत बन गई है। खतरनाक इस मायने में कि इसका चित्रण इस तरह से किया जाता है कि दर्शकों को लगता है कि यह सिनेमा की जरूरत है। उदाहरण- सिनेमा में महिला को किसी की गर्लफ्रेंड, पत्नी, माता, बहन के रूप में ही पेश किया जाता है जबकि फिल्म का असली नायक तो हीरो होता है। यह प्रवृत्ति हमारे पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता को दर्शाता है। वह हमेशा अपनी गर्लफ्रेंड की सुरक्षा के लिए मौजूद हो जाता है, जब उसे उसकी जरूरत होती है।
Shushila ji
Shushila jiहिन्दी सिनेमा में बलात्कार का चित्रण सिनेमा की एक खतरनाक जरूरत बन गई है। खतरनाक इस मायने में कि इसका चित्रण इस तरह से किया जाता है कि दर्शकों को लगता है कि यह सिनेमा की जरूरत है। उदाहरण- सिनेमा में महिला को किसी की गर्लफ्रेंड, पत्नी, माता, बहन के रूप में ही पेश किया जाता है जबकि फिल्म का असली नायक तो हीरो होता है। यह प्रवृत्ति हमारे पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता को दर्शाता है। वह हमेशा अपनी गर्लफ्रेंड की सुरक्षा के लिए मौजूद हो जाता है, जब उसे उसकी जरूरत होती है।
 
यह सिनेमा का बॉक्स ऑफिस पर सफलता का एक जाना-माना फार्मूला बन गया है। कुछ फिल्मों में हीरो की मां और बहन उसके गर्लफ्रेंड को नापसंद करती है और हीरो को इनके बीच सामंजस्य स्थापित करना होता है जो कि पुरुष सत्तात्मक समाज को ही दर्शाता है। किसी भी फिल्म को हिट करने के लिए इन्हीं फार्मूलों का इस्तेमाल किया जाता है।

यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि 10 में 9 फिल्मों में विलेन हमेशा पुरुष ही होता है क्योंकि वह एक सफल और निपुण बलात्कारी होता है। हालांकि उसे कानूनन गिरफ्तार भी होना पड़ सकता है, लेकिन उसके असंख्य बलात्कार के अपराध उसे मुश्किल से ही अपराधी साबित कर पाते हैं। विलेन के खराब चरित्र होने के बावजूद बलात्कारी महिला हमेशा खुद को अपनी नजर में और समाज की नजर में अपमानित महसूस करती है। यहां तक कि उसकी बहन भी किसी से शादी करने से डरने लगती है। उसकी माता विधवा हो या विवाहित, इसी अपमान में घुलती रहती है और अक्सर इसकी परिणति आत्महत्या के रूप में होती है।

इसे फिल्माने के तरीकों में सदियों से कोई परिवर्तन नहीं आया है और देश में हिंदी फिल्मों के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषायी फिल्मों में भी बार-बार यही प्रवृत्ति दोहरायी जाती है। अधिकतर स्टीरियोटाइप फिल्मों में वैंप, विजयी हीरो, कपटी बहन, धार्मिक मां,  मध्य वर्गीय जिंदगी, सामान्य आदमी की नैतिकता और अत्यंत धनी विलेन को ही बार-बार अलग-अलग तरीकों से दोहराया जाता है। हमारे देश में व्यावसायिक फिल्मों को देखने वाले मुख्य दर्शक सपने में जीने वाले होते हैं। वे फिल्मों को देखकर सपने तो देखते हैं, लेकिन अपंग हो चुकी शिक्षा व्यवस्था, बेरोजगारी आदि के कारण उसे पूरा नहीं कर पाते हैं। यह मुख्य तौर पर निम्न/मध्यम वर्ग होता है जो निम्न दर्जे की शिक्षा पाता है और हमारे देश की आबादी में इनका प्रतिशत बहुत अधिक है।

इस समाज की महिलाओं का भविष्य परिवार वालों के हाथ में है, यहां तक उनके व्यवसाय पर भी परिवार का कब्जा होता है। उनकी जिंदगी पर भी समाज और आसपास के लोगों का ही प्रभाव होता हैं। हिंदी सिनेमा में इन्हीं महिलाओं का चित्रण किया जाता रहा है। इनका नारीत्व इनकी यौन जिंदगी की शुद्धता पर आधारित होता है। इन फिल्मों के प्रभाव की कल्पना कीजिए। हाला¡कि आज की भारतीय महिलाओं का एक बड़ा तबका विदेशी कल्चर को अपना चुका है लेकिन बलात्कार के संबंध में उनकी अविश्सनीय धारणा अब भी कायम है कि बलात्कार उन पर किया गया शारीरिक और मानसिक हमला है और इससे महिला समाज और खुद की आंखों में हमेशा के लिए लज्जित होती हैं।


इससे पहले का पार्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें – (1), (2), (3)

सुशीला कुमारी स्वतंत्र लेखिका हैं। ”आधी दुनिया का सच” के लिए उन्हें भारतेंदु हरिश्‍चन्द्र पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। उपरोक्त आलेख सुशीला की हाल में ही आई किताब ”अबला बनाम सबला” से लिया गया है। सुशीला आईआईएमसी की छात्रा रह चुकी हैं। वे इन दिनों मधुबाला पर पुस्‍तक लिख रही हैं। उनसे संपर्क  [email protected] This e-mail address is being protected from spambots, you need JavaScript enabled to view it   पर मेल भेजकर या फिर 09868793203 पर फोन करके किया जा सकता है। 

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