”मर्दों द्वारा, मर्दों का और मर्दों के लिए”
महिलाओं को जागरूक और सशक्त बनाने में जन माध्यमों की महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन हमारे देश में ऐसा लगता है कि महिला सशक्तिकरण और मीडिया के बीच 36 का आंकड़ा है। भारतीय मीडिया के बारे में कहा जाता है कि यह मूलत: मर्दों की ही मीडिया है। हाल के वर्षों में स्थिति में थोड़ी-बहुत तब्दीली भले ही हुई है लेकिन अब भी यह ”मर्दों द्वारा, मर्दो का और मर्दों के लिए” ही है।
मीडिया में महिलाएं
कुछ वर्ष पहले एबर्ट फाउंडेशन द्वारा आयोजित एक कार्यशाला में दूरदर्शन में महिलाओं की स्थिति को लेकर एक सर्वेक्षण प्रस्तुत किया गया था। इस सर्वेक्षण के अनुसार उस समय दूरदर्शन महानिदेशालय समेत दूरदर्शन के सात निर्माण केंद्रों में केवल 17 प्रतिशत महिलाकर्मी थीं। समाचार पत्रों एवं समाचार एजेंसियों में महिलाकर्मियों का प्रतिशत तो और भी कम है। अंग्रेजी के कुछ बड़े अखबारों में संपादन एवं रिपोर्टिंग में मुश्किल से पांच प्रतिशत महिलाकर्मी कार्यरत हैं लेकिन हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों में तो यह प्रतिशत और भी कम है। यह जरूर है कि निजी टेलीविजन चैनलों में रिपोर्टिंग, एंकरिंग एवं प्रोडक्शन में युवा महिलाएं अधिक दिखती हैं लेकिन इसका कारण यह नहीं है कि निजी चैनलों के प्रबंधक लैंगिक बराबरी के पक्षधर हैं, बल्कि वे अपने चैनलों की टीआरपी बढ़ाने के लिये महिलाओं को शोभा की वस्तु बनाकर पेश कर रहे हैं।
मीडिया में महिलाकर्मियों की संख्या से कहीं महत्वपूर्ण मुद्दा संपादकीय फैसलों में महिलाकर्मियों की भागीदारी है। भारत में लगभग सभी टेलीविजन चैनलों और समाचार पत्रों में संपादन एवं प्रबंधन के शीर्ष पदों पर पुरुषों का ही कब्जा है। एक-दो अपवादों को छोड़कर सभी चैनलों एवं समाचार पत्रों के संपादक पुरुष हैं। यहां तक महिला विषयक अनेक पत्रिकाओं के संपादक पुरुष ही हैं। अगर किसी अखबार-पत्रिका में संपादक के पद पर कोई महिला है भी तो उन्हें अपने पुरुष मालिक या प्रबंधक के निर्देशों का पालन करना होता है। जाहिर है कि किसी अखबार में क्या छपेगा और किसी चैनल से क्या प्रसारित होगा, इसके बारे में निर्णय निर्धारण में महिलाकर्मियों की भूमिका लगभग नगण्य है। यही नहीं, मीडिया में काम करने वाली ज्यादातर महिलाएं भी परंपरागत सोच की शिकार हैं या उन्हें अपनी सोच को पुरुषवादी बनाने के लिये विवश कर दिया गया है। यही कारण है कि वे मीडिया में महिला सशक्तिकरण के मुद्दों को प्रमुखता से प्रकाशित या प्रसारित किए जाने को लेकर मुखर नहीं होती हैं, बल्कि वे परंपरागत ढर्रे के तहत बिना सोचे-समझे काम करती जाती हैं।
प्रिंट मीडिया एवं महिलाएं
मुद्दे आप कोई भी अखबार उठा लें, गांवों में, खेत-खलिहानों में, परिवार में, नौकरी में, महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव की चर्चा, उससे लड़ने की आवश्यकता पर लेख/रिपोर्ट मिले या नहीं, सुंदरता बढ़ाने के उपायों पर विस्तृत लेख अवश्य मिलेंगे। मेधा पाटकर, किरण बेदी की चर्चा हो या नहीं, ऐश्वर्य राय, लारा दत्ता आदि का गुणगान अवश्य मिल जायेगा। प्रगतिशील और आंदोलनी तेवर वाली स्त्रियां, आधुनिक विचारधारा वाली, अन्याय और शोषण के खिलाफ आंदोलन करने वाली, सड़कों पर नारे लगाते हुए जुलूस निकालने वाली, धरना देने वाली, सभाएं और रैलियां करने वाली, समाचार-पत्रों में महिला अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाली, कल-कारखानों और खेतों में काम करने वाली, पुलिस, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, प्रशासन में ईमानदारी के साथ काम करने वाली स्त्रियों की जितनी चर्चा समाचार पत्रों में होती है उससे कई गुणा अधिक चर्चा देह एवं अपने सौंदर्य की तिजारत करने वाली अभिनेत्रियों एवं मॉडलों की होती है।
1999 में दो बड़े अंग्रेजी समाचारपत्रों का एक महीने तक विश्लेषण करने पर पाया गया कि प्रिंट मीडिया में महिलाएं अब भी सिर्फ हासिये की ही जगह पाती हैं। अधिकतर समाचारपत्र और पत्रिकाएं सिर्फ साप्ताहिक ‘महिला संबंधी पेज’ में ही महिलाओं के मुद्दों को उठाते हैं। मुख्य पेजों में महिलाओं की उपस्थिति आम तौर पर विज्ञापनों या हिंसा और सामाजिक घटनाओं के समाचारों के रूप में होती है। उदाहरण के तौर पर क्रिकेट के समाचार महिला मुद्दों की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक जगह पाते हैं। दरअसल समाचार पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले महिला संबंधी स्तंभों में जो नियमित सामग्री प्रकाशित होती है उसमें से अधिकतर तो ”स्त्रियां और अधिक सुंदर कैसे लगें?”- इस रहस्य को बताने और गुरों को सिखाने संबंधी होती है, जिसका उद्देश्य सीधे या घुमा-फिरा कर पितृसत्तात्मक जीवन मूल्यों के पोषण का ही रहता है। जो मुद्दे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में जगह पाते हैं, उनकी एक बानगी देखिए-
‘दाम्पत्य जीवन को स्त्रियां बेहतर कैसे बनाएं?’
‘पति को रिझाने के लिए पत्नी क्या करे?’
‘दाम्पत्य संबंधों की मधुरता पत्नी के आकर्षण पर निर्भर है’
‘पति के काम से लौटने पर पत्नी कैसी लगनी चाहिए?’
क्या ऐसे आलेख स्त्रियों के दिलो-दिमाग को पुरुष प्रधान व्यवस्था के खिलाफ खड़े कर सकते हैं? क्या इससे ऐसा संस्कार स्त्रियों में पैदा होगा कि वे पारिवारिक हिंसा और जुल्म के खिलाफ बगावत कर सकें? क्या यह उनके भीतर यह चेतना जगा सकती है कि अपनी बेटी और बहू के उत्पीड़न और शोषण के लिए वह भी जिम्मेदार है? क्या ऐसी सामग्री को पढ़कर कोई आधुनिका बेटे और बेटी में फर्क करना बंद कर देगी? क्या किसी नव-यौवना के भीतर इसके द्वारा यह एहसास पैदा हो सकता है कि स्त्रियां लगातार असुरक्षित क्यों होती जा रही हैं? स्त्रियां क्यों लगातार कम हो रही हैं? समाचार-पत्रों, मीडिया के अन्य माध्यमों, इतिहास, परंपरा, लोक व्यवहार आदि के द्वारा स्त्रियों को यह समझाने की कोशिश की जाती है कि उनका दैहिक सौंदर्य ही उनके अस्तित्व की सार्थकता की कसौटी है। यही कारण है कि नाखून रंगने के तरीके, मेहंदी और महावर रचाने की विधियां, कुमकुम और बिंदी के तरह-तरह के डिजाइन, घर की साज-सज्जा, रंग-बिरंगे परिधान, खाने के नए-नए व्यंजन आदि मुद्दों पर पृष्ठ रंगे होते हैं, दोपहर बाद की रेडियो और दूरदर्शन की सभाओं के यह स्थाई मुद्दे होते हैं। दादी-नानी, मां और बुआ की सीख भी यही समझाती है। दुनिया किस तेजी के साथ आगे बढ़ रही है और स्त्रियों की स्थिति किस प्रकार विषम से विषमतर होती जा रही है, इन सब पर स्तरीय सामग्री पढ़ने, सुनने और देखने को कम ही मिलती है। जब महिलाएं फुर्सत में होती हैं और घर-परिवार में समूह में बैठती हैं तो भी उनकी बातचीत रसोई या घर की चारदीवारी के मुद्दों का बहुत कम अतिक्रमण कर पाती हैं।
(जारी)
सुशीला कुमारी स्वतंत्र लेखिका हैं। ”आधी दुनिया का सच” नामक किताब के लिए उन्हें वर्ष 2006 में प्रतिष्ठित भारतेंदु हरिश्चन्द्र पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। उपरोक्त आलेख सुशीला की हाल में ही आई किताब ”अबला बनाम सबला” से लिया गया है। यह किताब दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी के वित्तीय सहयोग से प्रकाशित हुई है। सुशीला आईआईएमसी की छात्रा रह चुकी हैं। वे इन दिनों मधुबाला पर पुस्तक लिखने में व्यस्त हैं। सुशीला से संपर्क करने के लिए इनका सहारा ले सकते हैं- 09868793203, [email protected], [email protected]