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आओ संपादक संपादक खेलें

[caption id="attachment_17148" align="alignleft" width="71"]मृणालमृणाल[/caption]पिछले दिनों दिल्ली में चार महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पत्रकार संस्थाओं ने संस्थागत तौर से पैसा वसूल कर राजनीतिक दलों की खबरें छापने के नए चलन (पेड न्यूज) पर पत्रकारों और बड़े दलों के राजनेताओं के बीच सार्वजनिक विमर्श की शुरुआत की। पत्रकारिता को लोकतंत्र का महत्वपूर्ण पाया मानने वाले सभी लोगों की दृष्टि से आज ऐसा गंभीर विमर्श जरूरी है, जिसमें पत्रकारिता के अलावा उससे जुड़े बाजार और राजनीति के विवादास्पद, पर अचर्चित रिश्तों पर भी राष्ट्रीय दलों और इंडस्ट्री के नेताओं के साथ समवेत चर्चा हो।

मृणाल

मृणाल

मृणाल

पिछले दिनों दिल्ली में चार महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पत्रकार संस्थाओं ने संस्थागत तौर से पैसा वसूल कर राजनीतिक दलों की खबरें छापने के नए चलन (पेड न्यूज) पर पत्रकारों और बड़े दलों के राजनेताओं के बीच सार्वजनिक विमर्श की शुरुआत की। पत्रकारिता को लोकतंत्र का महत्वपूर्ण पाया मानने वाले सभी लोगों की दृष्टि से आज ऐसा गंभीर विमर्श जरूरी है, जिसमें पत्रकारिता के अलावा उससे जुड़े बाजार और राजनीति के विवादास्पद, पर अचर्चित रिश्तों पर भी राष्ट्रीय दलों और इंडस्ट्री के नेताओं के साथ समवेत चर्चा हो।

और फिर सभी पक्ष परस्पर दोषारोपण के बजाय एक साथ इस समस्या के ठोस हल खोजें। एकल रूप से तो कई लेख आ चुके थे, पर उनमें चर्चा प्राय: टुकड़ा-टुकड़ा या वयक्ति या संस्थान विशेष पर ही केंद्रित रही। इस बातचीत के दौरान उजागर होता गया कि यह व्याधि इक्का-दुक्का संस्थानों या सिर्फ भाषायी अखबारों तक सीमित नहीं है। पत्रकारिता-जगत में इसकी झलकियां कई दशक पहले ही मिलनी शुरू हो गई थी, जब कुछ पत्रकार पहले खेल और फिल्म-जगत फिर राजनीतिक दलों या उद्योग जगत से प्रच्छन्न प्रोत्साहन पाकर पैसे या भेंट लेकर खास लोगों, पार्टियों और उपक्रमों पर सकारात्मक खबरें लिखने को राजी हो गए। कालक्रम में कुछेक संस्थानों को लगा कि वे खुद इस बहती गंगा में हाथ क्यों न धोएं? चुनाव वापस थे और विश्वव्यापी मंदी की अभूतपूर्व मार से उबरने के लिए सभी हाथ-पैर मार रहे थे। इसलिए चुनावी विज्ञापनों को चुपचाप खबर का जामा पहनाने की विधि को संस्थागत रूप दे दिया गया। परिणाम था ‘पेड न्यूज’।

भारत में निवेशकों के खुश रखने के लिए सिर्फ मुनाफा बढ़ाने के लिए उत्पाद में मिलावट कराना और धंधई मानदंडों से ज्यादा आत्म-प्रचार को तवज्जो देना, आज लगभग हर क्षेत्र में है। लेकिन पत्रकारिता में ईमानदार तटस्थता, धंधई अनुशासन और उत्पाद की गुणवत्ता की आधारशिला संपादकीय होता है। उसके अधिकारों का अतिक्रमण न्यस्त स्वार्थों द्वारा झूठी खबरों को फैला कर लोकतंत्र के अगवा होने की राह खोल सकता है। पेशेवर पत्रकार इस अतिक्रमण पर कैसे चुप रह गए? इस सवाल का जवाब जटिल है।

आप बड़े अखबारों की प्रिंट लाइन देखें, उनमें आज कितने प्रधान संपादक ऐसे हैं, जो अखबार के मालिक या शेयर धारक नहीं, विशुद्ध पेशेवर पत्रकार हैं? बमुश्किल आधा दर्जन। घोर बाजारू प्रतिस्पर्धा के बीच स्वामित्व और संपादकीय के हित एकसार हो जाएं, तो जब पाठकों के सरोकारों और निवेशकों के आर्थिक हितों के बीच टकराव होगा, तो अंतिम फैसला अक्सर लक्ष्मी के पक्ष में ही जाएगा, सरस्वती के नहीं।

दो, हिंदी पत्रकारिता व्यवसाय नहीं, एक मिशन है, जिसका असंदिग्ध नेता संपादक ही है… जैसी बातें चाहे कितनी बार सुनी जाती हों, सच तो यह है कि मालवीय जी औ पराड़कर जी के वक्त में भी हिंदी के अधिकतर अखबारों का शुरुआती सांगठनिक ढांचा सामंती या व्यावसायिक घरानों की पूंजी की मदद से खड़ा किया गया। इस बात का बढ़ा गहरा असर भाषायी पत्रकारिता पर पड़ा है। अधिकतर बड़े दैनिकों में इस सदी की शुरुआत तक खलक सत्तारूढ़ दल का, मुलुक लाला जी का और हूकुम उनके विश्वस्त अमुक जी का होता था। और अंग्रेजी के संपादक तुलनात्मक रूप से हिंदी वालों से अधिक तेजस्वी, अधिक स्वतंत्र माने जाते थे, क्योंकि सत्तावान गुटों के साथ उनके करीबी और हंसमुख किस्म के वर्गगत रिश्ते थे।

पर नई सदी हर जगह बड़ा बदलाव ले आई। जो कभी किसी छोटे परिवार का मुखिया का चलाया कुटीर उद्योग थे, वे अखबार भी बड़े व्यवसाय का रूप लेते जा रहे हैं। अंग्रेजी के संपादक चुंकि अपेक्षया संपन्न थे, उनमें से ज्यादातर ने अपने अखबारों का स्वामित्व खरीद लिया या उसके भागीदार बन गए हैं। हिंदी  में यह नहीं हो पाया। वहां ‘अमुक जी’ की प्रजाति तो लुप्त हो गई, पर बढ़त बनाने को आतुर प्रतिस्पर्धी प्रतिस्ठानों ने अब अंग्रेजी अखबारों की देखादेखी अपने यहां भी ‘बिज’ स्कूलों से निकले विपणन विशेषज्ञ ला बिठाए हैं। उन्हें ही हिंदी भाषा या भाषायी अखबारों के बारे में अधिक जानकारी न हो, पर उनकी तनख्वाह ही नहीं, निर्णय क्षमता भी संपादकीय टोली से कहीं ऊपर ठहरते हैं। जब व्यवस्थापक ही भीतरखाने चोर से कहे चोरी कर और पहरुए से कहे कि तू आवाज लगा कि जागते रहो, तो खबरों पर विज्ञापन का और सच्ची प्रयोगधर्मिता पर ‘इवेंट कल्चर’ का तामझाम हावी होना, बिना संपादकीय से विमर्श किए खबर ड्रॉप करके अंतिम क्षणों में आए विज्ञापन पन्नों पर लगाना और प्रांतों में मनीजरों द्वारा सीधे स्ट्रिंगरों को कमीशन का वादा करके उनको हर जिले-कस्बे से विज्ञापन लाने का टार्गेट थमाना यह सब होगा ही।

अभी केंद्र सरकार की हिमायती समझे जाने वाले बड़े अखबार के किसी नए प्रांतीय संस्करण के शुभारंभ की खबर दिखी। सचित्र खबर के अलग-बगल में विकास के उजले सरकारी आंकड़ों के हवाले से प्रांत विशेष के मुख्यमंत्री की योग्यता की प्रशंसा में दो संपादकीय थे। एक आलेख संपादक का, दूसरा महाप्रबंधक का। पहला संपादकी प्रधान या स्थानीय संपादक के बजाय कंपनी के आला प्रबंधक का रखा गया, जिसमें उन्होंने इस विपक्षी दल शासित राज्य की मुफलिसी के लिए केंद्र में सत्तारूढ़ दल को जिम्मेदार माना और अपनी ओर से राज्य की तरक्की में हर तरह की मदद का भरोसा दिलाया। प्रबंधक महोदय की पीठ उनके उत्तम हिंदी ज्ञान के लिए जरूर ठोंकी जानी चाहिए, पर सवाल है कि ऐसा मैटर संपादकीय माना जाएगा या विज्ञापन? अखबार में लिखना-लिखाना (जैसा एक जमाने में पनामा सिगरेट का विज्ञापन कहता था) उम्दा बात है, पर यह भी बहुत जरूरी है कि हमारे पेशेवर मीडियाकर्मी समय रहते वर्तमान चलन के संभावित फलादेशों पर भी सोचें। जैसा कि दिवंगत राजेंद्र माथुर लिख गए हैं, ईमानदारी का कपड़ा पैबंद वाला हो या उनके नीचे एक बेईमानी का अस्तर हो, तो नहीं चल सकता।

माना कि हमारे प्रेस में हजार खामियां हैं, लेकिन आज जब देश की सभी पार्टियां कमोबेश एकचालकानुवर्ती बन चुकी हैं, महंगाई, विदेश नीति या घरेलू सुरक्षा पर चर्चा के वक्त प्रतिपक्ष बंटा और कमजोर निकलता है, बड़े घरों के दागी बेटे नौ सौ चूहे खा के पैरोल पा पब में मारपीट करते हैं या हनीमून मनाने मालदीप जाते दिख रहे हैं, तब आम आदमी के लिए भाषायी अखबार ही ऐसा मंच बचता है, जहां से उसे ईमानदार रिपोर्टिंग और खबरों की निर्मम तटस्थ पड़ताल आने की उम्मीद होती है।

अखबार अगर पाठकीय सरोकारों से ईमानदारी से जुड़ा हो, तो उसकी मार्फत देश की जनता को आज भी संबोधित किया, जगाया जा सकता है। एक हद तक यह काम कुछ गैर-सरकारी जनचेतना मंच या छोटे-मोटे नागरिक गुट कर रहे हैं, पर वे हमारे आगे साल भर हर सुबह ताजा दिक्कतों का संपादकीय विश्लेषण पेश नहीं कर सकते। वे देश के हर राज्य के बड़े घोटालों का सबूत समेत भंड़ाफोड़ और अदालती कार्रवाइयों का किस्तवार प्रकाशन और विश्लेषण करने की क्षमता भी नहीं रखते। इसलिए स्वतंत्रचेता अखबार जरूरी हैं, और यह भी उतना जरूरी है कि उनकी बिक्री की व्यवस्था चाहे जो करे उनका संपादन अभिव्यक्ति की आजादी का महत्व जानने वाले अनुभवी, कुशल और बाजार के आग्रहों के बजाय पाठकीय विवेक को सर्वोपरि रखने वालों द्वारा ही होता रहे।

एक शुभ लक्षण है कि अपने-अपने कारणों से ही सही, पत्रकारों के साथ राजनीतिक दल भी अपने दीर्घकालिक हितों की दृष्टि से पत्रकारिता के भीतरी क्षरण के खतरे पहचार रहे हैं। यह अच्छा है। विषाणु जिस प्रयोगशाला ने फैलाए हैं वहीं उसका अचूक प्रतिविष भी तैयार हो सकता है। साभार : जनसत्ता

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0 Comments

  1. Praveen Sharma

    March 21, 2010 at 1:59 pm

    Achcha blog he.

  2. Praveen Sharma

    March 21, 2010 at 2:08 pm

    Good.

  3. Praveen Sharma

    March 21, 2010 at 2:10 pm

    Good Article.

  4. Praveen Sharma

    March 21, 2010 at 2:26 pm

    में आपकी बातों से पूरा सहमत हू.
    प्रवीण शर्मा भरतपुर राजस्थान

  5. Animesh

    March 21, 2010 at 2:41 pm

    Nau Sau Choohey Khakey Billi Haj Ko Chali!

  6. brahmaveer singh

    March 21, 2010 at 7:36 pm

    sawal bahut bada hain..samadhan ki umeed utnee hi kam..patrakarita me peshevar log ghutan massoos kar rahe hain…jitna mrinal ji ne likha hain mujhe esa lagta hain ki ptrakarita me usse jyada giravat or ghatiya kism ki gandgi hain..lagbhag sabhi akhbaron ne cm or governmenton ke khilaf khabaren chhapna band kar di hain…akhbaron me hod hain jhukne ki…kon kitna government ko khush rakh sakta hain iski..jo ptrakaar government ke khilaf khabaren de rahe hain unhe shabasi nahee..noukri se nikalne ki dhamkiyan mil rahee hain…mrinaal ji ne lekh bahut achhha likha hain…achha hota agar ve yeh bata saktee ki imandar ptrakaron ko ab roji roti ke liye kya karna chahiye…kyo agar seth ki noukari karni hain to fir…kisi bhi seth ki kyo nahee..kam se kam ptrakarita ko ganda karne ka kalank to nahee lagega

  7. Akhilesh

    March 21, 2010 at 8:44 pm

    Hindustan me Paid News ka dhandha aapke regime me hi shuru hua tha madam. Kal tak aap jap Hindustan ke pradhan sampadad thi to ‘All is well’ tha. Aaj Hindustan me sab kharab chal raha hai. Kyunki aap waha nahi hai.
    अधिकतर बड़े दैनिकों में इस सदी की शुरुआत तक खलक सत्तारूढ़ दल का, मुलुक लाला जी का और हूकुम उनके विश्वस्त अमुक जी का होता था।
    Aapki yeh line mujhe kafi achchi lagi. Yaad hai madam Jab aap Shailbala samet Kai seniors ko Delhi me Hindustan se bahar ka rashta dikha rahi thi .Aap bhi Lala Ji ke kahne par yeh sara kam kar rahi thi. Is line me aapne apni aapbiti likhne ki imandar koshish ki hai. Aap Iske liye dhanyavad ke patra hai.
    Akhilesh, Dhanbad

  8. praneeta mishra

    March 22, 2010 at 6:06 am

    aapne hindustan me aisa kyon hone diya?log batate hain ki inhee mahaprabandhak se aapka dant kati roti ka rishta tha aur biz school ke inhin navnihalon par aap nihal rahti theen.chaliye ab aisa kah rahin hain to man lete hain jab aankh khul jaye tabhi sabera.bhagwan aapki mati sir bhrasht na hone de.

  9. Rohit Rohan

    March 22, 2010 at 6:15 am

    It is well written truth.

  10. Chandra Prakash Dwivedi

    March 22, 2010 at 6:40 am

    aj patrakar editor kam chor dalal jyada aj 60 % log patrkarita ki oot m gair kanuni kaam karte hai aaese patrakaro k liye sakht kanun banna chahiye ji patrakarita k pese ko badnaam karte hai

  11. virendra dangwal parth

    March 22, 2010 at 1:33 pm

    good article

  12. virendra dangwal parth

    March 22, 2010 at 1:38 pm

    good article

  13. virendra dangwal parth

    March 22, 2010 at 4:11 pm

    good article

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