”मुझसे ऐसे सवाल न करें जो आप मार्केट में बेचना चाहते हैं”— कार में बैठे एक वरिष्ठ नेता द्वारा माइक थामे टीवी न्यूज चैनलों के रिपोर्टरों से कहा गया ये वाक्य गौर करने लायक है। नेताजी की इस टिप्पणी में आज के मीडिया जगत की वह कड़वी सच्चाई छिपी है जो हममें से बहुत से पत्रकार स्वीकार नहीं कर पाते या नहीं करना चाहते। लेकिन वास्तविकता ये है कि ये अकेला वाक्य उस पूरी पत्रकारिता को कठघरे में खड़ा कर देता है जो आजकल टीवी न्यूज़ चैनलों में की जा रही है।
नेता ने जो कुछ कहा उसका सीधा सा मतलब यही निकलता है कि पत्रकार जो कुछ करते हैं वह दर्शकों को सूचित करने या उनकी जानकारी बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि उसके पीछे उनका मुख्य मक़सद “धंधा” होता है। कहने को कहा जा सकता है कि नेता ने चिढ़कर या मीडिया पर अपनी खीझ उतारने के मक़सद से ऐसी बात कही होगी और इससे मीडिया के प्रति उसकी रुग्ण भावना, ओछी मानसिकता ही प्रकट होती है। बहुत से लोगों को ये मीडिया का अपमान भी लगेगा। वैसे भी जिस नेता (जगदीश टाइटलर) ने ये उद्गार प्रकट किए वह पढ़ा-लिखा और आम तौर पर शालीन होने के बावजूद कोई दूध का धुला तो है नहीं।
सिख विरोधी दंगों में शामिल होने का गंभीर आरोप उसके सिर पर है। लेकिन अगर हम पूर्वाग्रहों को परे रखकर नेता के बजाय उसके कथन को गंभीरता के साथ देखें तो पता चलेगा कि दरअसल वह वही बात कह रहा था जो अरसे से सब जगह कही जा रही है। पिछले एक-डेढ़ दशक से लगातार कहा जा रहा है कि मीडिया बाज़ार का अनुगामी हो गया है, गुलाम हो गया है। आलोचक ही नहीं, स्वयं पत्रकार और आम दर्शक भी कहते देखे जा सकते हैं कि टीआरपी के पीछे भाग रहे न्यूज़ चैनल सिर्फ और सिर्फ मुनाफ़े के बारे में सोचते हैं, उन्हें सामाजिक सरोकार तो छोड़ दीजिए पत्रकारिता के मामूली तकाज़ों की परवाह तक नहीं रह गई है, वगैरा, वगैरा। लेकिन इस बार ये बातें कहने का अंदाज़ और मंच बदला हुआ था। सार्वजिनक स्तर पर किसी नेता ने पहली बार ऐसी बात कही है।
नेता के वाक्य में तीन शब्द महत्वपूर्ण हैं -सवाल, मार्केट और बेचना। इन शब्दों के साथ नत्थी कर दी गई है पत्रकार की नीयत। अब अगर तीनों शब्दों को नीयत के साथ जोड़कर पढ़ें तो सार ये निकलता है कि सवाल पूछने वाले पत्रकार की नीयत प्राप्त जवाब को मार्केट में बेचना होती है। अब देखा जाए तो ख़बरों को लाने, बनाने और दिखाने की इस पूरी प्रक्रिया में पत्रकार पत्रकार न होकर किसी फैक्ट्री की प्रोडक्शन यूनिट का वर्कर या सेल्समेन हो जाता है, क्योंकि वह घूम-घूमकर कच्चा माल जुटाता है और उसे इस तरह पकाता है कि वह मार्केट में धड़ल्ले से बिक जाए। ये लगभग दो दशक पहले पत्र-पत्रिकाओं को प्रोडक्ट बनाने से शुरू हुई कारोबारी प्रवृत्ति का अगला मुकाम है। इस प्रवृत्ति की शुरूआत प्रिंट मीडिया से हुई थी और फिर धीरे-धीरे दूसरे माध्यमों में फैल गई। आज ख़बरें प्रोडक्ट बनाई जा चुकी हैं और पत्रकारों का रूपांतरण सेल्समैन में कर दिया गया है या किया जा रहा है। यानी पत्रकार को प्रोफेशनल बनाने के नाम पर सेल्समैन बनाने का उपक्रम चल रहा था। लेकिन बात केवल पत्रकार भर की नहीं है, क्योंकि अगर वह सेल्समैन बना दिया जा रहा है तो ज़ाहिर है पत्रकारिता का भी बेड़ा गर्क हो रहा होगा और पत्रकारिता डूबेगी? इसलिए इस मुद्दे पर सभी को विचार करना चाहिए कि पत्रकारिता को धंधे में बदलने की ये प्रवृत्ति आख़िर हमें कहाँ ले जा रही है और अगर विराम ने लगाया गया तो इसका अगला पड़ाव क्या होगा।
हमारे पेशे में ही ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें पत्रकारिता के इस बदलते स्वरूप से कोई कष्ट नहीं होता। उन्हें पत्रकारिता को व्यापार और खुद को सेल्समैन कहलाने में भी कोई गुरेज नहीं होगा। कई तो खम ठोंककर मैदान में आ जाएंगे और इस प्रवृत्ति की तरफ़दारी भी करने लगेंगे। मगर ये लोग नहीं समझ पा रहे कि ये परिवर्तन उनसे और उनके पेशे यानी पत्रकारिता से क्या छीन रहा है। यह बदलाव पत्रकारिता से उसकी ताक़त और उसकी सत्ता छीन रहा है। यही वजह है कि एक नेता सरे आम पत्रकारों को दुत्कार देता है और कहीं उसका प्रतिरोध भी नहीं होता। हो भी कैसे जबकि आपने स्वीकार कर लिया है कि वह जो कह रहा है दरअसल हक़ीक़त बयान कर रहा है।
थोड़ी देर के लिए नेता को अगर नेता समझकर आप अगर माफ़ कर दें और ज़रा ये सोचें कि वे कौन से हालात हैं जिन्होंने आज उन जैसे लोगों को दसियों कैमरों के सामने इस तरह के कमेंट करने की हिम्मत दे दी। कहीं कुछ ऐसा घटा है जिसके चलते आता-जाता कोई भी आदमी न्यूज़ चैनलों पर एक लात लगाकर चल देता है। अगर कोई इसके लिए केवल पत्रकारों या न्यूज़ चैनलों को दोषी मानता है तो स्पष्ट है कि उसकी दृष्टि संकुचित है और वह सामाजिक-आर्थिक वातावरण में आए बदलाव को नज़रअंदाज़ कर रहा है। ये उदार आर्थिक नीतियों और बाज़ारवाद का परिणाम है। ये राजनीति के बाज़ार के सामने समर्पण कर देने का नतीजा है। आज के इस माहौल में अगर राजेंद्र माथुर और एस.पी. सिंह होते तो या तो वे भी वैसे ही अख़बार एवं चैनल चला रहे होते जैसे चल रहे हैं या फिर कहीं हाशिए पर पड़े होते। समय बदला है तो चीज़ें भी बदलेंगी ही। हम अतीत के बंधुआ नही हो सकते और न ही उसके गुणगान में लगे रह सकते हैं। वैसे भी अतीत उतना स्वर्णिम नहीं होता जितना हमें लगने लगता है और वर्तमान हमेशा बुरा नहीं होता। पत्रकारिता ने भी इस बीच बहुत से शिखर छुए हैं लेकिन क्या कोई इस बात से इंकार कर सकता है कि पत्रकारिता के मूल्यों में गिरावट आई है और उसने अपनी तासीर खो दी है।
हालाँकि थोड़ा विषयांतर हो रहा है मगर ये ज़रूरी बात भी अंत में जोड़ देनी आवश्यक है क्योंकि अकसर पत्रकारिता के पतन के संदर्भ में हिंदी चैनलों का ज़िक्र ही किया जाता है। ज़रूरी बात ये है कि नेता महोदय के मुखारविंद से उक्त शब्द किसी हिंदी चैनल के रिपोर्टर के सवाल के जवाब में नहीं झड़े थे। अँग्रेज़ी चैनलों के संवाददाताओं द्वारा पूछने और बार-बार पूछे जाने पर चिढ़कर नेता ने उक्त शब्दों को उच्चारा। नेता ने जवाब भी अंग्रेजी (don’t put those questions which you want to sale in the market) में ही दिया। लिहाज़ा हिंदी को हेय भाव से देखने वाले महानुभावों से निवेदन है कि इस पूरे प्रकरण को हिंदी और अँग्रेज़ी के भेदपूर्ण चश्मे से न देखें, बल्कि उसमें छिपे महत्वपूर्ण संकेतों को पढ़ने की कोशिश करें।