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साहित्य

क्या! जो टॉयलेट में घुसा था, वो पत्रकार था?

: मुजरिम चांद (अंतिम भाग) : डाक बंगले से थाने की दूरी ज्यादा नहीं थी। कोई 5-7 मिनट में पुलिस जीप थाने पहुंच गई। सड़क भी पूरी ख़ाली थी। कि शायद ख़ाली करवा ली गई थी। क्योंकि इस सड़क पर कोई आता-जाता भी नहीं दिखा। हां, जहां-तहां पुलिस वाले जरूर तैनात दिखे। छिटपुट आबादी वाले इलाकों में सन्नाटा पसरा पड़ा था। रास्ते में एकाध खेत भी पड़े जिनमें खिले हुए सरसों के पीले फूलों ने राजीव को इस आफत में भी मोहित किया।

दनपा

: मुजरिम चांद (अंतिम भाग) : डाक बंगले से थाने की दूरी ज्यादा नहीं थी। कोई 5-7 मिनट में पुलिस जीप थाने पहुंच गई। सड़क भी पूरी ख़ाली थी। कि शायद ख़ाली करवा ली गई थी। क्योंकि इस सड़क पर कोई आता-जाता भी नहीं दिखा। हां, जहां-तहां पुलिस वाले जरूर तैनात दिखे। छिटपुट आबादी वाले इलाकों में सन्नाटा पसरा पड़ा था। रास्ते में एकाध खेत भी पड़े जिनमें खिले हुए सरसों के पीले फूलों ने राजीव को इस आफत में भी मोहित किया।

उसने कोई गाना भी गुनगुनाया। पर बहुत धीमे से। थाने पहुंच कर राजीव ने थोड़ी राहत की सांस ली। यहां किसी ने उसके लिए अपशब्द भी नहीं उच्चारे न ही गालियां। बल्कि यहां उसके लिए संबोधन भी बदला हुआ था। ‘तुम’ या ‘तू’ से बदल कर यह पुलिस वाले ‘आप-आप’ पर थे। न सिर्फ ‘आप’ पर बल्कि यहां पुलिस वालों ने उससे चाय पानी के लिए भी पूछा। पानी तो उसने पी लिया पर चाय के लिए मना कर दिया। यहां उसे बिठाया भी कुर्सी पर गया था। फिर भी एन.एस.ए. की काली छाया यहां भी मंडरा रही थी। खुसफुसाहट में ही सही ‘राज्यपाल’ का सर्वेंट क्वार्टर में जाना यहां भी चरचा का विषय था।

एक दरोगा ने उससे सहानुभूतिपूर्वक कहा भी कि, ‘कहीं खेत-वेत में चले गए होते। राज्यपाल के अड्डे पर जाने की क्या जरूरत थी?’

वह क्या जवाब देता। चुप ही रहा।

अब सिर पर दोपहर सवार थी लेकिन उसके छूट पाने की कोई राह नहीं निकल पा रही थी। जाने क्या सोच कर वहां बैठे एक इंस्पेक्टर से जो कि लखनऊ से आया था और उससे थोड़ी-थोड़ी सहानुभूति भी जता रहा था, राजीव ने बिना किसी भूमिका के सीधे-सीधे कह दिया कि, ‘हो सके तो वायरलेस पर एस.पी. से छोड़ने के बारे में पुछवा लें।’

‘एस.पी. साहब आप को जानते हैं?’ इंस्पेक्टर ने नरमी से पूछा।

‘मैं तो यह भी नहीं जानता कि यहां एस.पी. कौन है?’ राजीव ने साफ-साफ बताते हुए कहा, ‘तो कैसे कह दूं कि वह मुझे जानते हैं।’

‘फिर मैं कैसे पूछ सकता हूं?’ उसने उदास हो कर कहा।

‘आप एक बार फिर भी पूछवा लें।’ उसने जोड़ा, ‘बड़ी कृपा होगी।’

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‘मैं नहीं पूछ पाऊंगा।’ उसने बिलकुल साफ-साफ बता दिया।

राजीव चुप हो गया।

तभी थाने में 5-6 स्थानीय पत्रकारों की टोली आ गई। वह फोटोग्राफर भी साथ था। सभी पत्रकारों ने राजीव से आत्मीयता जताते हुए कहा, ‘आप घबराइए नहीं। जल्दी ही कुछ इंतजाम हो जाएगा।’

‘आपके साथ कोई बदसुलूकी तो नहीं की इन लोगों ने?’ पुलिस वालों की ओर इंगित करते हुए एक बुजुर्ग पत्रकार ने राजीव से पूछा।

‘नहीं साहब, हम लोगों ने सम्मान सहित इनको बिठा रखा है!’ एक दरोगा बोला, ‘हम लोगों का वश चलता तो इन्हें छोड़ भी देते। पर क्या करें ऊपर का आदेश है। बेबस हैं हम लोग।’ उसने जोड़ा, ‘यह भी कोई जुर्म है?’

‘भाई साहब, सच बताइए कोई दिक्कत तो नहीं हुई?’ एक नया पत्रकार बोला।

‘नहीं यहां थाने में तो कोई बदसुलूकी नहीं हुई।’ राजीव बोला, ‘पर डाक बंगले में थोड़ी नहीं, ज्यादा बदसुलूकी हुई।’

‘अब वहां साहब पी.ए.सी. वाले थे। बाहर की और फोर्स थी। हम लोग नहीं थे।’ एक दरोगा बोला, ‘तो हम लोग क्या कर सकते थे!’

‘घबराइए नहीं भाई साहब।’ एक पत्रकार बोला, ‘पी.ए.सी. हो या मिलेट्री, सबको निपटाएंगे। पर पहले आपको यहां से छुड़ाने का बंदोबस्त हो जाए। बस।’

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‘आप लोगों ने लखनऊ से आए प्रेस वालों को मेरे बारे में बताया कि नहीं?’ राजीव ने कहा, ‘वह लोग कम से कम राज्यपाल पर दबाव तो बना ही सकते हैं।’

‘लखनऊ वालों को जाने दीजिए भाई साहब। हम लोग काफी हैं।’ एक दूसरा पत्रकार सीना ठोंकते हुए बोला।

‘अरे नहीं बता तो दीजिए ही।’ राजीव ने जोर देकर कहा।

‘तो भाई साहब, जानिए कि लखनऊ वालों को भी बता दिया गया है।’ वह पत्रकार क्षुब्ध होता हुआ बोला, ‘पर वह लोग बोले कि पहले कवरेज कर लें, फिर देखते हैं।’

‘ऐसा कहा!’ राजीव चौंकते हुए बोला, ‘हमारे फोटोग्राफर को भी बताया?’ राजीव अफनाया हुआ बोला।

‘हां, पर वह भी कवरेज में हैं।’ वह पत्रकार बोला, ‘बल्कि वह तो कुछ बोला भी नहीं।’

‘गजब है यह तो!’ राजीव बोला, ‘यकीन नहीं होता।’

‘लेकिन इस बात पर तो यकीन कीजिए कि हम लोग पूरी तरह आपके साथ हैं।’ वह पत्रकार बोला।

‘देखिए राजीव जी, आप घबराइए बिलकुल नहीं।’ एक दूसरा पत्रकार जो अभी तक चुप था बोला, ‘हम लोग इस घटना के विरोध में कवरेज छोड़ दिए हैं। एक भी स्थानीय पत्रकार कवरेज नहीं करेगा! यह बात डी.एम. सहित पूरे प्रशासन को बता दी गई है।’ वह बड़े उत्साह से बोला, ‘कवरेज को गोली मार कर हम लोगों ने तीन टीम बनाई है। एक टीम यहां आपके साथ थाने में रहेगी। दूसरी टीम डी.एम. को लगातार फालो कर रही है और तीसरी टीम मंच के पास खड़ी है। मंच पर पुलिस वाले न सूचना दे रहे हैं न ही किसी को जाने दे रहे हैं।’ वह बोला, ‘तो भी हमारी तीसरी टीम वहां मंच के पास खड़ी है। राज्यपाल मंच से ज्यों उतरेंगे, त्यों वह टीम राज्यपाल को घेर लेगी। फिर प्रशासन की सारी कलई खोल देंगे।’

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‘राज्यपाल को मेरे साथ हुई बदसुलूकी के बारे में भी बताइएगा। और यह भी कि मुझ पर यह लोग एन.एस.ए. लगाए जाने की बात कह रहे हैं।’ राजीव ने बताया।

‘लगाया तो नहीं है अभी?’ एक पत्रकार ने किसी दरोगा से पूछा, ‘क्या एफ.आई.आर. दर्ज हो गई है?’

‘अभी तो कोई लिखत-पढ़त नहीं हुई।’ दरोगा बोला, ‘अभी तो इन्हें सिर्फ बैठाए रखने का आदेश है।’

‘तो ठीक है, अभी लिखत-पढ़त करिएगा भी नहीं।’

फिर पत्रकारों की यह टोली वहीं थाने में मजमा लगा कर बैठ गई। थोड़ी देर में उनके लिए चाय बिस्किट भी आ गए। राजीव ने बिस्किट तो ले लिए पर चाय लेने से मना कर दिया।

थोड़ी देर बाद एक लंबी जम्हाई लेने के बाद एक दरोगा से राजीव ने थाने में रखे एक तख्त की ओर इंगित करते हुए कहा कि, ‘वहां थोड़ी देर लेट जाऊं क्या?’ उसने जोड़ा, ‘पूरा बदन टूट रहा है।’

‘हां-हां लेट जाइए।’ दरोगा बोला।

राजीव ने तख्त पर जाकर कोट उतार कर सिरहाने रख दिया और लंबा लेट गया।

थाने में वायरलेस कोई न कोई सूचना लगातार उगल रहा था। राजीव ने एक बार फिर एस.पी. से वायरलेस पर अपने छोड़े जाने के बाबत दरोगा से पूछने के लिए कहा। और यह भी कहा कि एस.पी. न मानें तो लखनऊ में डी.जी.पी. या होम सेक्रेटरी को इस बारे में सूचना बतवा दें। यह दोनों मुझे अच्छी तरह जानते हैं। और कि यह लोग जरूर छोड़ने के लिए कह देंगे। लेकिन दरोगा ने इस पर असमर्थता जता दी। बोला, ‘ज्यादा से ज्यादा हम एस.पी. साहब से पूछ लेते हैं।’ कह कर उस ने एस.पी. को दो-तीन बार काल कर राजीव को छोड़े जाने के बाबत पूछ लिया। उधर से कहा गया कि, ‘इस बारे में थोड़ी देर में बता दिया जाएगा।’ सुन कर राजीव की जान में जान आई। फिर कोई हर दस मिनट में राजीव वायरलेस पर यह बात पुछवाने लगा। लेकिन जवाब में हर बार सिर्फ शब्द भर बदल जाते पर ध्वनि वही होती कि, ‘थोड़ी देर बाद में बता दिया जाएगा।’ और जब इस बाबत वायरलेस मैसेज ज्यादा हो गया तो उधर से लगभग डांटते हुए कहा गया कि, ‘आइंदा सेट पर इस बारे में कोई बात नहीं की जाए!’ सुनकर दरोगा तो कांप गया कि अब उसकी ख़ैर नहीं है।

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राजीव भी उदास हो गया।

थोड़ी देर बाद राजीव को जाने क्या सूझा कि वह बड़बड़ाने लगा। उसके इस बड़बड़ाने में पूरा पुलिस सिस्टम समा गया। वह लगभग चिल्लाने लगा कि, ‘बताइए ब्रिटिश रूल चला रखा है। किसी का टट्टी-पेशाब भी जुर्म हो गया है।’ वह बोलता जा रहा था, ‘फिर कोई जबरदस्ती तो मैं डाक बंगले में घुसा नहीं था!’ राजीव का बड़बड़ाना जब ज्यादा हो गया और दो-तीन स्थानीय पत्रकार भी उसके साथ शुरू हो गए तब एक दरोगा बड़ी सर्द आवाज में बोला, ‘नाहक हम लोगों पर आप लोग गुस्सा उतार रहे हैं। मामला अधिकारी लेबिल का है। गुस्सा भी उन्हीं लोगों पर उतारिएगा!’

बात राजीव को भी ठीक लगी। सो वह चुप लगा गया। तभी हेलीकाप्टर की गड़गड़ाहट सुनाई दी। थाने के लोग भी बाहर निकल गए। हेलीकाप्टर देखने। जरा देर बाद हेलीकाप्टर पास के मंडी समिति परिसर में उतर गया। ऐसी सूचना वायरलेस पर दी गई। बताया गया कि फिल्म कलाकार दिलीप कुमार आ गए हैं और समारोह स्थल की ओर जा रहे हैं।

राजीव दिलीप कुमार का आना सुन कर बेचैन हो गया। पुलिस वालों से बोला, ‘इसी के लिए तो मैं यहां आया था।’ उसने पुलिस वालों से रिक्वेस्ट की कि, ‘थोड़ी देर के लिए उस पर यकीन कर उसे छोड़ दें।’ वह बोला, ‘दिलीप कुमार से इंटरव्यू करके मैं तुरंत वापस चला आऊंगा। फिर आप लोग एन.एस.ए. क्या एन.एस.ए. का बाप लगा दीजिएगा!’ राजीव लगातार यही बात दुहराता रहा। बल्कि एक स्थानीय पत्रकार ने कहा भी कि, ‘बतौर जमानत हम दो-तीन लोग राजीव जी की जगह बैठ जाते हैं। लेकिन इन्हें थोड़ी देर के लिए चले जाने दीजिए !’

‘यह फिल्मी लोगों का बहुत अच्छा इंटरव्यू लेते हैं, कल आप लोग भी पढ़िएगा। बहुत मजा आएगा!’ एक दूसरे पत्रकार ने भी कहा। पर पुलिस वाले, ‘नौकरी चली जाएगी!’ सूत्र वाक्य बोलते रहे और राजीव को बिना किसी आदेश के एक सेकेंड के लिए भी छोड़ने को तैयार नहीं हुए।

राजीव कुढ़ कर रह गया।

तभी थाने के सामने वाली सड़क से दिलीप कुमार का काफिला गुजरा। और राजीव ‘कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे’ की सी स्थिति में थाने में किसी तोते की तरह फड़फड़ाता रहा। गोया पिंजड़े में कैद हो! वह फिर से तख्त पर लेट गया। लेटे-लेटे उसने एक स्थानीय पत्रकार को बुलाया। कुछ पैसे देते हुए बोला किसी पी.सी.ओ. से लखनऊ होम सेक्रेटरी को फोन कर के सारी स्थिति बता दीजिए।’ उसने जोड़ा, ‘कोई और चारा नहीं है।’ कह कर उसने फोन नंबर भी बताया।

‘होम सेक्रेटरी मुझसे बात करेंगे भला?’ पत्रकार उदास होता हुआ बोला।

‘हां भई, बिलकुल करेंगे।’ राजीव ने कहा, ‘बहुत भले आदमी हैं। वह सबसे आसानी से बात कर लेते हैं। और फिर कोई दिक्कत हो तो आप उनके स्टाफ से मेरे बारे में बता दीजिएगा। बात हो जाएगी।’

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‘छोड़िए भाई साहब, थोड़ी देर में सब ठीक हो जाएगा। लखनऊ दिल्ली की कोई जरूरत नहीं है।’ एक दूसरा पत्रकार बोला, ‘थोड़ा समय तो दीजिए हम लोगों को!’

‘और फिर राज्यपाल के बारे में होम सेक्रेटरी तो क्या चीफ सेक्रेटरी भी कुछ नहीं कहेंगे।’ इंस्पेक्टर बोला, ‘यहीं राज्यपाल से माफी वाफी मांग कर मामला निपटा लीजिए!’ उसने जोड़ा, ‘वैसे भी प्रेसीडेंट रूल में गवर्नर राज चल रहा है। किस की हिम्मत है गवर्नर के मामले में टांग अड़ाने की?’

राजीव फिर चुप हो गया।

‘आना तो यार आमिर ख़ान को भी चाहिए था।’ एक पत्रकार उदास होता हुआ बोला।

‘क्यों?’ एक पुलिस वाला खटका लगाता, तंबाकू ठोंक कर खाता हुआ बोल बैठा, ‘वह भी क्या दिलीप कुमार की तरह निठल्ला बैठा है जो दौड़ा चला आएगा?’ वह बोला, ‘उसके पास तो फिल्मों की लाइन लगी पड़ी है। तो वह क्यों आएगा यहां?’

‘इसलिए कि वह यहीं का रहने वाला है।’ पत्रकार बोला, ‘अभी भी उसका घर यहां है। उस के ग्रैंड फादर नासिर हुसैन ख़ान तो कभी कभार आते भी हैं।’ वह बोला, ‘तभी तो डिग्री कालेज के लिए दो लाख रुपए आमिर ख़ान ने भिजवाए हैं। मंच से इस बात की एनाउंसमेंट भी हुई है।’ वह बोला, ‘समझे महाराज!’

‘अच्छा!’ कह कर वह पुलिस वाला विस्मित हो गया। पर आमिर ख़ान प्रसंग जल्दी ही बिसर गया।

हां, थाने में पुलिस वालों की अलग और पत्रकारों की अलग पर मिली-जुली खटर-पटर फिर भी जारी थी। तरह-तरह की। दिलीप कुमार की, उनकी फिल्मों की, उनकी हिरोइनों की, उनकी सख़्ती, उन के ट्रेजिडी किंग होने और इस सबसे भी ज्यादा उनके ‘लीगी’ होने, उन के निःसंतान होने और उनकी दूसरी शादी तक की चरचाओं-बखानों से पूरा थाना गमगमा रहा था। समूचे थाने में दो ही गूंज थी। एक वायरलेस की, दूसरी दिलीप कुमार की।

निःशब्द था तो सिर्फ राजीव। आहत और अपमानित। अफनाता और छटपटाता हुआ।

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वह मन ही मन दिलीप कुमार से पूछे जाने वाले सवालों की फेहरिस्त में उतरता हुआ उनसे दिल्ली में हुई पहली मुलाकात की यादों में डूब गया। उनकी कलफ लगी उर्दू और ठसके में डूबी अंगरेजी की याद ने हालांकि उसे बोर किया फिर भी उनकी अदाकारी, उनका अंदाज और उनकी खुली बातें उसे उनसे मिलने के लिए फिर अकुलाने लगीं। पर कोई भी कोशिश अब उसे बेमानी जान पड़ी।

बेमानी ही था थाने में तख्त पर उसका इस तरह से लेटना भी! वह पछता रहा था सुबह-सुबह नींद ख़राब कर इस तहसीलनुमा कस्बे में आ कर। इस तरह बेवजह अपमानित और आहत होकर। वह खौल रहा था और सवाल पूछ रहा था। अपने आप से ही कि अगर दिलीप कुमार से एक इंटरव्यू और करने की तमन्ना नहीं की होती तो क्या आप के कॅरियर की कोई कलगी टूट कर समुद्र में डूब कर खारी तो नहीं हो गई होती? पूछ यह भी रहा था कि इस तरह अपमानित और आहत होकर आप के व्यक्तित्व का शीशा जिस कसैलेपन से टूटा है उसकी सरगोशी में सिर उठा कर आप चल भी सकेंगे? क्योंकि शहरे लखनऊ आप बाद में पहुंचेंगे, आप की यह अपमान-कथा पहले पहुंचेगी। क्या पता कवरेज में जुटे किसी जांबाज ने यह अपमान कथा मय क्षेपक और रूपक कथाओं के पठा भी दी हो! फिर किस-किस को और क्या-क्या जवाब देंगे आप?

क्या पता?

अभी तो वह यही सोच कर सन्न था कि फर्जी आरोप के तौर पर ही सही खुदा न खास्ता जो उस पर एन.एस.ए. मढ़ ही दिया गया तो वह आख़िर करेगा क्या? उस पर तो जो बीतेगी, बीतेगी ही, उसके परिवार पर क्या बीतेगी? बीवी और बच्चे कैसे दिन गुजारेंगे। इस यातना कथा को वह कैसे और कितने दिन बांचेगा।

उसने सोचा। और बारहा सोचा।

हिसाब लगाया एन.एस.ए. की प्रक्रिया में गुजरने वाले दिनों का। अदालतों में खर्च होने वाले पैसों का। और ख़ुद पर जबरिया चस्पा हो गए इस अपमान की आंधी का। थाना प्रपोज करेगा एस.पी. को एन.एस.ए.। एस.पी. डी.एम. को। फिर डी.एम. प्रशासन को। शासन हाईकोर्ट में एडवाइजरी बोर्ड को एप्रूवल के लिए भेजेगा। इतने में ही तीन-चार महीने तो कम से कम लगेंगे। फिर तारीख़, पेशी का कोर्स। और फिर वह कोई माफिया या पैसे वाला तो है नहीं कि अदालतों में लाखों रुपए सुंघा कर अपने ऊपर लगे एन.एस.ए. को रिजेक्ट करवा लेगा, तमाम आरोपों की पुष्टि के बावजूद! वह तो शायद कायदे का वकील भी नहीं खड़ा कर पाए। और क्या पता बिन अपराध के एन.एस.ए. में वो क्या कहते हैं सरकारी हिंदी में कि कहीं ‘निरुद्ध’ न कर दिया जाए!

तो?

इस ‘तो’ का उसके पास कोई जवाब नहीं था। और एन.एस.ए. की काली छाया उसके मन में ऐसे टहल रही थी गोया कोई विषधर सर्प टहल रहा हो। और लगातार डस लेने की धौंस दे रहा हो। वह इस सर्पदंश से कैसे बचे? क्या करे कि यह एन.एस.ए. की काली छाया मन से निकाल बंगाल की खाड़ी में डाल दे! पर कोई तरकीब, कोई राह उसके पास तुरंत तो नहीं ही थी। न कोई इसका जवाब!

लेकिन उसने देखा कि पुलिस वालों से राजीव की गिरफ्तारी का जवाब एक वकील मिमिया कर ही सही मांग रहा था। मिमिया कर ही कचहरी से ले कर थाने तक अपनी बात कहना भले ही सही क्यों न हो! और फिर जैसे न्याय नहीं भीख मांग रहे हों के अंदाज में ‘हुजूर-हुजूर’ कह कर कोर्निश बजाना तहसील स्तर के वकीलों की शायद नियति बन गई है। नहीं, शायद गलत सोच गया राजीव। तहसील स्तर के ही वकील क्यों? क्या हाईकोर्ट के वकील नहीं मिमियाते हैं? मिमिया कर ही न्याय की भीख या अपराधी की जमानत दांत निकाल कर नहीं मांगते हाईकोर्ट के वकील? भीख का कटोरा भर जाए तो भी और जो न भरे तो भी हिनहिनाना वह नहीं भूलते ‘मी लार्ड’ के आगे। फर्क सिर्फ इतना भर होता है कि तहसील वाला वकील हिंदी में ही-ही कर हिनहिनाता और मिमियाता है तो हाईकोर्ट वाला वकील अंगरेजी में हिनहिनाता और मिमियाता है। हिंदी में लोग देख लेते हैं। और अंगरेजी में नहीं देख पाते। बस! यह ही एक फर्क है।

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तो यहां थाने में भी यह वकील साहब ही-ही करते हुए हिनहिनाते हुए मिमिया रहे थे कि, ‘हुजूर आप हमें सिर्फ इतना बता दें कि एक ‘प्रतिष्ठित’ आदमी को यहां घंटों से किसलिए बैठाए हैं?’ वह सवाल पर सवाल धरे जा रहा था, ‘आख़िर जुर्म क्या है?’
‘जुर्म यह है कि इन्होंने वी.वी.आई.पी. सिक्योरिटी तोड़ी है।’ बड़ी देर से इस वकील को घूर रहे एक दरोगा ने बड़ी बेरुखी से जवाब दिया।

‘कौन सी धारा लगाई है आपने? और क्या एफ.आई.आर. लिखी गई?’ वकील ने मिमियाहट में थोड़ी कंजूसी बरतते हुए पूछा।
‘एन.एस.ए. लगने की बात है। एफ.आई.आर. अभी नहीं लिखी गई है। बड़े अधिकारी जब आएंगे तभी उनके निर्देश पर लिखी जाएगी।’ दरोगा फिर बेरुखी से बोला, ‘मामला गवर्नर साहब का है।’

‘गवर्नर क्या नागरिक नहीं होता?’ सवाल किया राजीव ने।

‘आप हुजूर जरा चुप रहें।’ वकील राजीव के कंधे पर हाथ रखता हुआ दरोगा से बोला, ‘आई.पी.सी. के बारे में आप जानते हैं?’

‘हां, थोड़ा बहुत!’ वह दरोगा जरा दब कर बोला।

‘नहीं जानते आप। न आप, न आप के अफसरान!’ वकील फिर दरोगा पर भारी पड़ता हुआ बोला।

‘आप ही बता दें।’ दरोगा वकील की बातों में अब दब रहा था।

‘हम आपको क्यों बताएं?’ वकील बोला, ‘अच्छा चलिए, थोड़ी देर में यह भी बता देंगे। पर पहले आप यह बताएं कि इन्होंने वी.वी.आई.पी. सिक्योरिटी तोड़ी। चलिए यह माना। पर यह बताएं कि गवाहा कौन हैं?’

‘अफसरान होंगे।’

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‘कौन से अफसरान। नाम बताएं।’

‘नाम हमको नहीं मालूम। अफसरान आएंगे तो बताएंगे।’

‘चलिए ठीक।’ वकील ने जोड़ा, ‘दूसरे यह बताइए कि इनके पास से क्या-क्या चीज बरामद हुई?’

‘क्या मतलब?’

‘आपने तो इन्हें अरेस्ट किया है?’

‘हां, मौका ए वारदात से।’

‘वही तो पूछ रहा हूं कि इनके पास से क्या-क्या बरामद हुआ?’

‘क्या मतलब है आपका?’

‘यही कि इनके पास कितना पैसा था?’

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‘पैसे की तलाशी नहीं हुई है?’

‘छोड़िए। पैसा शायद ज्यादा इनके पास होगा भी नहीं। क्यों?’ कहकर उसने राजीव की ओर देखा। तो राजीव ने उसकी सहमति में सिर हिला दिया। फिर मुसकुराया। लेकिन वकील ने सवाल फिर दुहराया, ‘बताइए कि क्या बरामद हुआ इनके पास से?’

‘आप क्या जानना चाहते हैं?’ दरोगा बिदका, ‘सवाल आप अफसरान आएं तो उनसे करिए!’

‘आएंगे तो उनसे भी करूंगा। लेकिन रोक चूंकि आप लोगों ने रखा है अफसरों ने नहीं, वह भी बिना एफ.आई.आर. के तो पूछना भी आपसे ही पड़ेगा।

‘पूछिए!’ दरोगा संक्षिप्त सा बोला।

‘तो बताइए कि इनके पास से क्या बरामद हुआ?’

‘क्या बरामद करवाना चाहते हैं आप?’

‘हम क्यों बरामद करवाएंगे।’ वकील हंसता हुआ दरोगा से बोला, ‘हुजूर आप बड़े भोले हैं। मैं सिर्फ इतना सा जानना चाहता हूं कि क्या इनके पास से कोई हथियार मसलन चाकू, पिस्तौल, कट्टा, बंदूक क्या बरामद हुआ है?’

‘ऐसे किसी भी हथियार की बरामदगी इनके पास से हमें नहीं बताई गई है।’ दरोगा खीझ कर बोला, ‘प्रेस रिपोर्टर हथियार लेकर क्यों जाएगा वहां?’ वह हंसते हुए बोला, ‘यह तो दिशा मैदान के लिए गए थे। ऐसा ही बताया गया है।’

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‘राइट हुजूर!’ वकील भी मिसरी घोलता हुआ बोला, ‘यही तो मैं जानना चाहता था। छोटी सी बात थी। और आप कोसों टहला दिए।’ वकील बोला, ‘अब इनको छोड़ दीजिए। बाइज्जत !’

‘ऐसे कैसे छोड़ दें?’ दो-तीन दरोगा एक साथ भड़के।

‘इसलिए कि इनके खिलाफ कोई वजह नहीं है आपके पास कि इन्हें रोकें। एक ‘परतिष्ठित’ आदमी को रोकें।’

‘देखिए वकील साहब!’ एक दरोगा बोला, ‘आप बहुत बड़े कानूनची हैं। जानता हूं। पर जिसने वी.वी.आई.पी. सिक्योरिटी तोड़ी हो, जिस पर एन.एस.ए. लगने की बात चल रही हो, उसे ऐसे कैसे छोड़ दें?’ वह बोला, ‘इनको तो अब हाईकोर्ट से ही छुड़ाइएगा!’

‘हम तो हुजूर इनको यहीं से छुड़ाएंगे।’ वकील बोला, ‘इसीलिए आपसे पूछ रहा था कि आप आई.पी.सी. जानते हैं कि नहीं?’ वकील एक किताब के पन्ने खोलता हुआ बोला, ‘यहां देखिए। ठीक से पढ़ लीजिए !’

‘यह तो अंगरेजी में है!’ दरोगा देख कर बिदका।

‘अच्छा!’ वकील हंसा, ‘अभी इसकी टूटी-फूटी हिंदी आपको हम बताए देते हैं बाकी अपने अफसरान के लिए यह किताब रख लीजिए। उन्हें भी दिखा दीजिएगा।’ वकील अब दरोगा के अंगरेजी की अज्ञानता का मजा ले रहा था।

‘बताइए कि क्या है इसमें?’ दरोगा थोड़ा चढ़ता हुआ वकील से बोला।

‘यही कि वी.वी.आई.पी. सिक्योरिटी कोई भूत या तोप नहीं होती। और जो कोई भूले-भटके अनजाने में वी.वी.आई.पी. सिक्योरिटी तोड़ देता है या उस परिसर में जहां वी.वी.आई.पी. रहता है या ठहरता है, वहां बिना अनुमति चला जाता है तो भी कोई बहुत बड़ा अपराध नहीं कर देता!’ वकील बोला, ‘यह अपराध है पर कागनिजेबिल अफेंस है। इसे ज्यादा से ज्यादा ‘क्रिमिनल ट्रेस पासर’ कह सकते हैं, बस! पर यह इतना छोटा अपराध है कि आदमी निजी मुचलके पर ही छोड़ा जा सकता है।’ वकील बोला, ‘आप की समझ में आए तो यूं ही छोड़ दीजिए जो न समझ आए तो लिखिए एफ.आई.आर. और भरवाइए इनसे निजी मुचलका फिर जाने दीजिए। पर जाने दीजिए!’ उसने फिर जोड़ा, ‘परतिष्ठित’ आदमी को इस तरह तंग मत कीजिए। जाने दीजिए। इनको कवरेज भी करना है!’

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दरोगा निरुत्तर था। और राजीव बिलकुल तनाव मुक्त। ऐसे जैसे उसके मन में सरसों के अनगिनत फूल खिले हों। सरसों ही क्यों मटर, अरहर, सरसों सभी के फूल!

वकील की जिरह बचकानी ही सही पर कानून को प्याज की तरह बेपर्दा करती हुई राजीव को ऐसे सुकून दे गई थी गोया तपती धरती पर मेघ बरसे!

उसने लपक कर वकील से हाथ मिलाया और पूरी गरमजोशी से। और दरोगा की तरफ मुख़ातिब होता हुआ बोला, ‘क्या अब भी एन.एस.ए. लगाएंगे आप और आपके अफसरान?’ बड़ी देर से चुप-चुप राजीव बोला, ‘हां, एन.एस.ए. लगा सकते हैं फिर भी आप।’

‘वह कैसे?’ वकील हड़बड़ाया।

‘ऐसे कि इनको, इनके अफसरान और गवर्नर को भी चाहें तो ले लें और चले जाएं दिल्ली। संसद का सत्र बुलवाएं।’

‘वह किसलिए?’ स्तब्ध दरोगा बोला।

‘आई.पी.सी. बदलने के लिए।’ राजीव ने तंज किया, ‘बदलें, न सही, एमेडमेंट ही करवा लें!’ वह बोला, ‘पर हो यह संसद में ही सकता है किसी थाने में नहीं।’

‘यह तो कोई बात नहीं है।’ दरोगा बोला, ‘अब अफसरान जब आएंगे तब उन्हीं से यह वकालत झाड़िएगा।’

‘आने दीजिए भाई साहब!’ एक पत्रकार राजीव को धीरज बंधाता हुआ बोला, ‘अब यह लोग कुछ कर भी नहीं सकते!’

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‘मतलब?’ राजीव चौंका।

‘यह कि पुलिस वालों की आदत होती है कि फांसने के लिए कट्टा, पिस्तौल, चाकू खुद ही रख कर फर्जी तौर पर बरामद दिखा देते हैं।’ वह बोला, ‘लेकिन अब ये ऐसा भी नहीं कर पाएंगे। जानते हैं क्यों?’

‘क्यों?’

‘क्योंकि इनकी सारी बातें यानी वाद-विवाद-संवाद मैंने इस टेप रिकार्डर में भर लिया है।’ वह बोला, ‘इसमें इन्होंने साफ तौर पर मंजूर किया है कि राजीव जी के पास से कोई भी हथियार बरामद नहीं हुआ है। और कि इन्होंने यह भी कहा है कि राजीव जी डाक बंगले में ‘दिशा मैदान’ के लिए गए थे। बात ख़त्म !’ उसने फिर दुहराया, ‘और यह सब कुछ टेप हो गया है।’ कहते हुए वह जैसे उछला।

‘लेकिन टेप को अभी लीगल एविडेंस के तौर पर मंजूरी नहीं है।’ खिसियाता और फीकी हंसी हंसता हुआ दरोगा बोला, ‘लेकिन हम लोग आपके राजीव जी को झूठ-मूठ क्यों फसाएंगे?’ उसने जोड़ा, ‘प्रेस वाले हैं यह तो हम लोग भी जानते हैं। कोई जुर्म नहीं किया इन्होंने यह भी मानते हैं। पर क्या करें, अफसरान का आदेश है।’ वह सांस छोड़ता हुआ बोला, ‘ड्यूटी तो बजानी ही है।’

‘आप अफसरों की ड्यूटी बजाने के लिए नियुक्त हुए हैं कि कानून की ड्यूटी बजाने के लिए?’ राजीव बोला, ‘पहले यह बताइए। बताइए कि अफसरों को खुश करने के लिए कानून हाथ में ले लेंगे?’

दरोगा चुप रहा।

वह अभी यह सब बतिया ही रहा था कि सायरन बजाता कारों का एक काफिला थाने के सामने से गुजरा। जाहिर है कि महामहिम राज्यपाल का काफिला था यह। थाने में वायरलेस पर भी यही संदेश आ रहा था कि, ‘महामहिम राज्यपाल हेलीपैड की ओर जा रहे हैं।’

‘चलो आफत गई समझो।’ एक सिपाही भुनभुनाता हुआ बोला, ‘हफ्ता भर से नरक कर दिया था।’

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‘कौन नरक कर दिया था?’ राजीव ने पूछा।

‘राजपाल और कौन!’ सिपाही भुनभुनाता हुआ सड़क की ओर जा ही रहा था कि हेलीकाप्टर की गड़गड़ाहट आसमान से धरती तक तारी हो गई।

राज्यपाल का हेलीकाप्टर उनको लेकर उड़ गया था।

अभी हेलीकाप्टर की गूंज पूरी तरह गायब भी नहीं हुई थी कि वायरलेस पर संदेश आने लगा कि, ‘हेलीपैड पर पुलिस फोर्स तुरंत फिर से भेजें।’ क्योंकि भीड़ वहां खड़े दिलीप कुमार वाले हेलीकाप्टर पर टूट पड़ी थी। हुआ यह था कि राज्यपाल का हेलीकाप्टर उड़ते ही पुलिस फोर्स वहां से हट गई। यह सोचे बिना कि एक और हेलीकाप्टर वहां खड़ा है। तो भीड़ यह सोच कर कि अब दिलीप कुमार भी आएंगे हेलीकाप्टर के करीब जमने लगी। वहां मौजूद दो सिपाहियों ने भीड़ से टोका-टाकी की तो भीड़ पथराव पर आमादा हो गई थी।

हेलीकाप्टर!

हां, हेलीकाप्टर की कुछ यात्राएं राजीव को भी याद आ गईं। कुछ मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों के साथ की तो कुछ चुनावी दौरों की। प्रशासन कैसे लापरवाही और मुश्किलें खड़ी करता है, यह उसने एक नहीं, दर्जनों बार, देखा ही नहीं, भुगता भी था। कई बार तो स्थितियां इतनी हास्यास्पद हुईं कि वह उन भाग-दौड़ और अफरातफरी के क्षणों में भी ठठा कर हंसने लगता तो लोग चौंक पड़ते।

जैसे कि एक बार एक संसदीय प्रतिनिधिमंडल के साथ राजीव गया। कोई तीन जगहों पर हुई वारदातों की जांच उस संसदीय प्रतिनिधिमंडल को एक ही दिन में करनी थी। अलग बात है कि जांच क्या सिर्फ मौका ए वारदात पर ‘माननीय सांसदों’ का प्रतिनिधिमंडल पहुंचता, पीड़ित पक्ष को सांत्वना देता। लच्छेदार भाषण झाड़ता और अचानक निष्कर्ष सुना देता। शुरू में वह ऐसे दौरों से चौंकता। क्योंकि वह देखता कि यह प्रतिनिधिमंडल सिर्फ कहने भर के लिए जांच करता। अमूमन तो रिपोर्ट और उसके निष्कर्ष तो पहले ही से तय रहते। प्वाइंट-दर-प्वाइंट। जिसको हिंदी में वह बिंदुवार कह कर लिखते। हां, मौका पर जा कर इतना भर जरूर कर देते कि उस रिपोर्ट को थोड़ा लोकल टच भी दे देते। बल्कि एक संसद सदस्य को तो खुलेआम बार-बार यह कहते वह पाता कि, ‘थोड़ा लोकल टच भी ले लेते!’ बाद में तो वह माननीय मंत्री भी बने। केंद्र में। लेकिन वह उन का ‘टच’ नहीं छूटा!

हां, तो वह संसदीय प्रतिनिधिमंडल उस बार दो हेलीकाप्टरों में चला। क्योंकि नेताओं को लगा कि रिपोर्ट को ‘लोकल टच’ देने के लिए प्रेस फोटोग्राफर भी ले लेना चाहिए। सो मय एक फोटोग्राफर और दो-तीन पत्रकारों के वह संसदीय प्रतिनिधिमंडल एक हेलीकाप्टर में रवाना नहीं हो सकता था और चूंकि वारदात की तीनों जगहें तीन छोर पर थीं सो हेलीकाप्टर भी जरूरी था। सो दो हेलीकाप्टर लिए गए।

तो एक जगह दो सांसदों सहित पत्रकारों वाला हेलीकाप्टर संयोग से हेलीपैड पर पहले पहुंच गया। जिसका कि नुकसान यह हुआ कि स्थानीय नेताओं के फूल माला का अधिकांश हिस्सा इस पहली खेप वाले हेलीकाप्टर यात्रियों के हिस्से आ गया। प्रेस टीम ना-ना करती रही पर कार्यकर्ताओं की टीम तो उत्साह में थी। ना-ना उसने सुनी नहीं और फूल माला पत्रकारों पर भी न्यौछावर कर दिए।

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हालांकि राजीव ने तब सोचा था उन कार्यकर्ताओं की पत्थर हो गई संवेदनाओं पर। और खीझ कर किसी नेता से पूछा भी था कि, ‘यह संसदीय प्रतिनिधिमंडल तो एक नौजवान को पुलिस द्वारा निरपराध मार दिए जाने की जांच करने आया है?’

‘हां, वह नौजवान अल्पसंख्यक था।’ हामी भरते हुए नेता जी बोले थे। और ‘अल्पसंख्यक’ शब्द पर उनका जोर जरा ज्यादा था।

हां, वह यह भी बताने लगे कि वह नौजवान उनकी पार्टी का कार्यकर्ता भी था। अब अलग बात है कि नेता जी यह बात भी झूठ बोल गए थे। क्योंकि एक तो वह किसी भी पार्टी का कार्यकर्ता नहीं था। दूसरे, थोड़ा बहुत उसका जुड़ाव था भी तो एक दलितों की दादा किसिम की पार्टी से था। तीसरे, और बड़ी बात यही थी कि उसकी हत्या एक लड़की के चक्कर में हुई थी। उसका लिंग तक काट लिया गया था। लेकिन चूंकि वह अल्पसंख्यक था सो अल्पसंख्यकों की ठेकेदार पार्टी चुप कैसे रहती भला? उसने इशू बना लिया। थाना घेरा, पथराव किया। पुलिस ने लाठीचार्ज किया तो थाना जलाने की कोशिश की। बस कहानी बन गई पुलिसिया अत्याचार की! वह भी अल्पसंख्यकों पर। सही यह भी था कि बाद में पुलिस भी पुलिसियापन पर उतारू हो गई। अत्याचार, अल्पसंख्यक और पुलिस! काफी था संसदीय प्रतिनिधिमंडल बुलाने के लिए!

तो भी राजीव बिदका नेताजी की बात पर। बोला, ‘नौजवान अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक। उसकी तो हत्या ही हुई न? वह भी पुलिस द्वारा?’

‘हां भाई। आप प्रेस वाले तो दिमाग चाट जाते हो!’ नेता जी बोले।

‘है क्या?’ राजीव ने तंज किया उनके दिमाग चाटने वाले संवाद पर। पर वे नेता जी कुछ समझे नहीं। उलटे पूछ बैठे, ‘क्या?’
राजीव ने मौके की नजाकत देखते हुए दिमाग वाले सवाल को टाल दिया। बोला, ‘जब किसी की बिलकुल अभी हुई हत्या की जांच करने आप लोग आए हैं तो इस गमगीन मौके पर फूल मालाओं वाला खुशी का इजहार आप लोगों को चुभता नहीं है?’
‘वह तो बाद की बात है।’ नेता जी बोले, ‘अभी जो इंकार कर दें फूल माला से तो यह बात बेचारे कार्यकर्ताओं को चुभ जाएगी। उनके उत्साह पर पानी फिर जाएगा!’

‘आप लोगों की संवेदनाओं की शिराएं क्या बिलकुल सूख गई हैं?’

‘यहां वेदना का क्या काम है?’ नेता जी बिदके।

‘काम तो वेदना का ही है।’ राजीव बोला, ‘पर मैं संवेदना की बात कर रहा था।’

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‘यह संवेदना क्या होता है?’ नेता जी खीझे, ‘वेदना, संवेदना आप लोग लिखिए-पढ़िए!’ वह बोले, ‘हम लोग भी इस झमेले में पड़ जाएंगे, बहुत सोचने विचारने में फंस जाएंगे तो राजनीति नहीं हो पाएगी।’ नेता जी बोलते जा रहे थे, ‘हम जानते हैं कि कार्यकर्ता की भावना क्या है और इसी से कार्यकर्ता जानता है कि हमारा नेता कौन है? बस! बाकी बात का कोई मतलब नहीं है।’ कहते हुए उन्होंने आंखों ही आंखों में इशारा क्या लगभग निर्णय दे दिया कि बात अब यहीं ख़त्म!

ख़ैर, यह बात होते हवाते राजीव कार्यकर्ताओं, नेताओं और मय फूल मालाओं के अपने एक साथी पत्रकार के साथ हेलीपैड से थोड़ी दूर खड़ी भीड़ में धंस गया। हेलीपैड जो एक निर्जन ऊसर पर बनाया गया था। उस ने मन ही मन तुक भिड़ाई ऊसर जमीन पर ऊसर नेता! सचमुच उस दूर-दूर तक फैले ऊसर के आस-पास कोई आबादी भी नहीं दिखी। ख़ैर, हेलीपैड से वह भीड़ में आ चुका था। नहीं, धंस चुका था। हां, उसने एक बात और हेलीकाप्टर पर से उतर कर आते वक्त नोट की कि उन सबके पीछे-पीछे तीन-चार कुत्ते भी दुम हिलाते हुए निर्विकार चले आए थे। कुत्ते निर्विकार होने की इस हद तक थे कि एक बार तो उसे शक हुआ कि कहीं यह कुत्ते भी तो उन सबके साथ हेलीकाप्टर से ही तो नहीं आए हैं? फिर उसने सोचा कि कहीं कार्यकर्ताओं के साथ स्वागतार्थियों में ही यह कुत्ते भी तो नहीं थे, वह अभी इन दोनों संभावनाओं पर गौर कर ही रहा था कि तभी आसमान पर हेलीकाप्टर फिर गड़गड़ाया। उसने देखा पुलिस और प्रशासन के लोग काफी सतर्क हो गए। भीड़ के चारों ओर मोटी रस्सियां लपेट कर ढेरों सिपाही ऐसे खड़े हो गए गोया वह भीड़ आदमी, औरतों और बच्चों की न होकर गाय, भैसों और बकरियों की हो। तभी दो सिपाही दौड़ कर दूसरे वाले हेलीपैड के पास जैसा कि हमेशा होता है, कुछ जला कर बड़ी सतर्कता से वहां से भाग लिए। हेलीकाप्टर जैसे-जैसे नीचे आता गया। भीड़ में उपस्थित कार्यकर्ता जन फुदकने लगे। हेलीपैड पर जाने के लिए कूदने लगे। लगभग छटपटाने की हद तक। फिर भी पुलिस वालों ने ढकेल कर सबको रस्सी में नाधे रखा। किसी मरकहे बैल की तरह!

राजीव ने देखा हेलीकाप्टर के हेलीपैड छूते ही तीन-चार कुत्ते जो शायद राजीव और दिल्ली से आए नेताओं के पीछे-पीछे भी आए थे, वहीं थे, इतनी फुर्ती और तेजी से सरपट हेलीपैड की ओर पूंछ पटकते हुए दौड़े कि एक बार तो लगा कि ये कुत्ते कहीं जान न दे बैठें। उसने सोचा कि ऐसा न हो और अपने साथी पत्रकार से यह बात थोड़ा जोर से बोल कर बताई भी। तो उसका साथी बोला, ‘मर जाएंगे भी तो क्या होगा? साले कुत्ते ही तो हैं!’ लेकिन फिर जैसे वह बोलते-बोलते ठिठका। कहने लगा, ‘हां एक गड़बड़ हो जाएगी जो ये साले कुत्ते मर जाएंगे तो!’

‘क्या गड़बड़ हो जाएगी?’ राजीव भी मजा लेते हुए बोला।

‘यही कि इनके लिए कोई संसदीय प्रतिनिधिमंडल नहीं आएगा।’ वह बोला, ‘जानते हैं क्यों?’

‘क्यों?’

‘क्योंकि ये कुत्ते साले अल्पसंख्यक नहीं हैं, न ही दलित!’ वह कह कर हंसा, ‘इनका खतना भी नहीं हुआ होगा!’

‘आपकी बात में दम तो है!’ राजीव बोला, ‘पर इसमें एक छेद आप ने छोड़ दिया। बहुत बड़ा छेद!’

‘क्या भई?’ वह उत्साहित होता हुआ बुदबुदाया, ‘जल्दी बताइए!’

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‘यही कि हो सकता है कि ये कुत्ते भी किसी अल्पसंख्यक या दलित के ही हों तब?’

‘अरे, हां, भई! यह तो मैंने सोचा ही नहीं।’ वह बोला, ‘यह तो गजब का प्वाइंट है। नोट करिए इसे कहीं। जल्दी नोट करिए। नहीं, कहीं मिस हो गया तो?’

‘नोट ही करना है तो एक प्वांइट और जोड़िए!’ राजीव बोला।

‘और क्या भई?’

‘देखिए कि पुलिस ने भीड़ में से किसी भी को नहीं जाने दिया हेलीपैड पर। सिर्फ इन कुत्तों को ही जाने दिया।’

‘तो?’

‘तो क्या पुलिसिया अत्याचार भी एक प्वाइंट है कि नहीं इन कुत्तों पर!’

‘हां भई, है तो! इसे भी नोट कर लेते हैं!’

यह मजाक सुन कर एक सिपाही सचमुच गंभीर हो गया। और पूरी गंभीरता से बोला, ‘हमने तो साहब इन कुत्तों को अपनी ओर से नहीं जाने दिया।’ वह बोलता रहा, ‘वो एक दरोगा जी खड़े हैं उन्हीं की ओर से सब गए साले!’

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‘कौन गए हैं?’ राजीव ने सिपाही से उसी की गंभीरता ओढ़ कर पूछा।

‘यही कुत्ते भोंसड़ी के। और कौन साले!’ सिपाही बलबलाया, ‘नौकरी ले लेंगे साले और कुछ नहीं। साले कहीं सचमुच मर मरा गए तो फिर आफत। फिर इंक्वायरी।’ वह अपना माथा पीटता हुआ बोला, ‘का करें और कोई नौकरी मिली नाहीं! नहीं पुलिस की नौकरी करते ही नाहीं। कुत्ता तक रखाना पड़ता है।’ सिपाही पूरी तन्मयता से चालू था। अपनी तकलीफों के पेंच-दर-पेंच अपनी ख़ास लय में ख़ास-ख़ास गालियों के साथ अपनी ताकत भर वह गिनता-खोलता जा रहा था।

‘बताइए आप लोगों ने हेलीपैड की ओर किसी को जाने ही नहीं दिया।’ लकदक कलफ लगे सिल्क कुरते में एक नेता जी पुलिस वालों को इंगित करते हुए बोले, ‘कम से कम नेताओं को तो जाने दिए होते।’ फिर वह भुनभुनाए, ‘ये साले पी.ए.सी. वाले किसी को पहचानते ही नहीं, सबको एक साथ ठेल देते हैं।’ नेता जी उदास होते हुए अपने एक साथी से कहने लगे, ‘बताइए अब महामंत्री जी को वहां कौन रिसीव करेगा? बाकी नेता भी दूसरे प्रदेशों से आए हैं। हेलीपैड पर उनका भव्य स्वागत होना चाहिए था। पर स्वागत तो दूर पुलिस वालों के हरामीपन से कोई रिसीव भी करने नहीं पहुंच पाया!’

‘घबराइए नहीं।’ राजीव उन नेता जी को सांत्वना देता हुआ बोला, ‘आपके महामंत्री सहित सभी बाहरी नेता भी रिसीव कर लिए गए हैं।’

‘किसने कर लिया रिसीव?’ नेताजी अचकचाते हुए ऐसे भहरा कर बोले गोया उनका हक कोई और मार ले गया हो। घबराते हुए उन्होंने सवाल फिर दुहराया, ‘किसने रिसीव कर लिया?’ लगे हाथ उन्होंने कनफर्म भी करना चाहा, ‘कोई लोकल दिखाई भी नहीं दे रहा वहां?’

‘लोकल लोगों ने ही रिसीव किया है भाई ।’ राजीव फिर बोला।

‘पर हैं कहां वे लोग?’

‘दिख नहीं रहे?’ राजीव ने प्रति प्रश्न किया।

‘ना!’ नेता जी अफनाए।

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‘तो चश्मे का नंबर बदलवाइए !’ राजीव मजा लेते हुए बोला।

‘चश्मा तो ठीक है।’ आंख से उतार कर पोंछते हुए उन्होंने हड़बड़ा कर चश्मा फिर से आंखों पर चढ़ाया। बोले, ‘आप भी भाई साहब मजाक कर रहे हैं।’

‘मजाक नहीं, सचमुच रिसीव हो गए हैं आपके महामंत्री जी समेत बाहरी नेता लोग भी!’ राजीव ने बात को और ज्यादा बढ़ाने की बजाय बात बिलकुल साफ करते हुए, कुत्तों की ओर इंगित करते हुए कहा, ‘वो देखिए रिसीव करके आपके ‘लोकल’ लोग कितने खुश हैं?’ उसने जोड़ा, ‘दुम उनकी लगातार हिलती ही जा रही है। रुक ही नहीं रही!’

‘आप भी भाई साहब!’ कह कर वह थोड़ा फेडअप हुए। बोले, ‘आप नौजवान हैं थोड़ी शालीनता सीखिए!’ कह कर वह रस्सी की बैरिकेटिंग तोड़ते हुए हाथ में माला लिए आगे बढ़े क्या बिलकुल दौड़ते हुए लपके। मारे उत्साह के वह आगे की पतली वाली रस्सी नहीं देख पाए और उसमें उलझ कर औंधे मुंह गिरे, गिरे क्या उनका और उनके कपड़ों का भूगोल बदल गया। लेकिन उन्हें तो जैसे गिरने-पड़ने और अपना भूगोल बदलने की परवाह ही नहीं थी। वह बिलकुल किसी बच्चे जैसा उत्साह भर कर उठे, गिरी हुई माला भी उठाई और कपड़े तथा मुंह पर लग आई धूल झाड़ते हुए फिर दौड़ पड़े। गोया कुछ हुआ ही न हो। इस बीच उसने देखा कि प्रतिनिधिमंडल दल के नेता के चेहरे पर नाराजगी साफ दिख रही थी। बिन फूल माला के वह अपने साथियों के साथ हेलीपैड से ऊसर भूमि को कुचलते हुए आ रहे थे। हां, यह जरूर था कि उनके लोकल रिसीवर लोग बाकायदा दुम हिलाते ऐसे आ रहे थे गोया किसी परेड में यह कदम ताल कर रहे हों !

कुत्ते और कदमताल?

ऐसा दुर्निवार संयोग सिर्फ राजनीति में ही संभव है। !

यह और ऐसी कई हेलीकाप्टरों और जहाजों की यात्रा में जब-तब घटी घटनाएं एक सर्रें से फ्रेम दर फ्रेम राजीव को अनायास याद आ गईं। उसने नोट किया कि थाने में अभी तक हेलीकाप्टर पर पथराव प्रसंग जारी था। प्रसंग चल ही रहा था कि स्थानीय पत्रकारों का एक दूसरा दल भी थाने आ पहुंचा। सब खुश थे। बेहद खुश। जैसे कोई किला जीत लिया हो। उनमें से एक पत्रकार बिलकुल वीर रस में था, ‘आज तो प्रशासन की साहब खाट खड़ी हो गई?’

‘हुआ क्या?’ वकील साहब और राजीव दोनों उत्सुक हुए बात का विस्तार और ब्यौरा जानने के लिए।

‘होना क्या था।’ वह बोला, ‘राज्यपाल ज्यों ही मंच से नीचे आए हम लोगों ने उन्हें घेर लिया। सारा किस्सा बताया। बताया कि किस तरह आपके साथ बदसुलूकी की गई है। और कि एन.एस.ए. में बंद करने की धमकी दे कर थाने में निपराध सुबह से बिठाए रखा है पुलिस ने !’

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‘फिर?’

‘फिर क्या? राज्यपाल जी ने पूछा- तो वे पत्रकार हैं, जो टॉयलेट में घुस गया था। हम लोगों ने बताया कि हां। तब उन्होंने आप का नाम और अख़बार का नाम पूछा। हम लोगों ने बताया तो राज्यपाल जी कहने लगे राजीव को तो मैं जानता हूं। उन्होंने कहा कि यह तो गड़बड़ हो गया। फिर डी.एम. को बुलाया। पेट सहलाते हुए कहा कि भई, मुझे तो बड़ी तकलीफ हुई। सर्वेंट्स क्वार्टर के गंदे टॉयलेट में जाना पड़ा। उन्होंने डी. एम. से सख़्ती से कहा कि फिर भी मामला जर्नलिस्ट का है, तुमने बताया क्यों नहीं? और एन.एस.ए. कैसे लगा दिया?’ पत्रकार बोला, ‘राज्यपाल जी ने सार्वजनिक रूप से डी.एम. को लताड़ लगाई और कहा कि राजीव को फौरन छोड़ो!’

‘लेकिन यहां तो कोई आदेश अभी तक आया नहीं।’ थाने में पहले से बैठा एक स्थानीय पत्रकार बोला।

‘आदेश आ ही रहा होगा!’ वह बोला, ‘मुंह छुपाता घूम रहा है साला !’

‘कौन,’ वकील ने पूछा।

‘डी.एम. साला!’ वह बोला, ‘पर घबराइए नहीं राजीव जी। हमारी तीसरी टीम डी.एम. को फालो कर रही है।’

यह सब सुन कर राजीव ने न सिर्फ चैन की सांस ली बल्कि रहा सहा उस का बाकी तनाव भी छंट गया। हां, मन उसका अब भी आहत था। अपमान, जलालत और आहत मन की गठरी उसके सीने पर किसी चाबुक सी सवार थी, वह खुल कर चिंदी-चिंदी उड़ कर बिखर जाने के बजाय घनी होती जा रही थी। वह वीरेंद्र मिश्र के उस गीत की तरह ‘भीतर-भीतर घुटना, बाहर खिल-खिल करना’ का अभिनय भी नहीं कर पा रहा था। वह सोचने लगा कि काश वह भी उन घाघ राजनीतिज्ञों या पत्रकारों की तरह होता जो लाख अपमानित होने के बावजूद खुश रहते हैं। चहकते-चमकते रहते हैं। कोई जो उन के मुंह पर थूक भी दे तो वह इस शालीनता से उसे पोंछ कर मुसकुराते रहते हैं गोया थूक नहीं, बारिश की कोई बूंद पड़ गई हो। और कुछ तो इससे भी आगे जा कर थूकने वाले से वाह कर बैठते हैं कि ‘यह तो आप का आशीर्वाद है।’ या कि, ‘आप बहुत बढ़िया थूकते हैं। फिर थूकिए या कि थूकते रहिए। बहुत बढ़िया थूकते हैं। मुझे अच्छा लगता है।’ जैसे तमाम जुमले भी, हंसते-हंसते जोड़ लेते हैं। पर जाने क्यों राजीव से यह गणित दूर ही रही।

उसका बोझ अब और बढ़ रहा था। बाकी स्थानीय लोगों की चहक में महक भी नहीं भर पा रहा था। लेकिन बहुत उदास होना भी उसे स्थानीय लोगों के साथ अन्याय ही जैसा लगा। तो उसने थोड़ा सा अपने को सहज करने की कोशिश की। इतनी कि कम से कम वह असहज न लगे। शुरुआत उसने उन स्थानीय पत्रकारों से परिचय लेने से ही की। ख़ान, कुरेशी, दुबे, शुक्ल, तिवारी, कुशवाहा, चौहान, शर्मा, श्रीवास्तव, अंसारी, पाठक, गुप्ता आदि सबने हाथ मिला-मिला कर अपना-अपना परिचय दिया। यह सब पत्रकार क्या थे बल्कि इनमें से लगभग सभी अंशकालिक ही थे। इनमें भी कोई अख़बार का एजेंट था कोई अध्यापक, कोई वकील, कोई व्यवसायी या इसी तरह के अन्य कामों में लगे हुए लोग थे। इन सबमें उसके अख़बार का स्ट्रिंगर भी था। कुछ जिला मुख्यालय से भी आए हुए लोग थे। लेकिन ज्यादातर इस तहसीलनुमा कस्बे के ही थे। जैसे भी थे, यह सबके सब राजीव के लिए न सिर्फ मददगार साबित हुए थे बल्कि बिना किसी परिचय के इस गाढ़े समय में काम आए थे। हालांकि इनमें से दो चार लोगों ने राजीव को पहले से जानने और लखनऊ में मुलाकात होने का दावा भी किया पर सचाई यह थी कि राजीव को कुछ याद नहीं था इन मुलाकातों के बाबत। फिर भी उसने ‘हां, हां !’ कह कर कुछ याद करने जैसा ड्रामा किया। और बड़े विनयपूर्वक उन सबसे हाथ जोड़ कर बोला, ‘बिना किसी परिचय के आप लोगों ने जो मेरे लिए किया उसके लिए थैंक यू या शुक्रिया जैसे शब्द बहुत छोटे जान पड़ते हैं। इसलिए मैं इन्हें इस्तेमाल नहीं कर रहा। लेकिन आप सबके लिए मेरे मन में आदर बढ़ गया है। लखनऊ में मेरे लिए कुछ हो तो जरूर बताएगा। और वहां आइए तो मिलिएगा जरूर।’

‘बिलकुल भाई साहब!’ सब जैसे एक साथ बोल पड़े।

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‘नहीं सचमुच मेरे लिए आप लोगों ने जो किया वह भूल नहीं पाऊंगा।’ राजीव अतिशय विनम्रता से बोला। फिर तुरंत ही कुढ़ भी गया। बोला, ‘कम से कम हमारे उन लखनऊ से आए साथियों से तो आप लोग अलग निकले न!’ उसने जोड़ा, ‘आप लोगों ने ‘कवरेज’, तो नहीं किया।’ कवरेज शब्द पर राजीव ने जरा ज्यादा जोर दिया। हालांकि इस ‘कवरेज’ का व्यंग्य उन पत्रकारों तक शायद कनवे नहीं हो पाया।

‘नहीं, भाई साहब लखनऊ से एच.टी. वाले जो दाढ़ी वाले हैं, राज्यपाल से बात करने के समय हम लोगों की अगुवाई उन्होंने ही की।’ ख़ान बोला।

‘चलिए कम से कम इतना किया तो!’ राजीव बोला, ‘लेकिन आप लोगों ने जो किया वह तो अकल्पनीय है, अकथनीय है !’

‘अरे नहीं भाई साहब यह तो हम लोगों का फर्ज था।’ दुबे बोला।

‘फर्ज ही नहीं राजीव जी।’ शुक्ला बोला, ‘यह तो हम लोगों के लिए भी अस्तित्व का प्रश्न था। हम लोगों की प्रतिष्ठा भी जुड़ गई थी।’ वह बोलता गया, ‘अगर ख़ुदा न खास्ता आपके साथ कुछ ऐसा-वैसा हो जाता तो यहां हम लोगों का जीना दूभर हो जाता!’

‘वह क्यों?’ राजीव ने चकित होते हुए पूछा।

‘आप नहीं समझेंगे भाई साहब!’ उसने जोड़ा, ‘आप तो लखनऊ रहते हैं। आप क्या जानें हम लोगों की पीड़ा!’

‘क्यों नहीं जान सकते?’ राजीव ने प्रति प्रश्न किया।

‘सचाई यह है भाई साहब अगर यहां आप के साथ कुछ हो जाता तो आप लखनऊ के थे, वहां इशू बन जाता आप दो दिन बाद सही बरी हो जाते। पर हम लोग हमेशा के लिए कैद हो जाते।’ वह बोला, ‘तो इस ‘कैद’ से बचने के लिए हम लोगों ने जी जान लगा दिया।’

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‘क्या मतलब?’ राजीव ने फिर पूछा।

‘मलतब यह कि यहां की पुलिस, यहां के अफसर हमेशा हम लोगों के ऊपर चढ़े रहते! कहते कि लखनऊ वाले को तो हम लोग कुछ समझे नहीं। तुम लोग किस खेत की मूली हो!’ शुक्ला बोला, ‘हम लोग बड़ा डिमारलाइज हो जाते! इसी लिए हम लोगों ने कवरेज छोड़ कर आप को ‘कवर’ किया!’

‘अरे यह तो आप लोगों का बड़प्पन है!’ राजीव ने बात की तह को समझते हुए भी विनम्रता ओढ़े रखी। बोला, ‘यह भी एक पक्ष हो सकता है इस मामले का लेकिन पहला और महत्वपूर्ण पक्ष यही है कि आप लोगों ने मेरी मदद की।’

‘वह तो करनी थी भाई साहब!’ अग्रवाल मजाक के रंग में बोला, ‘अपनी जो बचानी थी, फटने से!’

‘नहीं, ऐसी बात तो मत कहिए!’ कहता हुआ राजीव वकील साहब से मुख़ातिब हुआ, ‘आप का भी बहुत-बहुत शुक्रिया। आप ने भी आज गजब किया।’

‘अरे, नहीं जनाब आप हमारे मेहमान हैं। तकलीफ सुनी तो रहा नहीं गया।’ वह बोले, ‘दिलीप कुमार की रौनक छोड़ कर आए!’ वकील साहब अपनी गंदी हो चली कोट की बांह झाड़ते हुए बोले।

‘आपका भी परिचय जानूं?’ हाथ जोड़ते हुए राजीव बोला।

‘मुझे अजीम खां कहते हैं। वकील साहब बोले, ‘इसी तहसील का बाशिंदा हूं। यहीं की कचेहरी में रोटी-दाल जुगाड़ता हूं।’ वह बड़ी नरमी और अदब से बोले।

‘आप जैसी प्रतिभा यहां तहसील में क्या कर रही है?’ राजीव ने कहा, ‘आपको तो हाई कोर्ट या कम से कम डिस्ट्रिक्ट हेडक्वार्टर में तो होना ही चाहिए।’ फिर उसने पूछा, ‘आप फौजदारी की ही प्रैक्टिस करते हैं कि दीवानी की भी?’

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‘दोनों की ही!’ वह उसी अदब से बोले, ‘जो नसीब से मिल जाए।’

‘अच्छा, आई.पी.सी. की वह कौन सी धारा है जिसको ले कर आप दरोगा से अभी भिड़ गए थे?’ राजीव उनकी कांख में दबी किताब को बाहर खींचते हुए बोला, ‘देखूं तो?’

‘अरे इसे क्या करेंगे देखकर?’ वकील साहब किताब वापस खींचते हुए धीमे से बोले।

‘फिर भी?’ राजीव अचकचाते हुए बोला, ‘अच्छा जबानी ही बता दीजिए!’

‘अरे जाने दीजिए !’ वकील साहब बात को टालने लगे।

‘नहीं फिर भी!’ राजीव बोला, ‘इन चीजों की भी जानकारी तो होनी चाहिए!’

‘जानकारी बाद में ले लीजिएगा!’ वह राजीव की बात पीते हुए बोले, ‘अभी कुछ और बात करते हैं।’

‘अभी जान लेने में हर्ज क्या है?’ राजीव जैसे पीछे ही पड़ गया।

‘तो इधर आइए!’ राजीव के कंधे पर हाथ रखते हुए वकील साहब भीड़ से थोड़ा किनारे ले गए। हंसे और बोले, ‘सचाई जानना चाहते हैं?’

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‘बिलकुल!’ राजीव ने भी मुसकुराने की कोशिश की।

‘जनाब मसला यह है कि जिस आई.पी.सी. की नामालूम धारा का मैं थाने के भीतर दरोगा से जिक्र कर रहा था उसके बारे में मुझे भी नहीं मालूम।’

‘क्या?’ राजीव जैसे आसमान से नीचे गिरा।

‘घबराइए नहीं।’ वकील साहब राजीव को ढांढस बंधाते हुए बोले, ‘आपका तो अब कुछ होना नहीं। अब तो गवर्नर साहेब का हुकुम हो गया है।’

‘लेकिन फिर भी?’ राजीव की जैसे सारी सहजता काफूर हो गई।

‘आप घबराते क्यों हैं?’ वकील साहब राजीव को जैसे सांत्वना देते हुए बोले, ‘लेकिन ऐसी कोई धारा है जरूर आई.पी.सी. में। आप तो निशाख़ातिर रहिए!’

‘कैसे?’ राजीव आश्चर्य में पड़ता हुआ वकील साहब से बोला, ‘पर यह किताब?’

‘यह तो अंगरेजी में है!’ वकील साहब खिसियायी हुई हंसी हंसते हुए बोले, ‘इतनी अंगरेजी जब मैं ही ठीक से नहीं जानता तो यह दरोगा क्या जानेगा?’ वह बोले, ‘मैं इतनी अंगेरजी जानता होता तो हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करता, तहसील में नहीं और जो यह दरोगा अंगरेजी जानता तो आई.पी.एस. होता, दरोगा नहीं।’

‘अजीब बात है!’ राजीव खीझा, ‘लेकिन जो वह दरोगा इतनी अंगरेजी जानता होता और आप की यह फर्जी किताब पलट कर पूछ लेता कि बताइए वह धारा कहां है तो आप क्या करते?’

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‘देखिए मैंने आप से पहले ही बताया कि धारा है तो सही क्रिमिनल ट्रेस पासर की जो ऐसे मामलों में लगती है और आदमी निजी मुचलके पर ही छूट जाता है।’

‘ऐसा आप आख़िर किस बिना पर कह रहे हैं?’ राजीव ने उनसे पूछा। और जरा विनम्रता का लबादा हटा कर पूछा।

‘अब आप को सच बता ही दूं।’ वकील साहब तफसील में आ गए, ‘यह आप के जो पत्रकार साथी हैं वहां गवर्नर और दिलीप कुमार वाली मीटिंग में मुझे मिले। परेशानहाल थे सभी। और मैं मुसीबतजदा की हमेशा मदद करता हूं। यह लोग जानते हैं इस बात को। इसी लिए हमसे मिले। सारी बात बताई। मेरा माथा चकरा गया। समझ नहीं आ रहा था कि इन लोगों को क्या जवाब दूं। तभी लखनऊ में एक वकील साहब की याद आ गई। हाई कोर्ट भी जाते हैं ‘किरिमिनल’ लायर हैं। मेरा जब कोई मामला फंसता है तो उनसे इस्लाह ले लेता हूं। तो इस बार लखनऊ जाने के बजाय हमने आपके मामले में उन को पी.सी.ओ. से फोन कर इस्लाह मांगी। छुट्टी का दिन था वह घर पर ही थे। मैंने मामले की गंभीरता बताई।

उन्होंने थोड़ी देर बाद फोन करने को कहा। दस मिनट बाद मैंने फिर से फोन किया। तभी उन्होंने उस आई.पी.सी. की धारा का जिक्र किया। और मामले को रफा दफा करने की ‘टेकनिक’ बताई। अब गलती यह हुई कि वह धारा नंबर मैंने नोट नहीं किया। और अब भूल गया हूं। पर ऐसी धारा कोई है जरूर!’ वह जोर दे कर बोले।

‘फिर यह किताब?’ राजीव ने थोड़ा सहज होते हुए पूछा।

‘है तो आई.पी.सी. की ही।’ वकील साहब बोले, ‘पर इसमें वह धारा है भी कि नहीं मैं यह नहीं जानता।’

‘तो इसे यहां लाए क्यों आप? और फिर दरोगा को भी बार-बार दिखाते रहे?’

‘उस दरोगा पर धौंस डालने के लिए।’ वह बोले, ‘यह काला कोट पहन कर तो मैं गवर्नर की मीटिंग में आया नहीं था। मामला सुन कर लखनऊ फोन किया फिर घर गया काला कोट पहनने। यह धारी वाली पैंट पहनी। क्योंकि यह पुलिस वाले हम लोगों को काले कोट और धारी वाली पैंट में ही पहचानते हैं। नहीं साले कब क्या गाली दे दें। मार पीट दें, कुछ भरोसा नहीं।’ वह बोले, ‘छोटी जगह है न!’

‘हां, ये तो है।’ राजीव जम्हाई लेता हुआ बोला।

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‘तो भइया जब यह कोट पैंट पहन रहा था तभी आलमारी में यह आई.पी.सी. वाली किताब भी दिख गई। उठाया, धूल झाड़ी। ले कर चल दिया।’ वह रुके और बोले, ‘यह सोच कर कि थाने वाले अंगरेजी की किताब देख कर धौंस में आ जाएंगे। अंगरेजी आती नहीं सो देखेंगे नहीं और रूआब में आ जाएंगे।’

‘और रूआब में आ भी गए !’

‘हरदम आ जाते हैं!’ वकील साहब बेफिक्री से बोले, ‘छोटी जगह है न! अंगरेजी में यहां सभी दब जाते हैं। गाली भी अंगरेजी में दीजिए तब भी नाराज नहीं होते। हंसते हुए चाय पिलाते हैं।’ फिर उन्होंने सवाल किया, ‘आप क्या समझते हैं कि अगर अंगरेजी वाली यह किताब नहीं लाता मैं तो यह दोरागा मेरी कानूनगिरी सुनता?’ और उन्होंने खुद ही जवाब भी दिया, ‘हरगिज नहीं घुड़क कर गाली देता और आपके साथ ही मुझे भी थाने का ‘मेहमान’ बना लेता।’ वह बोले, ‘ऐसे में यह अंगरेजी वाली किताब काम आ जाती है।’ उन्होंने मुसकुराते हुए जोड़ा, ‘पहले भी कई बार इस अंगरेजी वाली किताब को आजमा चुका हूं। निशाना हरदम ठीक बैठा है।’ वह बोले ऐसे जैसे कोई किला जीत लिया हो।

बातचीत अभी चल ही रही थी कि एक पुलिस की जिप्सी थाने में आ कर रुकी। उसमें से एक सी.ओ. टाइप पुलिस अफसर उतरा और साथ ही डी.एम. को फालो करने वाली स्थानीय पत्रकारों की वह तीसरी टीम भी चहकती हुई जिप्सी से उतरी। सी.ओ. ने थाने के भीतर बैठे दरोगा से जो शायद थाने का सेकेंड अफसर था कहा कि, ‘प्रेस वाले को छोड़ दो। कलक्टर साहब ने कहा है।’

‘छूटे तो पहले ही से हैं साहब!’ दरोगा राजीव की ओर मुख़ातिब होते हुए बोला, ‘जाइए साहब अब दिलीप कुमार से मिलिए!’

‘शुक्रिया!’ कह कर राजीव पत्रकारों के साथ चल पड़ा। चलते-चलते वकील साहब की ओर मुड़ा हाथ मिलाया और बोला, ‘अजीम साहब आप का बहुत-बहुत शुक्रिया!’ कह कर वह चलने लगा। फिर अचानक रुका और उनसे बोला, ‘हां, आप ने अपनी फीस तो बताई नहीं।’ कह कर उसने अपनी जेब में हाथ डाला।

‘अब आप से फीस क्या लेनी?’ कह कर वकील साहब ने बड़ी दिलेरी से जेब में गया राजीव का हाथ पकड़ लिया। बोले, ‘रहने भी दीजिए !’

‘अरे नहीं।’ राजीव बोला, ‘ऐसा कैसे हो सकता है?’

‘अब रहने भी दीजिए !’ वकील साहब संकोच घोलते हुए बोले।

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‘अब ले भी लीजिए।’ वकील साहब के हाथ में कोई तीन-चार सौ रुपए पकड़ाता हुआ राजीव बेफिक्री से बोला।

‘नहीं। यह तो नहीं हो सकता!’ कहते हुए वकील साहब फिर अदब में आ गए।

‘क्यों?’ उसी अदब से राजीव ने उनसे पूछा।

‘अच्छा चलिए जो आप बहुत इसरार कर रहे हैं तो कुरेशी और शुक्ला साहब को सौ और पचास रुपए दे दीजिए। मतलब डेढ़ सौ रुपए।’ वह बोले, ‘पी.सी.ओ. पर फोन के पैसे इन्हीं लोगों ने दिए।’

‘बिलकुल!’ राजीव ने सौ-सौ के दो नोट उन्हें भी देते हुए कहा।

‘शर्मिंदा मत कीजिए भाई साहब!’ कुरेशी बोला, ‘यह तो हम लोगों का फर्ज था।’

‘और फिर हम लोग अभी भगवान की कृपा से इतने लायक हैं।’ शुक्ला बोला।

‘यह तो ठीक है फिर भी!’ राजीव सकुचाया।

‘अच्छा तो हम कभी लखनऊ आएं और कोई दिक्कत में पड़ जाएं तो आप मदद नहीं करेंगे? या फिर वापस आने के लिए किराया भी न रह जाए तो आप से नहीं मांग सकते?’ शुक्ला बोला।

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‘क्यों नहीं?’

‘तो क्या आप हमारी मदद या किराया हमें उधार समझ कर देंगे?’

‘नहीं भाई!’

‘तो भाई साहब प्लीज इसे रख लीजिए !’ वह पैसे वापस राजीव को देते हुए बोला।

‘और जनाब यह भी!’ वकील साहब ने भी पैसे वापस देते हुए कहा।

राजीव निरुत्तर था।

फिर चुप्पी तोड़ी वकील साहब ने ही। बोले, ‘हां मेरा एक काम आप जो कर सकें तो बड़ी इनायत होगी।’

‘हां, हां बताइए!’ राजीव लपक कर बोला।

‘नाचीज कभी-कभी कोई गजल या नज्म कह लेता है। उसे भेजूंगा आपके पास।’ वह सकुचाते हुए बोले, ‘अपने अख़बार या कहीं और भी जो छपवाने का बंदोबस्त करवा दें तो बड़ी ख़ुशी हासिल होगी।’

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‘हां-हां!’ कहते हुए राजीव थोड़ा अटका, ‘यह काम अख़बार में तो मैं नहीं देखता। फिर भी आप भेजिएगा। छपेगी आप की गजल।’

‘और कभी कभार मुशायरों वगैरह की रिपोर्ट भी छप जाएगी?’ वकील साहब बोले।

‘बिलकुल इसमें तो कोई दिक्कत ही नहीं होगी।’

‘शुक्रिया!’ वकील साहब बोले, ‘बस यही मेरी फीस समझ लीजिए!’ उन्होंने जोड़ा, ‘हालांकि मैंने किया ही क्या है?’

‘क्यों?’ राजीव मुसकुराया।

‘हां, किया ही क्या है मैंने?’ उन्होंने अपनी बात दुहराई।

‘क्यों अंगरेजी वाली यह किताब नहीं लाए?’ राजीव मजा लेता हुआ बोला।

‘क्या हुआ-क्या हुआ?’ कुरेशी अड़बड़ाता हुआ बोला।

‘अरे कुछ नहीं।’ राजीव ने वकील साहब को असमंजस में देख कर ख़ुद ही बात बदल दी।

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‘नहीं आप किसी किताब की बात कर रहे थे?’ कुरेशी चालू था।

‘अरे यह ट्रेड सीक्रेट है?’

वह फिर अचकचाया।

‘यह है! लो पढ़ो।’ बात आगे ज्यादा न बढ़े, और उनकी कलई न खुले इस लिहाज से वकील साहब खुद ही चैप्टर क्लोज करते हुए बोले। वह जरा जोर दे कर बोले, ‘अंगरेजी में है!’

‘तब रहने दीजिए। हम क्या खाक पढ़ेंगे?’ कुरेशी हथियार डाल गया।

‘अब यहां से चला जाए?’ शुरू से चुप-चुप पाठक बोला।

‘हां, पाठक जी चला जाए अब।’ राजीव चलते हुए रुका। बोला, ‘एक मिनट! और दूर खड़े उस दरोगा से पूछा, ‘कहीं कोई मुचलका तो नहीं भरना?’

‘नहीं-नहीं।’ दरोगा बोला, ‘आप जाएं!’

‘मुचलका तो कलेक्टर ने ही भर दिया।’ कुरेशी तंज करता हुआ बोला, ‘अब चलिए भाई साहब !’

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‘आइए हमारे साथ ही चले चलिए!’ दुबे मोटर साइकिल स्टार्ट करता हुआ बोला।

‘चलिए आप के ही साथ चलता हूं।’ कहता हुआ राजीव उसकी मोटर साइकिल पर बैठ गया।

अपनी-अपनी स्कूटरों, मोटर साइकिलों से सभी एक साथ चल पड़े।

सूरज अब तिरछा हो कर धूप कम देने लगा था। सांझ अभी नहीं घिरी थी। लेकिन तीसरा पहर दस्तक देने लगा था। दस्तक तो राजीव के मन पर भी अभी जारी थी। अपमानित होने का कांटा उसके मन में अभी भी चुभ रहा था। फरवरी की ठंड भी अब चुभने लगी थी। यह मोटर साइकिल पर बैठने के बाद जान पड़ा। हवा को चीरती हुई मोटर साइकिल छुटपुट खेतों के बीच बनी सड़क से गुजर रही थी। रास्ते में एक कटहल के पेड़ ने उसे मोहित किया। उस पर फले छोटे-छोटे कटहलों को देख कर वह पुलकित हो गया। पास ही एक अमरूद का बागीचा भी उसे अच्छा लगा।

अबकी थाने से वापसी में सड़क पर सन्नाटा तो नहीं था पर बहुत गहमा-गहमी भी नहीं थी। जल्दी ही वह सभी फिर से समारोह स्थल पर पहुंच गए। गवर्नर और उनका काफिला कब का जा चुका था लेकिन यहां उसने देखा भीड़ सुबह से भी ज्यादा थी। हालांकि मंच ख़ाली था। पता चला कि भीड़ दिलीप कुमार के इंतजार में डटी पड़ी थी। और वह मंच से गवर्नर के साथ अपनी तकरीर के बाद वापस डाक बंगले चले गए थे। अब उन्हें दुबारा टी. वी. सीरियल के मुहुर्त ख़ातिर आना था।

‘आइए डाक बंगले की ओर चलते हैं!’ राजीव, दुबे से बोला।

‘फिर डाक बंगला?’ दुबे घबराया।

‘हां।’ राजीव बोला, ‘अबकी दिलीप कुमार के लिए। अपमानित होने के लिए नहीं।’

‘जाने दीजिए!’ दुबे बोला, ‘क्या रखा है दिलीप कुमार में। अब बहुत हो चुका।’ वह उदास हो गया।

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‘नहीं चलना तो है।’ कहते हुए राजीव बोला, ‘मैं अकेला पैदल चला जाता हूं। वो सामने ही तो है!’ कह कर राजीव चल पड़ा।

‘आइए छोड़ देता हूं।’ दुबे बोला, ‘पर मैं डाक बंगले के अंदर नहीं जाऊंगा।’

‘ठीक है दुबे जी!’ कह कर वह मोटर साइकिल पर बैठ गया।

डाक बंगले पर अब पुलिस का फौज फाटा नहीं था। आठ-दस पुलिस वाले ही थे। उसने प्रेस बताया तो पुलिस वालों ने रोका भी नहीं। वह भीतर चला गया। डाक बंगले के अंदर भी कुछ आयोजक टाइप के लोगों ने रोका तो प्रेस बता कर वह उसी हाल में फिर पहुंच गया जहां सुबह वह अपमानित किया गया था।

अपमान का दंश उसे एक बार फिर डस गया।

लेकिन इस दंश को सहेजे वह दिलीप कुमार को देखने लगा। वह तो क्या कोई भी नहीं था वहां। असमंजस में पड़ा वह अभी इधर-उधर में पड़ा ही था कि उसने देखा अंदर से टॉयलेट वाली लॉबी की तरफ से वह चले आ रहे थे। उनके चेहरे पर थकावट की रेखाएं साफ दिख रही थीं। वह उसे तरेरते हुए सोफे में आ कर धंस गए। राजीव ने बिना समय गंवाए अपना परिचय दिया, इंटरव्यू का मकसद बताया और उन्हें अपनी पुरानी मुलाकातों और लिए इंटरव्यूज की याद दिलाई। यह भी कि पहली बार उसे बंबई के उनके एक दोस्त जो तब बड़े मशहूर संपादक थे, ने भेंट कराई थी जो कि अब दिल्ली में हैं।

‘अच्छा-अच्छा।’ कहते हुए उन्होंने माथे पर बल डाला। बोले, ‘बैठिए!’ वह उनके बगल वाले सोफे पर जिसका मुंह उनकी ओर था उस पर धप्प से बैठ गया। उसके वहां बैठते ही दिलीप कुमार ने उसे फिर तरेरा और थोड़ा तल्ख़ हो कर उंगली दिखाते हुए बोले, ‘यहां से उठ जाइए।’ उन्होंने जोड़ा, ‘यहां जॉनी वाकर साहब बैठेंगे।’ वह बोले, ‘इधर तशरीफ लाइए!’

‘सॉरी!’ कह कर वह चुपचाप उनकी बताई जगह बैठ गया। वह अभी कुछ बोलता पूछता कि वह ख़ुद शुरू हो गए, ‘देखिए जनाब इंटरव्यू वगैरह के लिए तो मेरे पास वक्त नहीं है। मैं बहुत थका हुआ हूं।’ वह बोलते जा रहे थे, ‘मौसम ख़राब होने से बंबई दिल्ली की फ्लाइट बहुत लेट आई। सुबह से निकला हुआ हूं। एयरपोर्ट पर बैठे-बैठे बोर हो गया। फिर रही सही कसर दिल्ली से यहां तक हेलीकाप्टर ने निकाल दी। ढाई घंटे लग गए। फिर अभी वापिस भी जाना है तो जनाब मुमकिन है नहीं इंटरव्यू जैसा कि ‘डेप्थ’ में आप चाहते हैं। और फिर अभी मुहूर्त भी करना है। यहां दो चार लोगों से मिलना भी है।’ वह बोले, ‘दो चार मामूली सवाल अभी पूछना चाहिए तो पूछिए। या फिर इधर-उधर टुकड़ों-टुकड़ों में कुछ सवाल कर लीजिएगा।’ उन्होंने जोड़ा, ‘पर डेप्थ वाले नहीं और फिर सवाल न तो फिल्मों के बारे में सुनूंगा और न ही पालिटिक्स के! क्यों कि इन मामलों में आप लोगों के सवाल एक जैसे ही सुनते-सुनते मैं थक गया हूं।’

‘तो?’

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‘अब आप जानिए!’ वह उसकी आंखों में आंख डालते हुए बोले, ‘समाजी हालत पर पूछिए। तमाम और सब्जेक्ट हैं।’ वह रुके बगैर बोले, ‘इतना भी इसलिए कह रहा हूं कि आप के वो पुराने एडीटर साहब मेरे जेहन में हैं और आप का परचा (अख़बार) भी मेरे जेहन में है।’

‘ठीक बात है!’ कह कर राजीव ने बातचीत शुरू कर दी। सामाजिक हालातों से बात शुरू करके वह जल्दी ही उनकी असमां से दूसरी शादी, उनकी हिरोइनों के बाबत बात करते-करते फिल्मों पर भी आख़िर आ ही गया। उसने देखा कि बात बेबात उखड़ जाने वाले दिलीप कुमार बड़ी देर तक संजीदा हो कर बतियाते रहे। इस बीच चाय भी आ गई थी और जॉनी वाकर भी। चाय आ जाने से दिलीप कुमार को आसानी यह हुई थी कि वह कुछ अप्रिय या अनचाहे सवाल भी चाय के साथ ही पी जाते थे। और जॉनी वाकर के आ जाने से राजीव को आसानी यह हुई थी कि उसके सवालों के बहाने जॉनी वाकर दिलीप कुमार से चुहूल करने लगते और दिलीप कुमार खुल जाते। ख़ास कर हिरोइनों के मसले पर जॉनी वाकर की चुहूल बड़े काम आई राजीव के। जैसे बात वहीदा रहमान की आई तो वह बहुत गमगीन हो गए। बोले, ‘वहीदा जी ने मेरे साथ काम तो किया है। पर हिरोइन वह देवानंद की हैं। ट्यून उन्हीं के साथ उनकी बनी।’ कई और उनकी ख़ास हिरोइनों पर भी चर्चा चली। पर बात जब सचमुच ही ज्यादा फैल क्या गई, बिलकुल ‘पर्सनल’ होने की हद तक आ गई जो जाहिर है कि राजीव के सवालों से नहीं जॉनी वाकर की चुहूलबाजी से आ गई तो आदत के मुताबिक दिलीप कुमार सख़्त हो गए। जॉनी वाकर से बहुत संक्षिप्त सा बोले, ‘इंटरव्यू आप का हो रहा है?’

जॉनी वाकर और राजीव दोनों ही चुप लगा गए। उनकी सर्द सख़्त आवाज का संकेत भी यही था। फिर जरा देर बाद राजीव ने ही ‘विमल रॉय जैसा निर्देशक और शरत बाबू का देवदास जैसा चरित्र आप को न मिला होता तो आप क्या होते भला?’ जैसे सवालों से उन्हें पटरी पर लाने की कोशिश की। वह पटरी पर तो नहीं आए पर हां, ‘डेप्थ’ में थोड़ा बहुत जरूर चले गए। उससे राजीव का काम आसान हो गया। इंटरव्यू बहुत क्लासिक तो नहीं पर उम्मीद के विपरीत ठीक-ठाक क्या अच्छा सा पीस बन गया। और अख़बारों की भाषा में ‘इक्सक्लूसिव’ इंटरव्यू हो गया। क्योंकि लखनऊ से आए या यहां के भी किसी पत्रकार को दिलीप कुमार का इंटरव्यू नहीं मिल पाया था। और जहां तक दिलीप कुमार का मिजाज वह जानता था, किसी को मिलने वाला भी नहीं था उनका इंटरव्यू! ख़ैर बातचीत अभी चल ही रही थी कि आयोजकों की फौज आ गई। इनमें एक सांसद भी था। टी.वी. सीरियल के मुहूर्त ख़ातिर उन्हें लेने के लिए।

समारोह स्थल पर भीड़ तो थी ही और मुहुर्त के लिए राकेश पांडेय और युनूस परवेज सरीखे अभिनेता दो-दो डायलाग लिए खड़े थे। दिलीप कुमार के पहुंचते ही अफरा-तफरी मच गई। वह जिधर जाएं, भीड़ भी उधर ही जाए। अंततः भीड़ को पुलिस काबू नहीं कर पाई। काबू किया तो ख़ुद दिलीप कुमार ने। वह भी इधर-उधर दौड़ कर। गजब की फुर्ती दिखाई। और सब से यही कहा कि बस यहीं खड़े रहिए और अपना वास्ता दिया। सभी मान गए थे! लेकिन दो मिनट के मुहुर्त शॉट में नारियल फोड़ने और दो ठो संवाद बोलने में ही कोई पौन घंटा से ज्यादा खिंच गया। ख़ैर, मुहुर्त शॉट संपन्न हो गया। शाम के चार बजे थे। कहा गया कि उस तहसील के टाउन एरिया चेयरमैन के यहां चलना है। लंच के लिए! दिलीप कुमार के साथ नत्थी हुआ वह भी चला। मुगलई खाने का इंतजाम बढ़िया था। खाने की महक बाहर ही से आ रही थी। भीतर खाने पर उस महक का मजा भी आया। ख़ास कर चिकन सचमुच बहुत अच्छा बना था। उसने तो खींच कर खाया ही। देखा कि उससे भी ज्यादा मुर्गे की टांगें इस बुढ़ौती में भी दिलीप कुमार ने घसीटी। दोनों हाथों से। उसे दिलीप कुमार की डबल रोल वाली फिल्म ‘राम और श्याम’ की याद आ गई। इस फिल्म के भी एक दृश्य में उनका श्याम वाला चरित्र दोनों हाथों से चिकन खाता है। फर्क सिर्फ इतना भर था कि फिल्म में वह श्याम बने तंदूरी चिकन खा रहे होते हैं जबकि यहां वह मुगलई चिकन मसाला खा रहे थे। बल्कि हुआ तो यह था कि दिलीप कुमार के साथ खाना खाने के लिए वहां हर कोई तैयार था। खाना खाना छोड़िए साथ बैठने के लिए भी सभी घोड़ा खोले थे। बेइज्जती की हद तक रोके गए लोग। उसने देखा सिर्फ राकेश पांडेय और युनूस परवेज जैसे अभिनेता आकुल नहीं थे। बल्कि वह दोनों तो लाख कहने के बावजूद भी भीतर खाने पर नहीं गए। शायद वह अपनी रेंज जानते थे कि भीतर निगाहें उन पर नहीं ट्रेजिडी किंग पर होंगी। सच भी यही था। बाहर बैठने पर लोग उन्हें घेरे हुए थे। वह सितारे बने हुए थे। युनूस परवेज तो जैसे मजमा ही लगा बैठे थे। बहरहाल भीतर दिलीप कुमार खाना खा रहे थे। मय फोटो सेशन के। खाना खाने के दौरान भी जब-तब राजीव सवालों की सुलगन में कुरेदता रहा उन्हें। दो-एक लोगों ने टोका भी उसे कि, ‘खाना खाने दीजिए’ पर राजीव ने इस टोका टाकी की परवाह नहीं की। हालांकि खाना भी उसे खींच रहा था और दिलीप कुमार भी। किसी तरह दोनों के बीच वह संतुलन साध रहा था। क्योंकि जैसे खाना मुगलई था, व्यवस्था भी वैसी ही ‘मुगलई’ थी। टोटियों वाले लोटे, बड़े-बड़े कटोरे और बड़ी-बड़ी थालियां। हां, रोटियां रुमाली थीं। पर लखनऊ की नफासत कहीं छू भी नहीं रही थी। सब कुछ ठेंठ गंवई माहौल में बुने हुए था। कुर्सियां-मेजें भी एक साइज की नहीं थी। हालांकि चेयरमैन का यह घर हवेली सरीखा था। काफी ऊंचाई पर। लेकिन बेतरतीब। टुकड़ों-टुकड़ों में बंटा हुआ। ऊबड़-खाबड़। कच्चा मकान, पक्का मकान और छप्पर तीन हिस्से थे इस ऊंची बसी हवेली के। बहरहाल, खाना खाने और नींबू पानी से हाथ धोने, पोंछने के बाद दिलीप कुमार को जनानखाने में भी ले जाया गया। जहां बच्ची, बूढ़ी, जवान, खड़ी थीं। कुछ नीचे, कुछ छत पर, कुछ आंगन में तो कुछ दीवार पर। दिलीप कुमार के आंगन में पहुंचते ही उन औरतों का रुन-झुन शोर यकबयक थम कर ख़ामोशी में तब्दील हो गया। सभी आंखें ख़ामोश लेकिन जैसे बहुत कुछ बोलती हुईं। बुरके से टुकुर-टुकुर ताकती हुईं। एक ख़ुशी भरी ख़ामोशी जैसे पूरे जनानखाने में तारी हो गई। अजब यह था कि इस ख़ामोशी में पैंट की जेब में एक हाथ डाले खडे़ दिलीप कुमार भी जरा देर ख़ामोश रहे। ऐसे गोया झील की बल खाती लहरें उड़ते हुए हंस के पंखों को थाम लें। हंस को उड़ने न दें!

‘आदाब!’ अचानक ख़ामोशी तोड़ती हुई दिलीप कुमार की हाथ उठाती आवाज क्या गूंजी एक साथ कांच की सैकड़ों चूड़ियां और पचासों पायलें बाज गईं। ऐसे, जैसे पंडित शिवकुमार शर्मा का संतूर बज गया हो, ऐसे जैसे कोई जल तरंग सोए-सोए जाग गया हो। आंखों के संकोच में सने दर्जनों हाथ उठे और जबान बोली, ‘आदाब!!’ मिठास ऐसी जैसे मिसरी फूट कर किसी नदी में बह चली हो! राजीव को लगा जैसे कमाल अमरोही की किसी फिल्म का शॉट चल रहा हो। बिना कैमरा, बिना लाइट, बिना साउंड-म्यूजिक और बिना डायरेक्टर के। गुरुदत्त की किसी फिल्म के किसी भावुक दृश्य की तरह। हालांकि उसने देखा था कि ‘आदाब’ के पहले भी बिन बोले ही उन औरतों और दिलीप कुमार के बीच एक अदृय सा संवाद उपस्थित था जिसे ठिठका हुआ समय दर्ज भी कर रहा था। पर दिलीप कुमार बिना निर्देशन के इस दृश्य की संवेदनशीलता, कोमलता और इसके औचक सौंदर्य को शायद समझ नहीं पाए या वापस जाने की हड़बड़ी में अकुलाए उन्हें जाने क्या सूझा कि वह घबरा कर ‘आदाब!’ बोल बैठे। जैसे किसी ठहरे हुए पानी में कोई कंकड़ फेंक दे। यही किया दिलीप कुमार ने। लेकिन कांच की चूड़ियों की खन-खन और पायलों की रुन-झुन में भीग कर जो ‘आदाब’ जवाब में उधर से आया लगा कि दिलीप कुमार उस में भींज कर भहरा गए हैं। उसने देखा वह सचमुच मुंह बा कर, माथे पर बालों की लटों को थामे क्षण भर तो खड़े रह गए। पर आगे ख़ामोशी की फिर एक सुरंग थी। लंबी सुरंग!

इस सुरंग को भी फिर छोटा किया दिलीप कुमार ने, ‘कुछ तो बोलिए आप लोग! आप लोगों से ही मिलने आया हूं।’ यह बात दिलीप कुमार ने बिलकुल परसियन थिएटर की तर्ज में थोड़ा जोर से कही। और जेब में डाला हुआ हाथ बाहर निकाल लिया।

‘कोई गाना सुनाइए!’ घाघरा पहने, दुपट्टा मुंह में खोंसती हुई एक लड़की दबी जबान बोली। जिसे दिलीप कुमार ने सुन कर भी अनसुना किया। जरा जोर दे कर बोले, ‘क्या कहा आप ने?’

‘गाना सुनाइए!’ वह झटके से दिलीप कुमार के सुर में बोल कर चुप हो गई।

‘आप लोग तो जानती हैं मैं सिंगर नहीं हूं।’ वह बोले, ‘फिल्मों में तो मेरे होंठ हिलते हैं। गाने वाले दूसरे लोग होते हैं।’ वह बात में थोड़ा ठसक भर कर बोले।

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‘तो कोई डायलाग सुनाइए!’ एक दूसरी लड़की बोली।

‘मुगले-आजम का!’ यह एक तीसरी लड़की बोली।

‘कुछ और बात कीजिए!’ दिलीप कुमार इस फरमाइश को भी ख़ारिज करते हुए बोले, ‘डायलाग का यह समय माकूल नहीं है।’ फिर वह कलफ लगी उर्दू पर उतर आए। इतनी कि बोर हो चली औरतों में ख़ामोशी की जगह खुसफुसाहट ने ले ली। दिलीप कुमार को भी राह मिली। चलने लगे। बोले, ‘अस्सलाम वालेकुम!’ उधर से भी एक साथ कई कर्कश आवाजें आईं, ‘वाले कुम अस्सलाम!’ लगा कि जैसे आसमान बदल गया है। कमाल अमरोही के आसमान पर आई.एस. जौहर का बादल छा गया हो और महमूदी बौछार आने लगे।

बहरहाल दिलीप कुमार बड़े झटके से मुड़े और हाथ हिलाते, जबरिया मुसकुराते हुए जनानखाने से बाहर आ गए। पीछे-पीछे जॉनी वाकर और वह भी।

बाहर भीड़ थी, वह थे, उनकी गाड़ी थी और दो-तीन किलोमीटर दूर उनका हेलीकाप्टर।

वह चलने लगे, हवेली से नीचे उतरते समय उनके साथ वह फिर नत्थी हो गया। मटर के खेत से सटे एक गाजर के खेत में उनकी गाड़ी खड़ी थी। गाजर के खेत में खड़े-खड़े राजीव ने दिलीप कुमार को फिर टोका। कहने लगा, ‘बस एक सवाल और!’
‘नहीं, अब कोई सवाल-जवाब नहीं।’ कहते हुए वह गाड़ी की ओर बढ़े।

राजीव सवाल को बतियाने की ओट में लाया। वह पूछने लगा, ‘अभी जनानखाने में जब आपसे गाने की फरमाइश की गई तो आपने क्यों नहीं गाया, बहुत प्यार से इसरार किया था उन लोगों ने।’

‘उनका इसरार अपनी जगह है। पर गाना मेरा काम नहीं। इससे मेरी पहचान नहीं।’ वह बोले।

‘और डायलाग्स?’ वह जैसे उन्हें किसी मास्टर की तरह बेंत मारता हुआ बोला।

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‘वह भी नहीं।’ वह चलते-चलते रुके और जरा सख़्ती से बोले, ‘ऐक्टर हूं, मिरासी नहीं कि जब जो जहां किसी ने कहा बोल दिया। डायलाग्स के लिए भी एक माहौल चाहिए होता है। एक्टिंग का सपोर्ट चाहिए होता है। और उससे भी बड़ी चीज है माहौल! माकूल समय। इनमें से कुछ भी नहीं था यहां!’

‘अच्छा, आप को मालूम है कि लता मंगेकर ने अपनी जिंदगी का एक सपना आपके साथ जोड़ा है?’

‘क्या कह रहे हैं आप! वह मेरी छोटी बहन की तरह हैं?’ वह तल्ख़ हुए।

‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं।’ राजीव ने सफाई दी।

‘फिर?’

‘लता जी आप के लिए प्ले बैक देना अपनी हसरत बताती हैं।’ राजीव ने आख़िर अपना सवाल पूछ लिया।

‘ओह लता!’ कह कर वह जैसे कहीं डूब गए। चुपचाप जा कर कार में बैठ गए। उसने नमस्कार किया तो वह हलका सा हाथ हिला कर रह गए। तब तक उनकी कार आयोजकों की भीड़ में घिर गई थी। कार धीरे-धीरे सरकने लगी थी।

कारों, जीपों की आवाजाही से चौपट हो गए उस गाजर के खेत में ही वह खड़ा रह गया। जहां पास की क्यारियों में बोई गई हरी धनिया और लहसुन की महक भी लहक रही थी। और सूरज सांझ की ओट में छुप कर आसमान को लाल कर रहा था। जाहिर था कि रात भी कहीं खड़ी चांद का दरवाजा खटखटा रही थी, ‘कम आन, कम आन!’ बोलती हुई। जबकि चांद कोई मुजरिम नहीं था रात का।

तो क्या रात के लिए किसी धोए पोंछे टॉयलेट में चांद भी घुस गया था!

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क्या पता?

अपमान के घूंट पिलाती, आहत करती रात चांद के स्वाभिमान को भी रौंदने को आतुर हो! कि रात के परिसर में चांद की हिम्मत कैसे हुई आने को? जैसे सवालों की बौछार मारती रात क्या पता चांद को भी एन.एस.ए. के दंश में डाहने किसी राज विमान में सवार हो कर पहुंची हो चांद का दरवाजा खटखटाने? जुर्म यह भी बताया हो कि यह चांदनी क्यों बिखेरी? और ठिठका हुआ चांद भी किसी गिरहकट की तरह उकड़ू मुर्गा बना कर बैठा दिया जाए। चांद का वकील बताए भी कि इसमें दोष चांद का नहीं प्रकृति का है। जिसके चलते सूरज की आग चांद से टकरा कर चांदनी बन कर बिखर गई है। और कि इसमें रात का भी कोई हर्ज नहीं है!

लेकिन सवाल है कि रात की इस तहसील में क्या चांद के पास भी कोई वकील होगा? अंगरेजी वाली आई.पी.सी. की कोई नामालूम किताब लिए?

चांद को शायद नहीं मालूम!

लेकिन रात को मालूम है। सिर्फ रात को मालूम है कि चांद मुजरिम है। और रात के बूटों तले!

–समाप्त—

दनपालेखक दयानंद पांडेय पिछले 32 सालों से पत्रकारिता के पेशे में सक्रिय दयानंद पांडेय अपनी कहानियों और उपन्यासों के लिए चर्चित हैं। उनकी अब तक एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके दो उपन्यास और एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन हैं। गोरखपुर जिले के गांव बैदौली के निवासी दयानंद पांडेय को उनके उपन्यास ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की ओर से प्रेमचंद सम्मान और ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ कहानी संग्रह पर यशपाल सम्मान मिल चुका है। ‘अपने-अपने युद्ध’ उनका अब तक सबसे चर्चित उपन्यास रहा है। अन्य उपन्यास हैं- दरकते दरवाजे, जाने-अनजाने पुल और कहानी संग्रह हैं- बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष-प्रश्न। सूरज का शिकारी बाल कहानी संग्रह है।  दयानंद पांडेय से संपर्क इन माध्यमों से किया जा सकता है- पोस्टल एड्रेस- दयानंद पांडेय, 5/7, डालीबाग, लखनऊ. फोन नंबर : 0522-2207728, मोबाइल नंबर :  09335233424 मेल : [email protected]

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0 Comments

  1. Mazhar Husain

    August 5, 2010 at 10:04 am

    Pahle aapko mera salaam aur fir i dil ko chu jane wali is kahani ke liye aapko Dili Mubarakbaad pandey sahab main to aapki is kahani ko padhte huye ekdam kho sa gaya tha sach batau mujhe laga ki main bhi aapke saath saath chal raha hoon lagta hai ki thane me main bhi aapke saath hoon ya ye kahe ki aisa laga ki sab kuch mere saath hi ho raha tha ..aapki is lekhni ko salaam aap aise hi likhte rahe meri duaa hai ki kaamyabi aapke kadam chume aur aap samaaaj me ek bada mukaam hasil kare

    mazhar husain /Basti
    [email protected]

  2. दयानंद पांडेय

    August 5, 2010 at 6:08 pm

    प्रिय मज़हर जी,

    क्या बात है !

    कहानी की दूसरी किश्त जारी होने के घंटे भर के भीतर जो प्रतिक्रिया आप ने दी है वह कम से कम मेरे लिए बहुत सुखद है। बहुत पुरानी फ़िल्म महल का एक गाना है जिस में लता जी गाती हैं कि ; जैसे कि चल रहा हो मन में कोई हमारे ! ठीक वैसे ही मेरे मन में आप चल रहे हैं। आप ने जो लिखा है कि थाने में मेरे साथ आप थे; आप को लगा कि सब कुछ आप के साथ ही हो रहा है। किसी रचनाकार के लिए, किसी कथाकार के लिए इस से बडा कंप्लीमेंट हो नहीं सकता। मैं ने बहुत सारी कहानियां लिखी हैं, उपन्यास लिखे हैं, बहुत तारीफ़ पाई है, बहुत- बहुत गालियां भी पाई हैं, पर यह साथ, यह सहकार, यह सादगी, यह शबरी – भाव यकीन मानिए पहली-पहली बार आप ने परोसा है। आप को शायद खबर नहीं होगी, पर आप को बताऊं कि आप की इस चिट्ठी ने जो रचनात्मक ऊर्जा मुझ में भरी है, उस का कोई हिसाब है नहीं। आप का हमारा कोई परिचय भी पहले से नहीं है। पर हां, आप मेरे पडोसी जनपद के हैं। बता दूं कि रहता भले लखनऊ में हूं पर हूं तो गोरखपुर का। इस लिए भी आप की चिट्ठी भा गई है। आप की चिट्ठी बताती है कि आप दरअसल मेरे साथ नहीं मेरी तकलीफ़ के साथ हैं। ईश्वर करे कि यह तकलीफ़ में रहने की, तकलीफ़ को साझा करने की कूवत हम सब में हमेशा बनी रहे। ऐसा हो सका तो समझिए कि पत्रकारिता ही नहीं मानवता भी कहीं न कहीं बची रहेगी। मेरे कहानी या खबर लिखने का धर्म भी यही होता है। हालां कि यह दुर्भाग्य ही है कि बहुत सालों से मै ने कोई खबर नहीं लिखी। शायद खबर लिखने का समय अब रहा नहीं, इसी लिए अब कहानी लिखता हूं। देखिए यह कहानी लिखना भी इस निर्मम समय में कब तक हो पाता है। फ़िलहाल तो आप की धडकन सुन रहा हूं। और पा रहा हूं कि आप मेरे साथ हैं। शायद आप जैसे और भी संगी – साथी हों। तो भी सदके जाऊं आप के कि मैं नहीं, थाने में आप ही थे। कहानी भले दस साल पुरानी हो पर हालात तो अब और भी तल्ख हैं। सच बताइएगा कि क्या हम सभी अभी भी किसी थाने में ही नहीं हैं?

    बताइएगा ज़रूर !

    आप का,

    दयानंद पांडेय

  3. Mazhar Husain

    August 6, 2010 at 11:35 am

    आदरणीय भैयाजी अभिवादन
    मैंने जो भी लिखा वह कहानी पढ़ते वक़्त जैसा मेरे साथ मेरे दिल पर गुज़रा वह लिख दिया.. लेकिन यह बिलकुल सही है कि आज के हालात तो बद से बदतर हो गए है अब तो अपने को पत्रकार कहते शर्म आती है मन करता है कि पत्रकारिता को अलविदा कह दू…. वैसे आपकी बात सही है कि हम अब भी तःने में ही है ..लेकिन अब तो हमे थाने में नहीं बल्कि लाकप में है….और हमारी करनी भी ऐसी ही हो गयी है कि हम लोग थाने के लाकप में नज़र आये…..भैया मैं यहाँ पर स्टार के लिए काम करता हूँ मेरा नाम सय्यद मजहर हुसैन है.. हम आप जैसे इमानदार और नेक सोंच रखने वाले नेकदिल इंसान के साथ है बस आप स्नेह बना रहे l

    आपका
    सय्यद मजहर हुसैन
    [email protected]

  4. Imran Zaheer , Moradabad

    August 6, 2010 at 10:50 pm

    Bilkul sahi kaha Mazhar ji aapne ye kahani real life ke mutabik is tarah utaari gai gai hi ki is kahani ke pahle baag ko padhne ke baad iske antim baag ko padhne ke liye maine Dayanand ji ko aik arzi tak de dali thi, aur ye tak kaha tha ki ise jaldi jari karne ki kripa kare, is trah ki real aur dilchasp kahani likhne wale Dayanand ji se hame bhi bahut kuch sikhne ko milega.

  5. Prashant

    August 7, 2010 at 6:51 am

    kahani jordaar hai lagta hai sacchi bhi hai kaha ki hai yah bhi bata dijiye kisi chote jile ki choti tahseel ki to nahi hai

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