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‘हिंदुस्तान’ पर खूब पैसा फेंकते हैं नीतीश

बिहार के विकास की तस्वीर मीडिया ने बिहार और देश की जनता के सामने जो पेश की है, वो बिल्कुल सच नहीं है। दरअसल, नीतीश सरकार ने बिहार के ज्यादातर मीडिया संस्थानों की कमजोर नस दबा रखी है। यह कमजोर नस है विज्ञापन की।

बिहार के विकास की तस्वीर मीडिया ने बिहार और देश की जनता के सामने जो पेश की है, वो बिल्कुल सच नहीं है। दरअसल, नीतीश सरकार ने बिहार के ज्यादातर मीडिया संस्थानों की कमजोर नस दबा रखी है। यह कमजोर नस है विज्ञापन की।

सरकारी विज्ञापनों को नीतीश सरकार ने मीडिया को नियंत्रित रखने का औजार बनाया और यह औजार खूब काम भी कर रहा है। पत्रकार अफरोज आलम साहिल ने बिहार सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग से आरटीआई के जरिए कुछ सूचनाएं मांगी थीं। जो जानकारियां मिली हैं, उससे कई जानकारियां मिलती हैं। राज्य सरकार से मिले कागज़ के टुकडे यह बताते हैं कि वर्तमान राज्य सरकार का काम पर कम, विज्ञापन पर ज़्यादा ध्यान रहा है। बिहार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग द्वारा वर्ष  2005-10 के दौरान 28 फरवरी 2010 तक यानी नीतिश के कार्यकाल के चार सालों में लगभग 38 हज़ार अलग-अलग कार्यों के विज्ञापन जारी किए गए और इस कार्य के लिए विभाग ने 64.48 करोड़ रुपये खर्च कर दिए, जबकि लालू-राबड़ी सरकार ने अपने कार्यकाल के 6 सालों में सिर्फ 23.90 करोड़ ही खर्च किए थे।

सूचना के अधिकार के ज़रिए सूचना एवं जन-सम्पर्क विभाग से मिले जानकारी बताती है कि वर्ष 2009-10 में 28 फरवरी 2010 तक 19,66,11,694 रूपये का विज्ञापन इस विभाग के द्वारा जारी किए गए हैं, जिसमें 18,28,22,183 रूपये प्रिन्ट मीडिया पर और 1,37,89,511 रूपये इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर खर्च हुआ है। जानकारी यह भी बताती है कि नीतिश सरकार के चार वर्ष पूरे होने पर एक ही दिन 1,15,44,045 रूपये का विज्ञापन 24 समाचार पत्रों को जारी किया गया है, जिसकी सूची आप नीचे देख सकते हैं। इस सूची में खास बात यह है कि नीतीश सरकार ने सबसे ज्यादा रुपय्या शोभना भरतिया के अखबारों को दिया। हिंदुस्तान को 37 लाख रुपये और हिंदुस्तान टाइम्स को 15 लाख रुपये से ज्यादा मिले। इन दोनों को जोड़ दें तो 53 लाख रुपये के आसपास बैठते हैं। दैनिक जागरण की बात करें तो इस अखबार को सिर्फ 27 लाख रुपये से संतोष करना पड़ा। इस तरह कहा जा सकता है कि हिंदुस्तान अखबार से खूब खुश चल रहे हैं नीतीश कुमार। पूरी सूची इस प्रकार है-

 

1. हिन्दुस्तान (पटना+भागलपुर+मुजफ्फरपुर+दिल्ली)— (9 पृष्ठों का विज्ञापन)— 37,09,162 रूपये

2. दैनिक जागरण (पटना+भागलपुर+मुजफ्फरपुर+दिल्ली)— (9 पृष्ठों का विज्ञापन)— 27,89,835 रूपये

3. आज, पटना— (5 पृष्ठों का विज्ञापन)— 3,66,546 रूपये

4. प्रभात खबर, पटना— (9 पृष्ठों का विज्ञापन)— 3,89,622 रूपये

5. राष्ट्रीय सहारा, पटना— (5 पृष्ठों का विज्ञापन)— 1,52,132 रूपये

6. टाईम्स ऑफ इंडिया, पटना— (5 पृष्ठों का विज्ञापन)— 1,80,850 रूपये

7. हिन्दुस्तान टाइम्स, दिल्ली— (3 पृष्ठों का विज्ञापन)— 15,80,640 रूपये

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8. इंडियन एक्सप्रेस, दिल्ली— (3 पृष्ठों का विज्ञापन)— 1,15,784 रूपये

9. दैनिक भास्कर, भोपाल— (एक पृष्ठ का विज्ञापन)— 1,30,486 रूपये

10. सन्मार्ग, कोलकाता— (एक पृष्ठ का विज्ञापन)— 63,916 रूपये

11. इकोनॉनिक्स टाईम्स, कोलकाता— (पांच पृष्ठों का विज्ञापन)— 2,17,845 रूपये

12. पंजाब केसरी, दिल्ली— (एक पृष्ठ का विज्ञापन)— 1,91,543 रूपये

13. बिजनेस स्टेण्डर्ड, दिल्ली— (दो पृष्ठों का विज्ञापन)— 50,643 रूपये

14. बिजनेस स्टेण्डर्ड, मुंबई— (एक पृष्ठ का विज्ञापन)— 25,321 रूपये

15. प्रातः कमल, मुज़फ्फरपुर— (एक पृष्ठ का विज्ञापन)— 38,595 रूपये

16. कौमी तंज़ीम, पटना— (सात पृष्ठों का विज्ञापन)— 2,70,162 रूपये

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17. फारूकी तंज़ीम, पटना— (सात पृष्ठों का विज्ञापन)— 2,70,162 रूपये

18. पिन्दार, पटना— (सात पृष्ठों का विज्ञापन)— 2,51,580 रूपये

19. संगम, पटना— (सात पृष्ठों का विज्ञापन)— 2,70,162 रूपये

20. इन्कलाब-ए-जदीद, पटना— (एक पृष्ठ का विज्ञापन)— 38,595 रूपये

21. प्यारी उर्दू, पटना— (दो पृष्ठों का विज्ञापन)— 71,880 रूपये

22. राजस्थान पत्रिका, जयपुर— (एक पृष्ठ का विज्ञापन)— 1,86,642 रूपये

23. अमर उजाला— (एक पृष्ठ का विज्ञापन)— 88,829 रूपये

24. रोजनामा राष्ट्रीय सहारा, उर्दू, पटना— (छह पृष्ठों का विज्ञापन)— 93,117 रूपये

तो ज़ाहिर है कि नीतिश के कार्यकाल में सबसे ज़्यादा फायदा यहां के मीडिया उद्योग को हुई है। इसलिए वो ‘विकास’ के पीछे के सच को जनता के सामने लाना मुनासिब नहीं समझते। इन्हें इस बात का डर है कि अगर इन सच्चाइयों पर से पर्दा उठा दिया तो सरकारी विज्ञापनों से हाथ धोना पड़ सकता है। क्योंकि राज्य विज्ञापन नीति (स्टेट एडवर्टिजमेंट पॉलिसी)- 2008 के तहत अगर किसी मीडिया संस्थान का काम राज्य हित में नहीं हैं तो उसे दिये जा रहे विज्ञापन रोके जा सकते हैं। उसे स्वीकृत सूची से किसी भी वक़्त बाहर किया जा सकता है। ऐसा बिहार के कई अखबारों मसलन राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण आदि के साथ कई बार हो चुका है और सभी को थक हारकर सरकार के चरणों में विज्ञापन के लिए झुकना ही पड़ता है।

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अफरोज आलम साहिल के ब्लाग सूचना एक्सप्रेस से साभार

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  1. [email protected]

    March 31, 2010 at 7:08 pm

    hindustan bihar ka number 1 newspaper hea. agar jyada piasa phenkate hea to usme kya harz hea. rti se jo list le gaye hea usme tamama aise newspaper ka naam hea] jinka bihara se koi lene-dene hi nahi hea

  2. Haresh Kumar

    April 1, 2010 at 8:31 am

    हिंदुस्तान को 37 लाख रुपये और हिंदुस्तान टाइम्स को 15 लाख रुपये से ज्यादा मिले। इन दोनों को जोड़ दें तो 53 लाख रुपये के आसपास बैठते हैं।
    कृपया इसे फिर से संपादन करें। नाम में भी कई जगह अशुद्धियां है।

  3. Vikas Verma

    April 1, 2010 at 8:47 am

    Sirph Bihar hi nahi Yah khel to har rajya aur central goverment main hal raha hai. Nitish Kumar Goverment bhi publicity ke liye wahi kam kar rahi hai jo sabhi rajyo ke Cief Minister kar rahe hain. Isliye isse kisi alag chasme se dekhne ki jarurat nahi hai. Aapki jankari ke liye bata de ki Delhi ki Cief Minister Sheila Dixit Bhi publicity par Karoro rupye Kharch karti hai. @008 ka assembly election jitne ke liye Sheila Sarkar ne Sirph Five months main 22 Carore Rupye kharch ki thi. Ab nitish Sarkar ne char saal main 64 Carore kharch kiye to Delhi Goverment jo ki complete state bhi nahi hai uski tulna main to yah kharch kaphi kam hi hai. Phir 15 saal ke Lalu-Rabri raaj main Bihar ki jo nakartmak chhavi pure desh aur duniya mai bani thi use dhone ke liye 64 carore ki rakam koi bahut jyada nahi hai.

  4. ब्रजेश कुमार शर्मा

    April 1, 2010 at 10:19 am

    सच तो सच है

    पत्रकार अफरोज आलम द्ववारा मांगी गयी सूचना के आधार पर प्रकाशित समाचार हिन्दुस्तान पर खूब पैसा फेकते है नीतीश कई मायनों में पूर्वाग्राच और स्वार्थ प्रेरित लगती है. अफरोज जी यदि पत्रकार है तो उन्हें पता होना चाहिए की ६८ करोर रुपये का विज्ञापन पांच सालों में देना कोई भरी भरकम रकम नहीं है.कई छोटी मोटी कम्पनियाँ ही इतना विज्ञापन साल भर में दे देती है. फिर यह कहना की ६८ करोर रुपये मात्र से पांच साल के लिए मीडिया का मुह बंद किया जा सकता है,दुविधापूर्ण है. ऐसा लगता है की बिहार की बदलती छवि को साहब पचा नहीं पा रहे है. यदि सरकार पैसे खर्च भी कर रही है और अपने काम को बाधा चढ़ा कर दिखा रही है इसमें हर्ज़ क्या है. यदि कोई चीज़ गलत दिखाई या बताई जा रही तो इसका विरोध होना चाहिए. ऐसा लगता की बिहार को लेकर कुछ लोगों में अभी भी दुर्भावना गहरे तक बैठी हुयी. यदि ऐसा न होता तो इस बेतुके आकडे के सहारे इतनी ओछे बाते आप और आपके जैसे अन्य साथी न कह रहे होते. बिहार में बदलाव हो रहा है. इसे मीडिया दिखाए या न दिखाए , सच को छिपाया नहीं जा सकता है. बिहार में नितीश सरकार आने के बाद सबसे बड़ी समस्या छवी निर्माण की थी जिसमे नितीश काफी हद तक कामयाब रहे है. अब बिहार की छवि को फिर से गंदा करने का ठेका मत लीजिये. बिहार ने हमेशा क्रांती की है. ऐसा न हो को लोग आपकी दुर्भावना समझ कर आपको भी कई ऐसी जानकारियां देना शुरू कर दे जो आपके पेशे और अस्तित्व दोनों पर सवाल खड़े कर दे. जिस चीज़ को दुन्यिया स्वीकार कर रही है. उसे लेकर आप बेतुके तर्क दे रहे है. बिहार ने पिछले पांच सालों में काफी तरक्की की है. आपन न माने तो सच झूठ में नहीं बदल जायेगा. बिहार अपने गौरव की ओर फिर से लौट रहा है अपने रियल हीरो नितीश कुमार के साथ.

    ब्रजेश कुमार शर्मा

  5. rajesh ranjan ,journalist,jabalpur mp

    April 1, 2010 at 4:41 pm

    nitish apni kamjori aur nakami ko hipane ke liye media ki aukat kharid liya hai.

  6. AFROZ ALAM SAHIL

    April 1, 2010 at 7:34 pm

    भाई जान! अगर वक़्त मिले तो इस लिंक को पढ़ लीजिएगा. हालाँकि इस लेख को मैंने ४-५ महीने पहले लिखा था. और यह सिर्फ बकबक नहीं है. बल्कि इसमें लिखे हर शब्द का मेरे पास साबुत है, वो भी बिहार ने ही उपलब्ध कराये हैं.

    http://suchnaexpress.blogspot.com/2010/02/blog-post_4534.html

    http://suchnaexpress.blogspot.com/2010/03/blog-post_09.html

    नीतिश के बिहार की तरक़्क़ी और मीडिया
    यह कहने में कोई अतिश्योक्ती नहीं है कि बिहार खूब तरक़्क़ी कर रहा है। हर दिन विकास के नए-नए योजनाओं की घोषणाएं हो रही हैं। विकास कार्यों के विज्ञापन अखबारों में खूब छप रहे हैं। हर दिन किसी न किसी काम का शिलन्यास हो रहा है। यानी हम कह सकते हैं कि बिहार अब तरक़्क़ी को लात मार रहा है। इसके लिए बधाई के पात्र हैं हमारे ‘सुशासन बाबू’ यानी हमारे नीतिश कुमार जी।
    लेकिन विकास की जो तस्वीर मीडिया ने बिहार व देश की जनता के सामने पेश की है, वो बिल्कुल ‘सच’ नहीं है। क्योंकि नीतिश जी के बिहार में एक ऐसा वार्ड भी है जहां विकास का कोई कार्य नहीं हुआ है। ये बातें मैं नहीं कह रहा हूं, बल्कि बिहार के पश्चिम चम्पारण ज़िला के “बेतिया नगर परिषद” सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत लिखित रूप में कह रही है।
    यह बात कहने वालों की फहरिस्त लंबी है। पटना पश्चिम पथ प्रमंडल, पटना के अनुसार वर्ष 2005 से 2009 तक विधायकों द्वारा विकास कार्य का ब्यौरा और उन पर आने वाले खर्चों का ब्यौरा शुन्य है। उधर पथ प्रमंडल विभाग, पटना का भी कहना है कि इस प्रमंडल का कार्य-क्षेत्र पटना शहरी क्षेत्र है और वर्तमान कार्यकाल में विधायक-कोष से कोई भी कार्य नहीं हुआ है। पथ प्रमंडल, मुंगेर का कहना है कि पिछले 12 वर्षों के अंदर इस प्रमंडल के विधायक के ज़रिए विधायक फंड से कोई भी काम नहीं कराया गया है। पथ प्रमंडल, भागलपूर का कहना है कि एम.एल.ए. फंड से न तो पिछले सालों में कोई पैसा मिला है और न हीं वर्ष 2008-09 में ही। पथ प्रमंडल, बिहारशरीफ के मुताबिक इस प्रमंडल के अन्तर्गत विधायकों द्वारा विधायक-कोष ये कोई भी कार्य नहीं कराया गया है। शाहाबाद पथ प्रमंडल, आरा के अन्तर्गत भी विधायक निधी से कोई भी कार्य नहीं कराया गया है। यही बात पथ प्रमंडल, मोतिहारी, डिहरी-ऑन-सोन, जमुई, लखीसराय, बांका और नवादा भी कह रही है।
    सूरसंड प्रखंड कार्यालय के मुताबिक वर्ष 2006-07 से लेकर वर्ष 2008-09 तक विकास का कोई भी काम नहीं हुआ है। प्रखंड विकास कार्यालय, पुपरी (सीतामढ़ी) यह बता रहा है कि सीतामढ़ी ज़िला के तहत पिछले सांसद के द्वारा एम.पी. फंड से कोई भी काम इस कार्यालय के द्वारा नहीं हुआ है। वहीं पुर्णिया विधुत अधीक्षक अभियंता कार्यालय पुर्णिया व किशनगंज के विकास कार्यों के संबंध में यह बता रहा है कि पिछले सांसद के फंड से “जमा योजना” के तहत 85,72,500/- रुपये उपलब्ध हुए हैं, लेकिन फिलहाल इस रुपये से विकास का कोई काम नहीं हो पाया है। किशनगंज के पूर्व सांसद के द्वारा एम.पी. फंड से कोई पैसा हासिल नहीं हुआ, इसलिए विकास के किसी काम का प्रश्न ही नहीं उठता।
    खैर, सबसे खुशी की बात यह है कि इस बार के 15वीं लोकसभा चुनाव में बिहार में पहली बार मीडिया के माध्यम से विकास का मुद्दा हावी रहा और नीतिश को इसका ज़बरदस्त फायदा भी मिला। खुद नीतिश कुमार ने इस चुनाव में अपने को विकास का पहरुआ बताया और साथ ही केन्द्र सरकार को कटघरे में खड़ा किया, यह कहते हुए कि “केन्द्र की यूपीए सरकार बिहार को वाजिब हक़ नहीं दे रही है। उल्टे राज्य की तरक़्क़ी केन्द्र सरकार के फंड से होने की बात यूपीए के नेता कह रहे हैं। इनका कहना सरासर झूठ और गलत है।” नीतिश के इस बात की मीडिया में काफी स्पेस मिला।
    लेकिन बिहार सरकार के ही कागज़ात चुनावी मौसम के इस सियासी ज़बान की कुछ और चुगली करते नज़र आ रहे हैं। बिहार के विकास की एक अलग कहानी बता रहे हैं। उस तरक़्क़ी की, जिसके सहारे नीतिश कुमार ने 20 सीटें हासिल की है। बिहार सरकार से सूचना का अधिकार के तहत मिली जानकारी के ज़रिए यह साफ़ दिखाई देता है कि केन्द्र सरकार ने गत दो वर्षों में बिहार के नीतीश सरकार को जितनी मदद की है, उतनी लालू-राबड़ी सरकार को 6 वर्षों में भी नहीं। इतना ही नहीं, जानकारी यह भी बताती है कि पहली बार अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से राज्य को बड़ी मदद मिलने में सफलता तो मिली पर राज्य सरकार इस राशि को विकास के कार्यों पर खर्च करने में असफल रही है और मिले पैसों का इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है।
    आंकड़े बताते हैं कि एनडीए सरकार के कार्यकाल के दौरान वर्ष 2003-04 में राज्य सरकार को केंद्र से 1617.62 करोड़ रूपए मिले थे। पर केंद्र में सरकार बदलने के बाद यूपीए ने राज्य सरकार को लगभग दोगुना पैसा देना शुरू किया। पहले ही वित्तीय-वर्ष यानी 2004-05 में केंद्र ने राज्य सरकार को 2831.83 करोड़ रूपए की राशि उपलब्ध कराई, ताकि बिहार तरक़्क़ी कर सके।
    इसके बाद राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालें। भाजपा समर्थन से बनी इस सरकार को वर्ष 2005-06 में 3332.72 करोड़ रूपए केंद्र सरकार से मिले। वर्ष 2006-07 में 5247.10 करोड़ और इसके अगले वित्तीय-वर्ष यानी वर्ष 2007-08 में यह राशि बढ़ाकर 5831.67 करोड़ कर दी गई। इसके बाद के आंकड़े राज्य सरकार उपलब्ध नहीं करा पाई है पर अधिकारी मानते हैं कि केंद्र से मदद बढ़ी ही है। इस प्रकार राज्य सरकार से मिले आंकड़ों की बात करें तो यह बताती है कि वर्तमान राज्य सरकार को मात्र तीन वित्तीय वर्षों में ही 14411.50 करोड़ मिले, जबकि पिछली राज्य सरकार को पांच वित्तीय वर्षों में कुल 7984.56 करोड़ ही प्राप्त हुए।
    एक तथ्य और है जो राज्य सरकार के विकास कार्यों पर होने वाले खर्च पर सवाल उठा देता है। आंकड़े कहते हैं कि पैसे लेने में चुस्त सरकार, उसे खर्च करने में सुस्त रही है।
    राज्य सरकार को वर्ष 2006-07 में विश्व बैंक से गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के लिए 92.92 लाख मिले पर खर्च हुए कुल 60 लाख रूपए। अगले वित्तीय-वर्ष यानी 2007-08 में ग़रीबी उन्मूलन, लोक व्यय एवं वित्तीय प्रबंधन और बिहार विकास ऋण के लिए राज्य सरकार को 464.15 करोड़ रूपए मिले पर दस्तावेज़ बताते हैं कि राज्य सरकार ने इनमें से सिर्फ 6.13 करोड़ रूपए ही खर्च किए हैं। इसके अगले वर्ष नीतिश जी को कुछ अक़्ल आई और पैसे को किसी तरह से इस्तेमाल करने की कोशिश की। इस वर्ष यानी 2008-09 में विश्व बैंक ने 13.35 करोड़ रुपये बिहार सरकार को दिए और सरकार ने 20.95 करोड़ खर्च करने का कारनामा अंजाम दिया।
    नीतिश कुमार के झांसे में अल्पसंख्यक भी रहे। जिन पैसों को अल्पसंख्यक छात्रों के बीच स्कॉलरशिप के रुप में बांट कर अपनी पीठ थपथपाई, दरअसल वह पैसे केन्द्र की यूपीए सरकार ने अपनी स्कीम के तहत उपलब्ध कराई थी। बिहार सरकार के अल्पसंख्यक कल्याण विभाग द्वारा सूचना के अधिकार से मिली जानकारी के मुताबिक बिहार में वर्ष 2007-08 के दौरान कुल 3,72,81,738/- रुपये मेधा-सह-आय आधारित योजना के अन्तर्गत अल्पसंख्यक छात्र/छात्राओं के बीच केन्द्र सरकार ने बांटे, न कि बिहार सरकार ने। 15 अगस्त 2008 को नीतिश कुमार ने मुस्लिम गरीब बच्चों के लिए ‘तालीमी मरकज़’ खोलने का ऐलान किया। लेकिन जब बिहार सरकार से सूचना अधिकार कानून के तहत यह पूछा गया कि अब तक कितने ‘तालीमी मरकज़’पूरे बिहार में खोले गए हैं, तो बिहार सरकार ने इस संबंध में कोई जानकारी देना मुनासिब नहीं समझा।
    बहरहाल, अल्पसंख्यको के उत्थान एवं विकास के लिए नीतीश सरकार ने कई कार्य किए। जिनकी फहरिस्त भी लम्बी है। जैसे:- 1) अल्पसंख्यक छात्रावास का निर्माण, 2) अल्पसंख्यक भवन-सह- हज हाउस, 3) राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं वित्त निगम को हिस्सा पूंजी, 4) बिहार राज्य अल्पसंख्यक वित्तीय निगम को हिस्सा पूंजी, 5) वक्फ सम्पत्ति के सर्वे का कम्पयूटराईजेशन, 6) कॉलेज में पढ़ रहे छात्र/छात्राओं को छात्रवृति, 7) लोक सेवा आयोग की तैयारी हेतु कोचिंग, 8) वक्फ सम्पत्ति की सुरक्षा एवं संवर्द्धन हेतु रिवालविंग फंड, 9) परित्यक्ता मुस्लिम महिलाओं को सहायता हेतु राशि। पर इन सभी योजनाओं पर वर्ष 2005-06 में खर्च हुए सिर्फ 12,53,72,450/- रुपये, जबकि वर्ष 2006-07 में 19,64,85,100/- रुपये और वर्ष 2007-08 में 21,05,46,400/- रुपये खर्च हुए। जबकि बिहार में अल्पसंख्यकों की आबादी लगभग दो करोड़ है। अब इस खर्च से ही आप अंदाज़ा लगा लीजिए कि ये बिहार में अल्पसंख्यकों की इतनी बड़ी आबादी को कितना फायदा पहुंचा सकता है।
    नीतीश सरकार ने बिहार के ज़्यादातर मीडिया संस्थानों की आर्थिक नस दबा रखी है। इसके लिए सरकारी विज्ञापनों को जरिया बनाया है। क्योंकि राज्य सरकार से मिले कागज़ के टुकडे यह बताते हैं कि वर्तमान राज्य सरकार का काम पर कम और विज्ञापन पर ज़्यादा ध्यान रहा है। बिहार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग द्वारा वर्ष 2005-09 के दौरान यानी नीतिश के कार्यकाल के चार सालों में लगभग 38 हज़ार अलग-अलग कार्यों के विज्ञापन जारी किए गए और इस कार्य के लिए विभाग ने 44.56 करोड़ रुपये खर्च कर दिए, जबकि लालू-राबड़ी सरकार अपने कार्यकाल के 6 सालों में सिर्फ 23.90 करोड़ ही खर्च किए थे।
    तो ज़ाहिर है कि नीतिश के कार्यकाल में सबसे ज़्यादा फायदा यहां के मीडिया उधोग को हुई है। इसलिए वो ‘विकास’ के पीछे के सच को जनता के सामने लाना मुनासिब नहीं समझते। इन्हें इस बात का डर है कि अगर इन सच्चाईयों पर से पर्दा उठा दिया तो सरकारी विज्ञापनों से हाथ धोना पड़ सकता है। (क्योंकि राज्य विज्ञापन नीति ( स्टेट एडवर्टिजमेंट पॉलिसी)- 2008 के तहत अगर किसी मीडिया संस्थान का काम राज्य हित में नहीं हैं तो उसे दिये जा रहे विज्ञापन रोके जा सकते हैं। उसे स्वीकृत सूची से किसी भी वक़्त बाहर किया जा सकता है।) इस बात का अहसास मुझे तब हुआ, जब पूरे कागज़ात व सबूत के साथ उपरोक्त सच्चाईयों को दिल्ली के दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित करने को दिया। लेते वक़्त तो इसे बहुत बड़ी ख़बर बताई गई, लेकिन अगले ही हफ्ते यह बताया गया कि यह स्टोरी हमारे अखबार में नहीं छप सकती। कारण मालूम करने पर पता चला कि पटना के संपादक इसे छापने को तैयार नहीं हैं। राष्ट्रीय सहारा हिन्दी से यह मालूम हुआ कि वो उस राज्य सरकार के खिलाफ कुछ भी प्रकाशित नहीं कर सकते, जिस राज्य से उनका अखबार प्रकाशित होता है। इसके बाद इस स्टोरी को नई दुनिया को भेजा, लेकिन उन्होंने भी इसे न छापने में अपनी भलाई समझी। इसके अलावा हमारी बात बिहार के कुछ पत्रकारों से भी हुई, जिन्होंने इसे छापने से मना कर दिया। यहीं नहीं, इस स्टोरी के संबंध में मेरी बात एनडीटीवी के प्रसिद्ध पत्रकार से भी हुई, जिन्होंने इसे अच्छी स्टोरी बताते हुए इसे अपने चैनल पर दिखाने के वादे के साथ टाल गए। बहरहाल, इस खबर की अहमियत को सिर्फ बीबीसी और उर्दू मीडिया के एक दो अखबारों ने समझी। उन्होंने अपने वेबसाईट और अपने अखबार के पहले पन्ने पर जगह दिया, जिसका ज़िक्र एक स्वतंत्र पत्रकार ने दैनिक हिन्दुस्तान में अपने कॉलम “उर्दू मीडिया” में किया।
    बात यहीं खत्म नहीं होती। जिन विकास कार्य के नाम पर करोड़ों खर्च किए गए हैं, उस विकास कार्य की जानकारी आम लोगों को कौन कहे, यहां के पढ़े-लिखे लोगों तक को नहीं है। जैसे बीमार बिहार को स्वस्थ करने की नियत से शुरु की गई कॉल सेंटर “समाधान” का उदाहरण ही आप देख लीजिए। खैर बिहार की जनता स्वस्थ हो न हो, कम से कम सरकारी अफसर और उनके विज्ञापनों के मिलने से यहां की मीडिया इंडस्ट्रीज ज़रुर स्वस्थ हो रही है। यह अलग बात है कि बाद में कहीं वो डायबटीज़ के पेसेंट न हो जाएं।

    बिहार का नाम रौशन कर रहे हैं…

    “सत्ता संभालते ही नीतिश कुमार ने राज्य में शिक्षा की दरकती दीवार को मज़बूती प्रदान करते हुए इसके आधारभूत ढांचा को मजबूत करते हुए एक नयी संस्कृति की शुरुआत की। प्रारंभिक शिक्षा से लेकर उच्च और तकनीकी शिक्षा तक में गुणात्मक सुधार हेतु त्वरित कार्रवाई की, जिसके सार्थक परिणाम आने लगे हैं। आज बिहार में शिक्षा के विकास के चलते दूसरे प्रदेशों में चलने वाली शिक्षा की दुकानें लगभग बंद हो गई हैं। आज अभिभावकों के कड़ी मेहनत के पैसों का उपयोग बिहार में ही हो रहा है और बच्चे समयानुसार परीक्षा देकर दूसरे राष्ट्रीय संस्थानों में अच्छा स्थान प्राप्त कर बिहार का नाम रौशन कर रहे हैं…… ”

    ज़रा ठहरिए! ये आप क्या पढ़ रहे हैं…? ये पंक्तियां मेरे आलेख का हिस्सा नहीं हैं। ये मैं नहीं लिख रहा हूं, बल्कि ये बिहार सरकार द्वारा अपने कार्यकाल के चार साल पूर्ण होने के उपलक्ष्य में देश के कई प्रमुख अखबारों में छपे आठ पृष्टों के विज्ञापन का एक अंश है, जिसे मैंने दिनांक 24 नवंबर 2009 को नई दिल्ली के दैनिक हिन्दुस्तान में पढ़ा। इन पंक्तियों का सच के साथ कोई विशेष रिश्ता नहीं है। क्योंकि मेरे अनुभव तो यही बता रहे हैं, जिसे मैंने स्वयं बिहार के चम्पारण ज़िले में अभी जाकर महसूस की। आईए! इन सच्चाईयों से आप भी रूबरू हो जाईए। ये सच्चाईयां बिहार के उन दो ज़िलों के हैं, जहां नीतिश जी के अधिक संख्या में अपने विधायक व सांसद हैं।
    पश्चिम चम्पारण ज़िले के कई मध्य विध्यालय प्रधानाध्यापक विहीन हैं। इस बात की पुष्टि खुद ज़िला शिक्षा अधीक्षक अमित कुमार कर रहे हैं। उनका कहना है कि ‘कई स्कूलों के हेडमास्टर नहीं होने के कारण सभी योजनाओं को लक्ष्य पर पहुंचाने में ग्रहण लग रहा है।’ ज्ञातव्य हो कि ज़िले में करीब अठारह सौ मध्य विध्यालय हैं जिनमें लगभग 60 फीसद मध्य विध्यालय बिना हेडमास्टर के चल रहे हैं।
    पश्चिम चम्पारण ज़िले के योगापट्टी के लक्ष्मीपुर उच्च विध्यालय के 800 छात्र महज़ सात शिक्षक के भरोसे हैं। यह विध्यालय कभी ज़िले के गिने-चुने विध्यालयों में आता था, मगर वर्तमान में इसकी स्थिति दयनीय बनती जा रही है। परिसर में लगा पुआल का पुंज विध्यालय की शोभा बढ़ा रहा है। अगर क्षेत्र के बुद्धिजीवियों की बात मानें तो इस विध्यालय में करीब 40 एकड़ ज़मीन है, जो कि संभवतः राज्य के सभी उच्च विध्यालय के परिसंपत्तियों से ज़्यादा है। खुद यहां के प्रभारी प्रधानाध्यापक श्री निवास सिंह का कहना है कि ‘कहने को तो यह विध्यालय संपत्तिशाली है, मगर शिक्षा के नाम पर यहां संसाधनों का टोटा है।’
    पश्चिम चम्पारण ज़िले के ही रामनगर का एकमात्र कन्या उच्च विध्यालय +2 शिक्षा संस्थान के रूप में उत्क्रमित तो हुआ लेकिन मामला बस वहीं तक रह गया। यहां एक तरफ शिक्षकों का अभाव है, तो दूसरी ओर नव निर्मित वर्ग कक्षों में ब्लैक बोर्ड का नहीं बनना छात्राओं के लिए अभिशाप साबित होने लगा है। आलम यह है कि कुल 15 सेक्शन में बंटी विध्यालय की वर्ग व्यवस्था के लिए सिर्फ 14 शिक्षक फिलवक़्त यहां पदस्थापित हैं। इनमें से एक इसी माह तथा दो अन्य अगले तीन माह में सेवानिवृत्त हो जाएंगे।
    पश्चिम चम्पारण के ज़िला मुख्यालय बेतिया का सबसे प्राचीन और प्रतिष्ठित व ऐतिहासिक महारानी जानकी कुंअर महाविध्यालय में तो बगैर शिक्षक के ही एमए, बीए व इंटर की पढ़ाई हो रही है। चौकिए मत! सिर्फ पढ़ते ही नहीं, बल्कि अच्छे नंबरों से परीक्षा पास भी कर जाते हैं। इस महाविध्यालय में एक-दो विषयों को छोड़कर बाकी सभी विषयों में ही शिक्षकों की भारी कमी है। भूगोल की पढ़ाई के लिए पूरे विश्वविध्यालय में एमजेके कॉलेज की एक अपनी अलग पहचान थी, बल्कि मात्र आरडीएस और एमजेके कॉलेज में ही इस विषय की पढ़ाई होती थी। आज यह विभाग पूरी तरह शिक्षक विहीन है, जबकि एमए भूगोल में छात्र-छात्राओं की संख्या 31 है। महाविध्यालय में अंग्रेज़ी, संस्कृत, उर्दू, रसायनशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और इतिहास जैसे विषयों के लिए सिर्फ एक-एक शिक्षक कार्यरत हैं, जबकि भूगोल, संगीत और दर्शनशास्त्र के लिए कोई शिक्षक बहाल नहीं है। इस प्रकार बेतिया के सारे कॉलेजों में बस नामांकन व परीक्षा फॉर्म ही भरा जाता है। पढ़ाई तो छात्र घर पर ही करते हैं। ज़्यादा परेशानी पर वे प्राईवेट कोचिंग का सहारा लेते हैं। वैसे भी नंबर की कोई चिंता होती नहीं। परीक्षा बाद जुगाड़ व कुछ पैसे लगा कर अच्छे नंबर आ ही जाते हैं। एमजेके कॉलेज के प्राचार्य डॉ. आर. एन. राय बताते हैं- ‘कई बार कॉलेज में रिक्त पदों पर शिक्षकों की बहाली तथा दूसरे जगहों से प्रतिनियुक्त करने के लिए विश्वविध्यालय को लिखा गया है। परंतु आज तक इस पर कोई विशेष कार्रवाई नहीं हुई। शिक्षकों की कमी से छात्रों का भविष्य खराब हो रहा है। इसमें कोई संशय नहीं है।’
    यही नहीं, बेतिया में गर्वेंट मेडिकल कॉलेज खोलने की पहल नीतिश कुमार जी ने की। यहां तक कि बड़े ताम-झाम के साथ बेतिया के महाराजा स्टेडियम में ही शिलान्यास हुआ। लेकिन आज तक कोई भी काम आगे नहीं बढ़ सका।
    बात अगर पूर्वी चम्पारण ज़िले की करें तो वहां भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। मोतिहारी के ज़िला स्कूल में तो +2 की पढ़ाई बगैर किसी शिक्षक के ही चल रही है। यहां +2 के प्रथम वर्ष यानी ग्यारहवीं क्लास में विज्ञान के 75 छात्र हैं और कला के 20, जबकि बारहवीं में विज्ञान के 65 और कला के 45 छात्र हैं, लेकिन इन्हें पढ़ाने के लिए एक भी शिक्षक मौजूद नहीं हैं। दसवीं तक के छात्र इस स्कूल में करीब 800 हैं और इनके लिए शिक्षकों का तादाद वर्तमान में सिर्फ 7 है। मातृभाषा हिन्दी, अंग्रेज़ी, संस्कृत व इतिहास के एक भी शिक्षक नहीं हैं। हॉस्टल के चार कमरों पर एसटीएफ का कब्ज़ा है। विध्यालय में वायरिंग खराब होने के कारण बिजली की आपूर्ति तक नहीं है। जबकि वर्ष 1867 में ज़िला मुख्यालय मोतिहारी में बना यह ज़िला स्कूल कभी शिक्षा जगत में ज़िले का शान समझा जाता था। इस संबंध में डीईओ महेश चन्द्र पटेल का कहना है कि ‘ज़िला स्कूल के मॉडल स्कूल का दर्जा होने के कारण उसमें वर्तमान नियमावली बनेगी। तत्काल प्रतिनियोजन से शैक्षणिक कार्य चलाने हेतु प्राचार्य को संचिका बढ़ाने का निर्देश दिया गया है।’
    मोतिहारी शहर का मंगल सेमिनरी विध्यालय भी शिक्षको की कमी से जुझ रहा है। यहां +2 में 10 शिक्षक हैं जिनमें 1 स्थायी व 9 नियोजित शिक्षक हैं। +2 में वनस्पतिशास्त्र, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, गृहविज्ञान, कामर्स व संगीत के शिक्षक नहीं हैं। लाइब्रेरियन का पद रिक्त है। वहीं सेकंडरी में शारीरिक शिक्षक नहीं है। यहां प्राचार्या मीना कुमारी ने छात्रों को लैब कराए जाने की बात कही, जबकि लैब की सामग्रियों पड़े धूलकण व रखे गए अन्य सामान दूसरी ही कहानी बयां कर रहे हैं। वहीं शिक्षको के झारखंड स्थानांतरित हो जाने की वजह से व्यवसायिक कोर्स की पढ़ाई बाधित हो गई है। विदित हो कि यहां ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग, हाउस होल्ड वायरिंग व रेडियो एंड टीवी टेक्नोलॉजी व्यवसायिक पाठ्यक्रम संचालित होता है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि व्यवसायिक कोर्स के लिए बनने वाला कर्मशाला सह प्रशिक्षण केन्द्र का निर्माण कार्य करीब 15 वर्ष पूर्व अधूरा छोड़ दिया गया जिस कारण आज यह ध्वस्त होने के कगार पर है। यहां आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि विगत 4 जून 2005 को तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा सचिव नवीन वर्मा ने पत्रांक 106 के द्वारा डीएम से कर्मशाला निर्माण से संबंधित उपयोगिता मांगा था। इधर, विध्यालय में पिछले दो साल के अंदर निर्मित भवनों की स्थिति राशि के बंदरबांट का संकेत देती है। मसलन +2 के अतिरिक्त कक्ष निर्माण के लिए मिली 26 लाख की राशि से निर्मित दो मंज़िला नए भवन की ज़मीन में उदघाटन के बाद ही दरारें आ गई। इस संबंध में डीईओ महेश चन्द्र पटेल का कहना है कि ‘द्वितीय चरण के नियोजन से शिक्षकों की कमी बहुत हद तक दूर हो जाएगी। प्रायोगिक कक्षाएं चलाने का पूर्व में सभी +2 स्कूलों को निर्देश दिया जा चुका है। लैब नहीं चलने की शिकायत मिलने पर जांच कर कार्रवाई होगी। भवन निर्माण में अनियमितता की जांच होगी।’

    तो ये थी दो ज़िलों की कुछ छोटी-छोटी बातें। बाकी का अंदाज़ा आप खुद लगा सकते है। अंत में नितिश जी से यही कहना चाहुंगा कि नीतिश जी बिहार के जनता को कब तक आप धोखा देते रहेंगे। अब जनता आपके झूठे विज्ञापन व वादों के चक्कर में नहीं पड़ने वाली, क्योंकि वो अब आपके शासनकाल में कुछ ज़्यादा ही समझदार हो गई है और शिक्षा के स्तर को उपर उठाने हेतु आप बड़े-बड़े संस्थान तो खोल ही रहे हैं।

    अफरोज़ आलम साहिल
    प्रस्तुतकर्ता सूचना एक्सप्रेस

    आगे बिहार के सम्बन्ध में और भी बातों को पढने के लिए तैयार रहिएगा….

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