भड़ास4मीडिया पर एक अनाम मुस्लिम मीडियाकर्मी की पीड़ा ‘मीडिया हाउसेज में ये कैसी सांप्रदायिकता’ और उस पर उदयशंकर खवारे का गरमागरम पलटवार ‘मीडिया को सांप्रदायिक कहने वाला खुद सांप्रदायिक’, दोनों पढे़। लगा, दोनों ही अतिशय मानसिकता से भरे हैं। दोनों ही गलत हैं। ईद के दिन जिस छुट्टी को लेकर ये बहस-मुबाहिशा शुरू हुआ, उसी दिन भोपाल स्थित हमारे दफ्तर (राज एक्सप्रेस) में एक सुगंध बांटने वाला वाकया हुआ, जो हम पत्रकार साथियों को नई बात बताता-सा लगता है। यकीनन इस पर भी कुछ लोगों की नजरें टेढी हो सकती हैं। मगर इसे पढ़ते वक्त अपने मन में निर्मलता, ह्दय में विशालता और सोच में पत्रकारिता वाली निष्पक्ष मानसिकता रखिएगा… आपको पूरा वाकया जरूर अच्छा लगेगा।
ईद का दिन था। मध्य प्रदेश में नगरीय निकाय चुनाव के चलते ‘वीकली ऑफ’ और छुट्टियां रद्द कर दिए जाने के बावजूद राज एक्सप्रेस, भोपाल में काम करने वाले मुस्लिम साथियों को खुशी-खुशी ईद मनाने की छुट्टी दी गई थी। सब अपने घरों में थे। शीर-खुरमा की मिठास में डूबे। मगर लखनऊ का रहने वाला एक युवा पत्रकार साथी सोहैब फारुकी, जो जबलपुर डेस्क पर सब एडिटर हैं, अपनी ही मुश्किलों के कारण घर नहीं जा पाए। ऐसा नहीं कि उन्हें छुट्टी नहीं मिली, मगर उन्होंने अपनी ही उधेड़बुन में छुट्टी का जिक्र किसी से नहीं किया और भोपाल रुकना मुनासिब समझा।
ठीक ईद के दिन उसने झक्क सफेद कुरता-पायजामा पहना और यहां-वहां मस्जिद में जाकर सजदा करने की बजाय दफ्तर आकर काम करना ठीक समझा। जिस फ्लोर पर वह काम कर रहा था, वहां बाकी सभी लोग हिंदू थे। मेरी बगल वाली कुर्सी पर चुपचाप बैठा वह अपना काम कर रहा था और यकीनन मशगूल था। मुझे पता था कि आज ईद है और सोहैब घर नहीं जा पाया है। मेरी कुर्सी उसके इतने नजदीक थी कि उसके चेहरे पर थोड़ी-थोड़ी देर में रह-रहकर उठ रहे कोफ्त के भावों को साफ पढ़ पा रहा था। निश्चित ही उसके मन में यह बात चल रही थी कि काश, आज मैं अपने घर होता। मगर बार-बार उसकी आंखों के सामने कम्प्यूटर स्क्रीन पर आ रही लीड, एंकर, सिंगल, डीसी, टीसी खबरों और सेपरेट फोटो में सारी कोफ्त कहीं काफूर हो जाती। उसके मुरझाए चेहरे ने मेरे भीतर की कई चीजों को पिघला दिया। चूंकि जिस जबलपुर डेस्क पर वह काम कर रहा था, उस डेस्क का न्यूज एडिटर होने के नाते मुझे यकायक इस बात का अपराधबोध हुआ कि ईद के दिन भी वह अपने अब्बा-अम्मी के बीच क्यों नहीं है? मैंने उससे छुट्टी के बाबत पूछा तो उसने साफगोई से कहा ‘हां सर, जा नहीं पाया।’ हालांकि उसने उत्साह से यह भी कहा कि ‘कोई बात नहीं सर, मैं यहां हूं तो क्या बुरा हूं। यकीनन घर पर इंतजार हो रहा होगा, लेकिन कोई बात नहीं।’
रुंधे हुए उसके शब्द उसकी कई बातों-मजबूरियों को उधेड़ गए। मुझे लगा कि यह सुनकर मेरी जिम्मेदारी अब और बढ़ गई है। मैंने तत्काल जबलपुर और ग्वालियर डेस्क के करीब 50 साथियों के नाम ‘अनऑफिशियल लेटर’ बनाया और सोहैब को पता नहीं चलने देते हुए बारी-बारी से वह पत्र सबके पास पहुंचाया। पत्र (नीचे दिया हुआ है) में जो लिखा, उससे न सिर्फ बाकी सब पत्रकार सहमत थे बल्कि अपराधबोध और जिम्मेदारी में मेरे साझीदार हो गए थे, जो अभी तक सिर्फ मेरे अंदर था।
हमने तत्काल सबसे कुछ-कुछ रुपया इकट्ठा किया (सबसे इसलिए ताकि सबको जुड़ाव महसूस हो) और दो सब एडिटर साथियों को बाजार भेजकर समोसे, कचौरी और मिठाइयां मंगवाई। आधे घंटे बाद ही दफ्तर की हमारी फ्लोर पर माहौल गमगीन नहीं बल्कि उत्सवी उल्लास से भरा हुआ था। सोहैब को ‘उस दिन के हीरो’ की तरह हमने बीच में खड़ा किया और सब गोल घेरा बनाकर उसे बारी-बारी से गले मिलकर बधाई देते गए। बाकायदा उसके सम्मान में कुछ शब्द कहे गए और उसके काम के प्रति जज्बे को रेखांकित किया गया। उसे विश्वास दिलाया गया कि कैसे हम सब ईद के इस बेहद खास मौके पर उसके साथ हैं। यह सब इतना अनौपचारिक, सहज और सचमुच दिल से किया गया था कि सोहैब खुशी और कृतज्ञता के मारे लगभग रोने को हो आया। सबने उसे मिठाई खिलाई और गरमागरम समोसे-कचौरी की उष्मा में मानो शोएब की सारी कोफ्त भाप बनकर उड़ गई। अब तक उत्साह से भर गए सोहैब ने तब पूरे मन से एक दिलकश गाना भी सुनाया और थोड़ी देर पहले रुंध गए शब्दों से सारी धूल हटा दी। उसने बड़ी गर्मजोशी से सबके गले और हाथ मिलाकर शुक्रिया अदा किया। उसके चेहरे की रौनक और आंखों की चमक, जो कहीं खो गई थी, यकायक फिर लौट आई। अब सोहैब को लखनऊ नहीं जा पाने का मलाल नहीं बल्कि भोपाल में ही रुक जाने के अपने फैसले की खुशी थी।
थोडी ही देर बाद मैं देख रहा था कि वह गुपचुप दफ्तर के बरामदे में खड़ा होकर अपनी अम्मी, अब्बा और भाईजान को मोबाइल पर बता रहा था कि आखिर उसे कितनी बधाइयां मिली और किस तरह वो एक हिंदुस्तानी मुसलमान होने पर इस समय गर्व महसूस कर रहा है।
ईश्वर शर्मा
न्यूज एडिटर
राज एक्सप्रेस, भोपाल
09926952355
वह पत्र जो सोहैब से छिपाकर गुपचुप तरीके से दफ्तर के बाकी साथियों के बीच भेजा गया…
दोस्तों,
रोजाना के काम की ऊहापोह में हम कुछ बेहद खास चीजों को भी भूल जाया करते हैं। ऐसा ही एक खास दिन हम आज भी भूल रहे हैं। दरअसल आज ईद है और हमारे बीच कुछ ऐसे दोस्त भी बैठे हैं जिनके लिए यह दीपावली से कम नहीं।
जिंदगी की जंग जीतने की आपाधापी में वे आज भी अपने परिवार के साथ होने की बजाय काम पर रहकर ड्यूटी निभा रहे हैं।
…ऐसे में हमारा फर्ज बनता है कि उन्हें उत्सवी उल्लास की कमी महसूस न होने दें। यकीनन हम ज्यादा कुछ नहीं कर सकते लेकिन उन्हें बधाई देकर हमारा प्रेम तो उन तक पहुंचा ही सकते हैं।
बस, बधाई के इस मौके को उनके दिल में यादगार बनाने की कोशिश है।
चूंकि अपने देश में कोई भी उत्सव बिना खाए-पिए मनता नहीं। इसी वजह से मैं चाहता हूं कि हम सब उन्हें गले मिलकर बधाई दें और अपनी इच्छा अनुसार अपना कंट्रीब्यूशन मिलाएं और समोसे तथा मिठाई मंगवाकर सभी साथ खएं।
शायद काम की जद्दोजहद के बीच ईद की बधाई देने का यह सबसे अच्छा तरीका हो सकता है।
पैसा देना आफ लिए बाध्यता नहीं है, मगर चीजों को यादगार बनाने में हमें अपना योगदान अवश्य देना चाहिए।
आपका दोस्त
(ईश्वर शर्मा)