साल बीतते-बीतते जो एक अच्छी खबर आई है, वो यह कि राजदीप सरदेसाई पेड न्यूज उर्फ पैसे लेकर खबरें छापने के धंधे के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं. प्रभाष जी के न रहने के बाद सबको यह शक था कि क्या कोई संपादक इस मुद्दे को उठाएगा और आगे ले जाएगा. पर राजदीप ने इस विषय को न सिर्फ उठाया है बल्कि एडिटर्स गिल्ड के जरिए भी इस पर एक स्टैंड लिया है. इसके लिए राजदीप की तारीफ की जानी चाहिए. इस ज्वलंत मुद्दे पर मुंह खोलकर राजदीप ने साबित किया है कि उनके अंदर का पत्रकार मरा नहीं है. उन्होंने पिछले दिनों दैनिक भास्कर में इसी मुद्दे पर एक बढ़िया लेख भी लिखा. उस लेख को हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं. उनका लेख उम्मीद बंधाता-जगाता है. आप भी पढ़िए. हम सभी राजदीप से आशा रखते हैं कि पैसे लेकर खबरें छापने के मुद्दे पर वे सिर्फ जागरूकता फैलाने के लेवल पर ही नहीं रह जाएंगे बल्कि खबरों की शुचिता से सौदा करने वाले संपादकों-मालिकों पर दबाव बनाएंगे-बनवाएंगे, और अगर तब भी ये खबरों को बेच खाने वाले मालिक-संपादक लोग न माने तो उनके नाम सार्वजनिक कर उनकी निंदा करेंगे और कराएंगे. इस अभियान में भड़ास4मीडिया राजदीप के साथ कदम से कदम मिलाकर खड़ा रहेगा. -एडिटर, भड़ास4मीडिया
खबरों की शुचिता
-राजदीप सरदेसाई-
हम ऐसे समय में रहते हैं, जब भ्रष्टाचार संस्थागत रूप ले चुका है। नेताओं से लेकर जज, वरिष्ठ नौकरशाहों से लेकर पुलिस अधिकारी, कारपोरेट के दिग्गजों से लेकर छोटे कर्मचारियों तक मानो हरेक की कीमत तय है। पत्रकार होने के नाते हमारे काम का तकाजा है कि हम भ्रष्टाचार के मामलों की पड़ताल करें और उन्हें उजागर करें। इसलिए जब एक मधु कोड़ा को जेल भेजा जाता है तो हम यह सोचकर खुश होते हैं कि कानून ने पूर्व मुख्यमंत्री को धर दबोचा। जब एक जज के खिलाफ आरोपों की वजह से महाभियोग की प्रक्रिया शुरू होती है तो हम संतोष व्यक्त करते हैं। जब एक इंफोटेक हस्ती को सजा मिलती है तो हम कंपनियों के कामकाज में सुधार की उम्मीद करते हैं। लेकिन जब कैमरा भीतर की ओर घूमता है, जब खुद खबर की कीमत तय होने लगती है, तब क्या होता है?
भ्रष्ट नेता या बिजनेस लीडर को जेल भेजा जा सकता है। जज के खिलाफ महाभियोग हो सकता है, बाबू पर भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। लेकिन खबर के बदले धन का समर्थन करने वाले संपादक-रिपोर्टर का क्या होता है? हाल ही में पत्रकारिता की जड़ों पर कुठाराघात करने वाली ‘पेड न्यूज’ का विवाद उस सिद्धांत के मर्म पर ही चोट करता है जिसकी शपथ से हम बंधे हैं। वह सिद्धांत है जवाबदेही का। जब हम अपने खुद के पेशे में उठ रहे तूफान के प्रति आंखें मूंदे रखते हैं तो हमें लोकतंत्र के दूसरे स्तंभों के खिलाफ कार्रवाई की मांग करने का क्या नैतिक अधिकार है?
पत्रकारों की बिरादरी खुद को नैतिक समझने वाली और सिनिकल होती है। सिनिसिज्म के चलते हम मानते हैं कि गिलास सदैव आधा खाली होता है। अपने को नैतिक समझने की वजह से जब हमें गिरते नैतिक मानदंड का दोषी ठहराया जाता है तो हम क्रोध से भर उठते हैं। ‘पेड न्यूज’ के संकट पर इन दोनों ही प्रतिक्रियाओं की जरूरत नहीं है। जरूरत व्यावहारिक कुशलता के साथ समस्या को स्वीकार करने की और साथ ही गिरती साख को बहाल करने के अवसर के रूप में देखने की है।
पहले तो हम समझें कि ‘पेड न्यूज’ क्या है। हाल ही के कुछ लेखों में जायज ‘एडवरटोरियल’ और खबरों की अनैतिक ‘बिक्री’ को एक मान लिया गया है। फर्क ‘घोषणा’ के सिद्धांत में है। अगर एक राजनेता या कारपोरेट घराना अखबार में संपादकीय जगह या टीवी पर एयरटाइम खरीदना चाहता है तो वह ऐसा कर सकता है, लेकिन इसके लिए उसे नियमानुसार इसकी घोषणा करनी होगी। जब राजनीतिक-व्यावसायिक ब्रांड गैर पारदर्शी ढंग से घुसा दिया जाता है, जब विज्ञापन फार्म या कंटेंट में साफ फर्क के बगैर खबर के रूप में पाठक या दर्शक के सामने आता है, तब वह खबरों की शुचिता का उल्लंघन है।
दूसरे, हमें यह समझने की जरूरत है कि ‘पेड न्यूज’ रातोरात घटी परिघटना नहीं है जो चुनाव ‘पैकेज’ के साथ शुरू हुई हो। मिसाल के लिए, फिल्म और खेल पत्रकारिता खबर और जनसंपर्क में फर्क मिटाने के लिए बाध्य की जाती रही है। कारपोरेट भारत राजनीतिक भारत से एक कदम आगे रहा है।
‘प्राइवेट ट्रीटीज’ पिछले कुछ वर्षों से अस्तित्व में हैं, जिनके जरिए अखबार बिजनेस समूहों के साथ कंपनी में हिस्सेदारी के बदले अनुकूल कवरेज का समझौता करते हैं। अनुकूल मीडिया कवरेज के लिए धन अदा करने वाले राजनीतिक उम्मीदवार की जीत की गारंटी नहीं होती, जबकि ‘प्राइवेट ट्रीटीज’ के जरिए कारपोरेट घराने को पत्रकारीय निष्पक्षता से बचने की लगभग अमिट गारंटी मिल जाती है।
तीसरे, हमें यह मानना होगा कि सभी संबंधित पक्षों में ‘पेड न्यूज’ को अपनाने का प्रलोभन आखिर क्यों बढ़ता जा रहा है। चुनावों के मामलों में अब यह रहस्य नहीं है कि सभाओं और प्रचार सामग्री पर नियंत्रण लगाकर अनाप-शनाप खर्चों को रोकने की चुनाव आयोग की कोशिशों के चलते चुनाव मे राजनीतिक धन का प्रवाह ‘भूमिगत’ ढंग से होने लगा है। शराब की तरह ‘पेड न्यूज’ इस ‘समानांतर’ चुनाव मशीनरी का हिस्सा है। केबल नेटवर्क और अखबारों पर कई क्षेत्रीय राजनीतिज्ञों के नियंत्रण के चलते खासकर स्थानीय मीडिया आसानी से मूल्यों से समझौता कर लेता है।
यही नहीं, हाल के वर्षों में न्यूज ‘बिजनेस’ के स्वरूप में बुनियादी बदलाव आए हैं। टेलीविजन पर और कुछ हद तक अखबार में खबरों की जगह संकुचित होती गई है और प्रतिस्पर्धा बाजार में वित्तीय दबाव बढ़ गए हैं। हालाकिं विज्ञापनों के राजस्व में वृद्धि हुई है, लेकिन बढ़ते खर्चो की वजह से वह बराबर हो गई है। अखबार की कीमत या चैनल के प्रसार राजस्व अब भी स्वीकृत मानदंडों से काफी कम है। इस कठिन बाहरी माहौल में ‘पेड न्यूज’ कुछ के लिए अस्तित्व बनाए रखने का रास्ता बन गई है। इस प्रक्रिया में पत्रकार व विज्ञापनदाता के बीच, खबर और मार्केटिंग के बीच मौजूद ‘चीन की दीवार’ लगभग गायब हो चुकी है।
तो भी ‘पेज न्यूज’ को जायज बनाने के लिए मार्केटिंग टीमों को दोषी ठहराकर हम पत्रकार के रूप में अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहे होंगे। अखबार के अंत में संपादक का नाम जाता है, प्रोप्राइटर या मर्केटिंग गुरु का नहीं। अखबार में जो छप रहा है या चैनल से जो प्रसारित हो रहा है, उसके लिए कानूनन संपादक ही जिम्मेदार है। सेल्स व मार्केटिंग प्रोफेशनल को राजस्व बढ़ाने का पैसा मिलता है, तो संपादकीय प्रोफेशनल को कंटेंट को बेहतर बनाने का। पत्रकार का काम कंटेंट को संपादकीय तौर पर बेहतर बनाना है, न कि उसे ऊंचे से ऊंचे दाम पर बेचना। इस संपादकीय बेहतरी में ईमानदारी और विश्वसनीयता के सिद्धांत बेहद अहम हैं, दोनों को नकद धनराशि से नहीं तोला जा सकता। बदकिस्मती से खबरों के वॉचडॉग के रूप में संपादक की घटती भूमिका और रातोरात उभरे मालिकों के चलते एक शून्य पैदा हो गया है जिसकी वजह से नियमों और मानकों के लगभग संपूर्ण क्षरण की स्थिति बन गई है।
यदि खबरों की साख घटाने में संपादकों की सहभागिता रही है तो अब उनकी शुचिता बहाल करने में भी उन्हें ही अग्रणी भूमिका निभानी होगी। यदि देश का हर संपादक ‘पेड न्यूज’ के मामले मे कठोर आचार संहिता का पालन करने पर सहमत हो जाए, यदि ‘घोषणा’ के नियमों के अनुपालन पर जोर दिया जाए तो इस कैंसर को फैलने से रोका जा सकता है। सही सोच रखने वाले ज्यादातर समाचार संस्थान स्वीकार करेंगे कि ‘पेड न्यूज’ अंतत: उनके ब्रांड को मिटा देगी और यह संपादकों पर है कि तमाम मीडिया फोरम के जरिए सही राह पर आने से इनकार करने वालों को शर्मिंदा और अलग-थलग करने के लिए पर्याप्त नैतिक दबाव डालें। प्रक्रिया धीमी हो सकती है, लेकिन इसकी सफलता इस पेशे के भविष्य के लिए बहुत अहम है। साभार : दैनिक भास्कर