‘देशोन्नति’ ग्रुप के चेयरमैन प्रकाश पोहरे ने एसएन विनोद के ‘राष्ट्रप्रकाश’ और ‘देशोन्नति’ ग्रुप से इस्तीफा दिए जाने के प्रकरण पर भड़ास4मीडिया से कहा कि राष्ट्रप्रकाश में एसएन विनोद और उनके बीच ज्वाइंट वेंचर होने की बात निराधार है। पोहरे के मुताबिक ‘राष्ट्रप्रकाश’ को शुरू करना एक साझा प्रयास था। साझा प्रयास को अगर कोई ज्वाइंट वेंचर मान बैठे और इसे कहता फिरे तो ये उसकी दिक्कत है। पोहरे ने सवाल किया कि अगर ज्वाइंट वेंचर था तो विनोद जी बताएं कि उन्होंने कितने पैसे लगाए थे। दूसरी बात, अगर कोई आम आदमी भी किसी के साथ ज्वाइंट वेंचर करेगा तो सब कुछ लिखत-पढ़त में रखेगा। विनोद जी ने हम लोगों के यहां बतौर इंप्लाई ज्वाइन किया था। यही सच है। पोहरे के मुताबिक एसएन विनोद ने वादा किया था कि ‘राष्ट्रप्रकाश’ के लिए 20 हजार पाठक वार्षिक आधार पर बनवाएंगे। प्रति पाठक दो सौ रुपये के हिसाब से कुल जितने रुपये होते हैं, इसमें हिस्सेदारी की बात तय हुई थी। सब्सक्रिप्शन की रसीदें भी छपवा ली गई थीं पर आज तक एक भी पाठक नहीं बनवा सके। उपर से दो करोड़ रुपये ‘राष्ट्रप्रकाश’ को निकालने में खर्च करा दिए, जो मेरी औकात से बाहर की चीज है।
‘राष्ट्रप्रकाश’ जिस कांसेप्ट से शुरू किया गया, उसे पाठकों ने स्वीकार नहीं किया। इसके चलते अखबार को सरकुलेशन नहीं मिला। मैंने एसएन विनोद को छह महीने तक फ्री हैंड दिया। कुछ भी करने की छूट दी। अब जबकि आर्थिक तौर पर स्थितियां बिगड़ने लगी थीं, कर्मचारियों में असंतोष का माहौल पैदा हो गया था, पाठकों ने अखबार को सौ फीसदी रिजेक्ट कर दिया तो मेरे आगे कोई विकल्प नहीं बचा। यह अखबार अक्टूबर में प्रकाशित होना था लेकिन लांच हुआ 28 फरवरी को। मैं लोगों को बिठाकर सेलरी देता रहा। उदघाटन के समय जो भारी-भरकम खर्च कराया गया- फाइव स्टार होटल बुक कराए गए, 20 पेज आल कलर और इंपोर्टेड पेपर में अखबार प्रकाशित किया गया, यह सब मैं नहीं चाहता था। लेकिन मैं आंख मूंदकर करता रहा।
देशोन्नति अखबार के 18 संस्करण निकलते हैं और सबसे महंगा अखबार होने के बावजूद पाठकों के बीच लोकप्रिय है। यह सब हम लोगों की मेहनत, संपादकीय समझ और किसानों के बीच काम के चलते है। मेरी कोई औद्योगिक पृष्ठभूमि नहीं है, न ही मेरे पीछे कोई फाइनेंसर खड़ा है। ‘राष्ट्रप्रकाश’ को लांच करने के लिए विनोद जी ने जो चाहा, किया। मैंने कभी नहीं रोका। उन्होंने इस अखबार के माध्यम से खुद को जमकर प्रमोट किया। अपनी होर्डिंग लगवाई, हर जगह खुद को को केंद्र में रखा। मैं चुप रहा क्योंकि मेरा विश्वास काम में रहता है। जब अखबार निकले लगा तो देखा कि अखबार में जो कुछ छप रहा है उसमें न तो विचार है और न ही समाचार। फिल्मी खबरें व तस्वीरें परोसी जा रही थीं। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने एक अप्रैल को इसे अपने नियंत्रण में ले लिया। अब इसके कंटेंट में बदलाव करवा रहा हूं। अखबार इस्टैबलिश कराने में जुटा हूं। जब मैं विनोद जी से कंटेंट को लेकर बात करता था तो वे अड़ जाते थे और जो कुछ चल रहा था, उसी को ठीक बताते थे। मेरा भी अखबार लाइन में 22 साल का अनुभव है। 11 जुलाई 2004 को देशोन्नति को बिना किसी ट्रायल के सीधे पाठकों के हाथ में हम लोगों ने उतारा था। विनोद जी ने राष्ट्रप्रकाश के लिए 25 बार ट्रायल कराया। मैंने कुछ नहीं कहा। छह महीने तक मैं चुप रहा। वे जो कहते रहे, मैं करता रहा।
पोहरे ने कहा कि वे राष्ट्रप्रकाश को विनोद जी को देना चाहते हैं। मेरे दो करोड़ रुपये खर्च हुए हैं, वे डेढ़ करोड़ देकर इसे ले जाएं। हम लोग कोई दूसरा अखबार निकाल लेंगे। मेरे दो करोड़ रुपये गड्ढे में चले गए। मेरी औकात नहीं है इतने पैसे खर्च करने की। उपर से मार्केट में मेरे बारे में विनोद जी ने लगातार नकारात्मक बातें कीं। रहा प्रश्न ज्वाइंट वेंचर का तो एक बार प्रेस कांफ्रेंस में विनोद जी ने राष्ट्रप्रकाश को ज्वाइंट वेंचर बताया तो पत्रकारों ने उनसे पूछा कि कितना शेयर उनका है। इस पर वे बोले कि ये आपस का मामला है। सही बात तो ये है कि आपस में शेयर और ज्वाइंट वेंचर जैसी कोई बात ही नहीं थी इसलिए वे इस बारे में कुछ कह नहीं सकते थे। अब वे अपने मनमुताबिक आरोप लगा रहे हैं। बहुत सारी बातें हैं जिसे मैं कहना नहीं चाहता। जो लोग उनके मनमुताबिक बातें करते हैं वे उनके प्रिय होते हैं और जिस किसी ने आलोचनात्मक बात कह दी, वे उनके दुश्मन हो गए। जो कर्मचारी मुझसे मिलने आ जाता था, वे उसकी नौकरी के पीछे पड़ जाते थे। विनोद जी के पास केवल बातें हैं, जिसके बहकावे में मैं आ गया। आखिर में मैं केवल इतना कहना चाहूंगा कि विनोद जी बहुत महान आदमी हैं, उनके साथ काम करना मेरे वश में नहीं है। उनसे अनुरोध करूंगा कि कभी अपने पैसे से अखबार निकालकर और चलाकर देखें, तब समझ में आएगा कि पैसे कितने खर्च होते हैं और रिटर्न किस तरह आता है। मेरे पास उन्हें नमस्ते कहने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था।