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‘प्रभाषजी ने बताया- सब कुछ ठहरा हुआ नहीं’

बालेन्दु शर्मा दाधीचसच, साहस और सरोकार, यानी प्रभाष जोशी : मैंने राजस्थान पत्रिका में अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत की थी। मेरे लिए वह सीखने का समय था। ‘पत्रिका’ दफ्तर में आने वाले प्रांतीय-राष्ट्रीय अखबारों को पढ़ने के लिए हम युवा मित्रों में होड़-सी लगी रहती थी। अखबारों के गट्ठर में जिस अखबार को उठाने के लिए सबसे पहले लपकते, वह था- ‘जनसत्ता।’ दर्जन भर अखबारों के बीच वह अलग ही दिखाई देता। बहुत प्रबल उपस्थिति थी उसकी। प्रभाषजी के संपादन में निकले इस नए अखबार ने कुछ महीनों में देश भर में युवकों को आकर्षित कर लिया था। जहां हिंदी पत्रकारिता में हम सब एक-सी लीक पीटने में लगे हुए थे और रोजमर्रा की खबरों को किसी तरह आकर्षक ले-आउट (अखबार का डिजाइन) में चिपका देने को ही बहुत बड़ी सफलता माने बैठे थे वहीं जनसत्ता ने हम सबको बड़ा झटका दिया था। सिर्फ पाठकों को ही नहीं, प्रबंधकों, पत्रकारों, संपादकों और नेताओं को भी। हिंदी पत्रकारिता के लिए लगभग ठहराव के से उस जमाने में प्रभाषजी ने हमें झकझोर कर बताया कि सब कुछ ठहरा हुआ नहीं है।

बालेन्दु शर्मा दाधीच

बालेन्दु शर्मा दाधीचसच, साहस और सरोकार, यानी प्रभाष जोशी : मैंने राजस्थान पत्रिका में अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत की थी। मेरे लिए वह सीखने का समय था। ‘पत्रिका’ दफ्तर में आने वाले प्रांतीय-राष्ट्रीय अखबारों को पढ़ने के लिए हम युवा मित्रों में होड़-सी लगी रहती थी। अखबारों के गट्ठर में जिस अखबार को उठाने के लिए सबसे पहले लपकते, वह था- ‘जनसत्ता।’ दर्जन भर अखबारों के बीच वह अलग ही दिखाई देता। बहुत प्रबल उपस्थिति थी उसकी। प्रभाषजी के संपादन में निकले इस नए अखबार ने कुछ महीनों में देश भर में युवकों को आकर्षित कर लिया था। जहां हिंदी पत्रकारिता में हम सब एक-सी लीक पीटने में लगे हुए थे और रोजमर्रा की खबरों को किसी तरह आकर्षक ले-आउट (अखबार का डिजाइन) में चिपका देने को ही बहुत बड़ी सफलता माने बैठे थे वहीं जनसत्ता ने हम सबको बड़ा झटका दिया था। सिर्फ पाठकों को ही नहीं, प्रबंधकों, पत्रकारों, संपादकों और नेताओं को भी। हिंदी पत्रकारिता के लिए लगभग ठहराव के से उस जमाने में प्रभाषजी ने हमें झकझोर कर बताया कि सब कुछ ठहरा हुआ नहीं है।

हिंदी में भी नया करने के लिए असीमित गुंजाइश मौजूद है। ‘जनसत्ता’ से हमने जाना कि अखबार क्या होता है, छपे हुए शब्दों की ताकत क्या होती है, इनोवेशन (नवीनता) क्या होता है। ऐसा लगता था जैसे हर खबर किसी भट्टी में तप कर खरा सोना बनकर निकली है। एक-एक शब्द का महत्व था। सामान्य सी खबरें जब जनसत्ता में छपती थीं तो दिलचस्प हो जाती थीं। रोजमर्रा की घटनाओं के पीछे व्यापक अर्थ दिखाई देने लगते थे। कितनी सरल, देसज, किंतु दमदार भाषा! कितना चुस्त संपादन! खबरों का कितना सटीक चयन! कितनी निष्पक्षता और कितनी निडरता!

प्रभाषजी के जनसत्ता को हम लगभग उतनी ही तल्लीनता के साथ पढ़ते थे जैसे जेम्स बांड का कोई उपन्यास पढ़ रहे हों। रोज उसके आगमन का वैसे ही इंतजार करते थे जैसे कि छुट्टी पर घर लौटने वाला नया-नवेला रंगरूट विलंब से चल रही रेलगाड़ी का करता है। यह एक चमत्कार था। लगता था, स्वाधीनता आंदोलन के लंबे अरसे बाद पत्रकारिता का गौरवशाली युग लौट आया था। इस सबके पीछे जादू था प्रभाष जोशी का, जो योजनाकार, प्रबंधक, संपादक, भाषा-शास्त्री, एक्टिविस्ट, डिजाइनर और टीम-लीडर जैसी कितनी ही भूमिकाएं एक साथ, एक जैसी कुशलता के साथ निभा रहे थे। पत्रकारिता की जनसत्ता शैली आज प्रिंट से लेकर टेलीविजन और ऑनलाइन मीडिया तक फैल चुकी है। उस शैली के शिल्पकार प्रभाष जोशी ही थे।

निष्पक्षता की हद!

राजस्थान पत्रिका के बीकानेर संस्करण में बतौर डेस्क इंचार्ज काम करते हुए मैंने इंडियन एक्सप्रेस समूह पर सीबीआई के छापे की खबर पढ़ी। यह देखकर मैं भौंचक्का रह गया कि ‘जनसत्ता’ ने अपने प्रभात संस्करण में यह खबर एजेंसी के माध्यम से दी थी। प्रभाषजी निष्पक्षता के लिए इस हद तक जा सकते हैं कि खुद अपने ही प्रतिष्ठान पर हुए हमले की खबर दूसरे स्रोतों के जरिए छापें! ऐसा उदाहरण मैंने कोई और नहीं देखा जब किसी संस्थान ने खुद अपने बारे में भी तटस्थ माध्यम से खबर दी हो। रिलायंस और बोफर्स जैसे मुद्दों पर केंद्र सरकार के विरुद्ध खड़े होने का परिणाम एक्सप्रेस समूह ने लंबे समय तक भोगा था। लेकिन प्रभाषजी का ‘जनसत्ता’ दमन का सामना करते हुए भी सत्यनिष्ठा और निष्पक्षता के पत्रकारीय मानदंडों को नहीं भूला।

मैंने इसी घटना से प्रभावित होकर, प्रभाषजी की टीम का हिस्सा बनने का सपना देखा था। सच की लड़ाई में मेरे जैसे कई युवक उनके साथ खड़े होना चाहते थे। संयोगवश, कुछ महीने बाद मुझे इसका अवसर भी मिला जब ‘जनसत्ता’ ने नए लोगों की भर्ती का विज्ञापन निकाला। अखबार में चयनित होने के बाद हर दिन प्रभाषजी से कुछ न कुछ सीखा- कभी सीधे, तो कभी परोक्ष रूप में।

कमाल का आदर्शवाद था उनका- जनसत्ता को आम आदमी की आवाज बनना है। सिर्फ उसी के प्रति जवाबदेह हैं हम। हमें प्रतिष्ठान पर अंकुश लगाने वाले जन माध्यम की भूमिका निभानी है। व्यक्तिवाद के लिए कहीं जगह नहीं थी। निर्देश था कि प्रभाषजी से जुड़े आयोजनों की खबरें ‘जनसत्ता’ में नहीं छपेंगी। वह भी क्या जमाना था! रामनाथ गोयनका जैसे फायरब्रैंड अखबार मालिक और प्रभाष जोशी तथा अरुण शौरी (इंडियन एक्सप्रेस) जैसे संपादक। अरुण शौरी भले ही कई मायनों में बड़े पत्रकार, राजनीतिज्ञ और लेखक रहे हों लेकिन प्रभाष जी की बात कुछ और थी। उनकी सोच, ज्ञान, प्रतिभा और क्षमताओं का दायरा कहीं बड़ा और विस्तृत था।

‘जनसत्ता’ जो भी लिखता, बड़े अधिकार एवं प्रामाणिकता के साथ लिखता। खबर किसके पक्ष में है और किसके खिलाफ, यह कभी किसी ने नहीं सोचा। अगर कुछ गलत है तो उसका प्रबलता से विरोध करना है। भले ही परिणाम जो भी हो। और अगर कोई सही है तो उसके साथ खड़े होने में संकोच एक किस्म का अपराध है। मुझ जैसे पत्रकारों, जिन्हें जनसत्ता की सफलता के दौर में वहां प्रशिक्षण पाने का मौका मिला, को प्रभाषजी के दिए संस्कारों, उनके सिखाए मूल्यों और आदर्शों से इतना कुछ मिला है कि वह जीवन भर हमारे मार्ग को निर्देशित करेगा। नए-नवेले पत्रकारों की टीम को सिर्फ पत्रकारिता, भाषा और प्रयोगवाद की दीक्षा ही नहीं दी, सार्थक जीवन के मायने भी सिखाए। प्रभाष जी के आलोचक भी थे लेकिन पत्रकार और लेखक प्रभाष जोशी की बजाए वे प्रबंधक प्रभाष जोशी के विरुद्ध अधिक थे। कुछ अवसर ऐसे भी आए जब किसी मुद्दे पर उनके निजी रुख पर मैंने भी असहज महसूस किया। लेकिन क्या ये छोटी-छोटी बातें उनके समग्र व्यक्तित्व या कृतित्व के आगे कहीं ठहरती हैं? उनके मन में किसी के प्रति दुर्भावना रही हो,ऐसा मुझे कभी नहीं लगा। कोई व्यक्ति सिर्फ इसीलिए गलत नहीं हो जाता कि उसने जो निर्णय लिया वह हमारे पक्ष में नहीं था। विरोध में होने वाला हर निर्णय गलत नहीं होता, हां जिसके विरुद्ध वह जाता है, उसे अवश्य लगता है कि उसके साथ अन्याय हुआ। लेकिन क्या वही सच है? फिर यह भी क्यों भूला जाए कि अंततः वे भी एक इंसान ही थे! आकलन इस आधार पर होना चाहिए कि उन्होंने समाज से कितना लिया और उसे कितना दिया।

वे बदलाव चाहते थे

वे सिर्फ सुयोग्य ही नहीं थे। वे सिर्फ प्रतिबद्ध मात्र भी नहीं थे। वे समाज और राजनीति में बदलाव लाने के लिए बेचैन एक्टिविस्ट भी थे। वे समाज में बड़ा बदलाव लाना चाहते थे. उसे सकारात्मक, समावेशी, उदार, जीवंत बनाने के लिए योगदान देना चाहते थे। उन्हें अखबार की दुनिया से बाहर आकर कोई बड़ी भूमिका निभाने का मौका नहीं मिला। यदि मिलता तो शायद वह एक अलग अध्याय होता। उनकी विचारधारा पर गांधी का गहरा असर था। लेकिन प्रभाषजी में ऐसा बहुत कुछ था जो उनका अपना था। बहुत मौलिक, गहन मंथन और अनुभवों के बाद निकला हुआ। ‘जनसत्ता’ के पन्नों पर कभी यह उनके खून खौला देने वाले विशेष मुखपृष्ठ संपादकीय में दिखता था (ऐसे संपादकीय स्व॰ इंदिरा गांधी और स्व॰ राजीव गांधी सरकारों की ज्यादतियों के प्रति एक्सप्रेस समूह के प्रबल प्रतिरोध की अभिव्यक्ति होते थे), तो कभी साहित्यिक गहराई एवं शिल्प-कौशल से परिमार्जित उनके स्तंभों ‘मसि-कागद’ एवं ‘कागद-कारे’ में। उनकी लेखन क्षमता को देखकर हैरानी होती थी। साफ-सुंदर, जमा-जमा कर लिखे गए शब्द, जिनकी शिरोरेखाएं घुमावदार होती थीं। एक के बाद एक कितने ही पन्ने लिखते चले जाते थे। जब वे क्रिकेट विश्व कप का कवरेज करने गए तो इतना कुछ लिखा कि दो-तीन किताबें छप जाएं। और सब का सब बेहद दिलचस्प, एक्सक्लूजिव और तेज! लगभग साठ साल की उम्र में उन्होंने ऐसी रिपोर्टिंग की जिसकी उम्मीद नौजवान रिपोर्टरों से नहीं की जा सकती।

हिंदी पत्रकारिता के प्रति उनका योगदान इतना अधिक है कि उन्हें आधुनिक हिंदी पत्रकारिता का पर्याय समझा जाने लगा था। लोकप्रियता का आलम वह कि ‘जनसत्ता’ हिंदी ही नहीं, अंग्रेजी अखबारों से भी होड़ लेता था। शायद ऐसा पहली बार हुआ था जब किसी हिंदी अखबार के संपादक को विशेष संपादकीय लिखकर अपने पाठकों से अनुरोध करना पड़ा हो कि अब वे अखबार को मिल-बांटकर पढ़ें क्योंकि हमारी मशीनों में इतनी क्षमता नहीं कि वे छपाई की और अधिक मांग पूरी कर सकें।

विद्रोही तेवर और वैचारिक गहनता का प्रतीक जनसत्ता धीरे-धीरे भारतीय पत्रकारिता के सबसे लोकप्रिय, पठनीय एवं प्रबल प्रतीकों में बदल गया था। वहां सनसनीखेज पत्रकारिता नहीं थी, जन-सरोकारों को आगे बढ़ाने वाली पत्रकारिता थी। यह प्रभाषजी के नेतृत्व का ही परिणाम था कि दिल्ली के सिख विरोधी दंगों के दौरान जनसत्ता ने सर्वत्र व्यापी उन्माद के विरुद्ध खड़े होने का साहस दिखाया और दंगापीङ़ितों के पक्ष में पत्रकारिता की। अब वह सब हिंदी पत्रकारिता के इतिहास का हिस्सा है। अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के विरोध में उन्होंने अडिग स्टैंड लिया और जीवन पर्यंत उस पर कायम रहे। उस समय हुए दंगों के विरोध में रविवारी जनसत्ता में मंगलेश जी (डबराल) ने विशेष अंक निकाला था जिसमें प्रभाषजी और गिरधर राठी के साथ-साथ मैंने भी एक लेख लिखा था और प्रतिक्रिया में उन्हें ढेरों धमकी भरे पत्र मिले थे तो कुछ मेरे हिस्से में भी आए थे। पीड़ित, दमित और वंचित लोगों के हक में खड़े होने की बातें करते तो बहुत हैं लेकिन व्यावहारिकता की सीमाओं से ऊपर उठकर कितने लोग वास्तव में ऐसा करते हैं? प्रभाषजी ने दिखाया कि पत्रकारिता के उद्देश्यों और सार्थकता के बारे में जो कुछ हमने पढ़ा था वह सिर्फ किताबी नहीं था। सब जगह से निराश, हारे-थके व्यक्ति के लिए उन दिनों एक ठिकाना जरूर था, और वह था जनसत्ता।

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प्रभाषजी नहीं रहे। लेकिन उनके संस्कार तो हैं! उनके जीवन-मूल्य तो हैं! प्रभाषजी की तराशी हुई टीम तो है, भले ही अलग-अलग स्थानों पर और अलग-अलग भूमिकाओं में। वह उनके सिखाए को आगे बढ़ाएगी। अपने विचारों और मूल्यों के रूप में प्रभाषजी सदा हमारे बीच रहेंगे- एक मार्गदर्शक बनकर।


लेखक बालेन्दु शर्मा दाधीच लोकप्रिय हिंदी पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक हैं.
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