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‘फूल चढ़ा पल्ला झाड़ो या धूल को भस्म बनाओ’

प्रभाष जी का पार्थिव शरीर.

उनका चेहरा नीला पड़ गया था। मुझे लगा कि यह मृत्यु के गरल का असर है। लेकिन मित्रों ने बताया कि शव को खराब होने से बचाने के लिए किए गए चिकित्सकीय लेप ने ऐसा किया है।

प्रभाष जी का पार्थिव शरीर.

प्रभाष जी का पार्थिव शरीर.

उनका चेहरा नीला पड़ गया था। मुझे लगा कि यह मृत्यु के गरल का असर है। लेकिन मित्रों ने बताया कि शव को खराब होने से बचाने के लिए किए गए चिकित्सकीय लेप ने ऐसा किया है।

सफेद शॉल और पुष्पों से पटी देह के ऊपर प्रभाष जी का सिर्फ चेहरा नजर आ रहा था। आज भी उनका चेहरा मैं पूरा नहीं देख सका। ठीक वैसे ही जैसे, जब कभी उनसे सामना हुआ तो बच्चों की सी झिझक के कारण कभी बात करने की हिम्मत ही नहीं हुई। हिम्मत होती भी तो कैसे। 70 के ऊपर की उम्र में वो आदमी खांटी पत्रकार बना हुआ था। जलती आग को छेड़ देता था। अपने प्रिय या अप्रिय, सबके बारे में तुरंत डटकर बोल देता था। हमारे संपादकों के संपादक उनके जीवंत विश्वविद्यालय से निकले छात्र होते थे जबकि हम पत्रकारिता के उस अजाब में पैदा हुए जहां बच्चे को घुटनों पर चलने से आगे बढ़ने की इजाजत नहीं होती और मैंने कभी घुटनों को सीधा करने की कोशिश नहीं की। ब्रांडेड खबरों को अखबार में चिपकाने वाला पेस्टर कागज पर काली स्याही अंकित करने वाले संपादक की तरफ जिज्ञासा से अधिक किस भाव से देख सकता है।

खैर, मैंने देखा कि गांधी शांति प्रतिष्ठान के अहाते में आडवाणी और कई अन्य नेता इस पत्रकार को श्रद्धांजलि देने आए। कई मीडिया आइकन बिखरे बालों मे बिना नहाए वहां खड़े हैं। इनमें से कई बहुत सबेरे ही जोशी जी के वसुंधरा वाले घर पहुंच गए थे।

दोपहर ढाई बजे दिल्ली वालों के प्रभाष जी से मिलने की मियाद खत्म हो गई। खुले ताबूत में रखी उनकी मिट्टी को उठाकर एंबुलेंस में रखा गया। वे पत्रकार थे, इसलिए तोपों की सलामी या झुके झंडों का गौरव उनके प्रोटोकॉल में नहीं था। तभी तिलक ब्रिज स्टेशन के पास से कोई ट्रेन गुजरी। ट्रेन के हॉर्न की आवाज कुछ ऐसी महसूस हुई, जैसे मातम के वक्त बजाए जाने वाले सेना के बिगुल की होती है। एंबुलेंस का दरवाजा बंद हो गया। प्रभाष जी की मिट्टी अपनी माटी से मिलने वापस मालवा लौट चली।

मुझे प्रभाष जी के कागद कारे में कई साल पहले लिखी बात याद आई। प्रभाष जी ने लिखा कि देश के एक बड़े अंग्रेजी अखबार के मालिक ने उनसे कहा ‘आप भारत के आखिरी संपादक हैं।’ आगे का वाक्य एकदम याद नहीं आ रहा, पर भाव यही था कि अखबारों में संपादकी करने का जमाना गुजर गया। संपादक का जमाना गुजरने के कई साल बाद प्रभाष जी गुजरे। लेकिन जाने के पहले अखबार में चुनावी पैकेज बेचने का जो मुद्दा उठाया, उसकी मशाल उन्होंने किसे सौंपी, यह पता नहीं।

गांधी शांति प्रतिष्ठान की उस खामोश दोपहर में तमाम पत्रकारिता प्रतिनिधि मौजूद थे, शायद उनमें से किसी ने उनकी धूल को अपने लिए भस्म बनाने का फैसला किया हो।

पीयूष बबेलेया फिर यह भी हो सकता है सबने श्रद्धा के सुमन भेंट कर अपना पल्ला झाड़ लिया हो।


लेखक पीयूष बबेले दिल्ली में इकनॉमिक टाइम्स, हिंदी के पत्रकार हैं.

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