बाद ए मुख़लिफ़ से न घबरा ए उक़ाब, ये तो चलती हैं तुझे ऊंचा उड़ाने के लिए : दुनिया में बहुत कम लोग होते हैं जो व्यक्ति की सीमा से आगे बढ़कर संस्थान का रूप ले लेते हैं. प्रभाषजी कुछ उन्हीं श्रेणी में थे. पत्रकारिता उनके लिए पेशा नहीं था, जीवन था, उनकी साधना थी. 60 की उम्र के बाद लोग जिन्दगी की थकान मिटाने की कोशिश करते हैं.
पर प्रभाष जी का आंदोलन 72 की उम्र में पत्रकारिता, राजनीति और समाज में फैली अशुद्धियों के परिष्कार के लिए अपने चरम पर रहा. पिछले कुछ समय में उन्हें जितने तरीकों से घेरने की कोशिश की जा रही थी, उसने तो जैसे उनमें और ऊर्जा भर दी थी. जिस मकसद से ऐसे लोगों ने षडयंत्र रचा था उन्हें अब विनम्रता से माफी मांग लेनी चाहिए, प्रभाष जी माफ कर देंगे.
अपनी बात कहूं तो कंधे पर हाथ रखने की जिस घटना का यशवंत जी ने ज़िक्र किया, उससे मुझे भी कई सारी बातें याद आ गयीं. प्रभाष जी से जब भी मिलना हुआ तो ऐसा कभी नहीं लगा कि वो बहुत बड़े पत्रकार हैं और मैं पत्रकारिता का ककहरा खीख रहा एक युवा. ये उनका बड़प्पन था कि किसी भी मिलने वाले को इसका अहसास नहीं होने देते थे. पहली बार उनसे मुलाकात 1994 में दिल्ली विवि के एक कॉलेज में वाद-विवाद प्रतियोगिता के दौरान हुई. उस समय वाद-विवाद प्रतियोगिताओ में हिस्सा लेना हम लोगों के लिए जुनून की तरह होता था, प्रभाष जी उस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि थे. प्रतियोगिता के बाद चाय-नाश्ते का भी आयोजन था, उस दौरान हम सभी प्रभाष जी को घेर कर खड़े हो गये, उनके पास हमेशा ही सुनाने को अनंत घटनाएं हुआ करती थीं, बातचीत में मैंने प्रभाष जी से एक सवाल किया, जवाब देने से पहले उन्होंने अपना हाथ मेरे कंधे पर रख दिया, लगा जैसे पता नहीं कब से मुझे जानते हों, मैं आह्लादित, अभिभूत, मेरे सवाल का उन्होंने क्या जवाब दिया, उस ओर मेरा ध्यान ही नहीं रहा और फिर जब कभी प्रभाष जी का ध्यान आया, ये एहसास भी साथ रहा कि उनका हाथ मेरे कंधे पर रखा है. एक झटके में किसी को भी अपना बना लेने की उनकी ये अदा अरसे बाद समझ में आयी, दरअसल ये प्रभाष जी की सहजता थी जो हर मिलने वाले को उनके करीब ला देती थी.
प्रभाष जी से दूसरी मुलाकात हुई जब मैं दिल्ली विवि के दक्षिण परिसर में पत्रकारिता कोर्स में दाखिले के लिए साक्षात्कार देने पहुंचा. साक्षात्कार प्रभाष जी ही ले रहे थे. फिर तो जैसे उनसे एक संबंध सा बन गया. पत्रकारिता में आया तो दिल्ली थोड़े दिन ही रहने का मौका लगा फिर पटना, लखनऊ और हैदराबाद होते हुए दिल्ली वापस आया तो सहारा टीवी में जगह मिली और इस रूप में ये सुकून भरा रहा कि यहां कई बार प्रभाष जी से मिलने का मौका लगा. हम लोगों ने चाहे क्रिकेट या फिर राजनीति या और किसी मुद्दे पर, उन्हें जब भी बुलाया उन्होंने न नहीं किया. एक बार तो जब वो आए तो कार्यक्रम की समाप्ति के बाद हम लोगों के साथ घंटों बैठे. कैसे अपनी पत्रकारिता की शुरुआत की और कैसे लंदन में धोती-कुर्ता पहन कर उन्होंने क्रिकेट मैच की रिपोर्टिंग की, उनका सारा अनुभव हम लोग बड़े मन से सुनते थे. अध्ययन, मनन और उसके बाद गूढ़ बातों को सहजता से रख देने की कला क्या होती है प्रभाष जी इसके साक्षात उदाहरण थे.
सच तो ये हैं कि पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान जब भी हम लोगों ने हिन्दी में प्रभावी और सहज लेखन के लिए किसे पढ़ा जाए ये जानना चाहा तो सबसे पहला नाम प्रभाष जोशी जी और रामबहादुर राय जी का ही आया. फिर तो इन दोनों को पढ़ना हम लोगों ने अपना धर्म बना लिया. अगर कहें कि प्रभाष जोशी और जनसत्ता न होते तो हमारी उम्र की एक पूरी पीढ़ी के लिए पत्रकारिता के मायने ही बदल गये होते तो बात गलत न होगी. वैसे ये जुदा बात है कि अपने अंतिम समय में प्रभाष जी ने पत्रकारिता के बदलते और बिगड़ते मायने को बड़े करीब से देखा और पूरे दम से अपनी खींची लकीर को गहरा करने की कोशिश में जुटे रहे. उनकी ये लकीर कितना प्रभाव बनाए रखती है, ये तो समय बताएगा लेकिन इतना तय है कि उनसे सीधे तौर पर जुड़े रहकर पत्रकारिता सीखने वाले पत्रकारों की फौज हो या फिर अप्रत्यक्ष तौर पर उनकी प्रेरणा से पत्रकारिता करने वाले हम जैसे पत्रकार, प्रभाष जी ने जितने रक्तबीज छोड़े हैं, वो अलख जगाते रहेंगे.
और अंत में एक शेर के ज़रिए प्रभाष जी को अपनी श्रद्धांजलि देना चाहूंगा…. लगता है जैसे गैरत भरे हर पत्रकार से वो यही कह रहे हों…..
बाद ए मुख़लिफ़ से न घबरा ए उक़ाब,
ये तो चलती हैं तुझे ऊंचा उड़ाने के लिए।
नम आंखों और कई यादों के साथ मैं प्रभाष जी को श्रद्धांजलि देता हूं.