सचिन की आतिशी पारी के बावजूद भारत की हार के साथ हिंदी पत्रकारिता के शिखर पुरुष और क्रिकेट के जबर्दस्त रसिक प्रभाष जोशी इतने मायूस हुए कि दुनिया को ही अलविदा कह दिया। प्रभाष जी- जो क्रिकेट और टेनिस के दीवाने थे- अपने शब्दों के जरिए पाठकों और क्रिकेटप्रेमियों की चेतना को झकझोरते रहे, सचिन के 17 हजार रनों पर लिखने की तमन्ना को दिल में लिए ही जहां से कूच कर गए।
अफसोस, उनका सफर वहां खत्म हुआ, जहां असंभव को संभव बनाने देने वाले सचिन तेंदुलकर अपने आसाधारण खेल से दुनिया की नंबर एक क्रिकेट टीम ऑस्ट्रेलिया के मुंह से जीत को छीन कर भारत के हक में लाते-लाते रह गए। जहां सचिन सबसे ज्यादा रन बनाकर भी टीम को जीत नहीं दिला पाए, उसी तरह प्रभाष जोशी भी सचिन तेंदुलकर के रिकॉर्ड पर लिखने से पहले चले गए …दरअसल, प्रभाष जी पेशेवर पत्रकार की तरह क्रिकेट पर कलम नहीं चलाते थे, बल्कि एक विकट क्रिकेटप्रेमी की तरह इस खेल और इसके खिलाडि़यों पर अपनी भावनाएं व्यक्त करते थे। क्रिकेट के प्रति उनके प्रेम को लेकर खेल पत्रकार अमित रायकवार ने देश के कुछ बड़े क्रिकेटरों और खेल संपादको से खास बातचीत की। प्रस्तुत है संपादित अंश :
प्रभाष जी जैसा संपादक नहीं मिल सकता, जो खेल को बढ़ावा दे। शुरूआत से ही उन्होनें खेल को जनसत्ता का मजबूत पहलू बनाया। उनका एकमात्र लक्ष्य था कि हम खेलों के मामले में इंग्लिश अख़बारों से मुकाबला करें, किसी भी मायने में उनसे पीछे नहीं रहें। यही वजह थी जनसत्ता शुरूआती वर्षों में हमने रात 3:30 बजे 1986 में मेक्सिको में हुआ फुटबॉल वर्ल्ड कप टेलीविजन पर देखकर कवर किया। पहले पेज पर उस विश्वकप के हीरो और फुटबॉल के महानतम खिलाडि़यों में से एक माराडोना की तस्वीर थे। सुबह जब लोगों के हाथ में अखबार आया, तो सब हैरान थे कि सुबह साढे तीन बजे खत्म होने वाले मैच कैसे सबके सामने आ गया। वो चाहते थे कि खेलों में हम सबको पछाड़ें, इसलिए देर रात तक काम करके हमने ताजा से ताज़ा खबरे दीं। उनका क्रिकेट प्रेम जगजाहिर है। क्रिकेट के तो वे किताबी कीड़े थे। सन् पचास से लेकर सचिन तक, अब तक जितने खिलाड़ी हुए, वे कैसा खेलते थे, वो उनको मुंहजबानी रटा हुआ था। खास तौर पर वो सुनिल गावस्कर और सचिन तेंदुलकर के बड़े प्रशंसक थे। सचिन की तो वे आलोचना भी नहीं सुन सकते थे। उनके राज में चाहे शतरंज हो या स्नूकर या फिर हो कुश्ती, फुटबॉल, सभी को अच्छी तरह कवर किया गया। और, खेल पर वे एक बड़ा पन्ना निकालते थे… वो पन्ने आज भी लोगो ने बड़े संभालकर रखे हुए हैं यादगार के तौर पर।
-सुरेश कौशिक, खेल संपादक, जनसत्ता
प्रभाष जी क्रिकेट के असली दीवाने थे। मुझे याद है जब 1977-79 में वे चंढीगढ़ में इंडियन एक्प्रेस के संपादक थे, तब इंडियन एक्सप्रेस के एक टेक्नीशियन के पास एक टेलीविजन हुआ करता था और वे कुछ जुगाड़ करके भारत-पाकिस्तान का मैच देखते थे। मैं भी उनके साथ मैच देखता था। वो पूरे नौ से पांच बजे तक एक छोटे से रूम में क्रिकेट देखते रहते थे। उसी दौरान उनसे मुलाकात हुई और क्रिकेट पर काफी डिस्कशन होने लगे। फिर उन्होनें मुझे इंडियन एक्प्रेस अख़बार में नौकरी का ऑफर दिया। अंग्रेजी और हिंन्दी दोनों भाषाओं पर उनकी जबर्दस्त पकड़ थी।
प्रभाष जी क्रिकेट के मौजूदा हालात को देखते हुए काफी दुखी रहते थे। आईपीएल और इतना पैसा खेल को बरबाद कर रहा है। वो बडे़ प्योरिस्ट और ट्रेडिशनल थे। उन्हें इस बात का हमेशा दुख रहता था कि आज का क्रिकेट वो पुराना वाला क्रिकेट नहीं रहा। वो आज भी क्रिकेट पर इतना ही अच्छा बोलते थे, जितना पच्चीस साल पहले। क्रिकेट के नॉलिज में उनका कोई मुकाबला नहीं था और वो क्रिकेट की टेक्निकल चीज़ों के बारे बहुंत जानते थे। युवावस्था में वे खुद भी क्रिकेट के बहुत अच्छे खिलाड़ी रहे थे और लेफ्ट आर्म स्पिन गेंदबाजी करते थे। उन्हें अपने छोटे बेटे से काफी उम्मीदे थी कि वो आगे चलकर हिंदुस्तान के लिए खेलेगा। उनके छोटे बेटे हरियाणा से रणजी ट्रॉफी खेले थे।
प्रभाष जी में सबसे बड़ी खूबी ये थी कि वो बहुत ईमानदार थे। जिन खेल पत्रकारों को क्रिकेट की नॉलिज होती थी, उन्हें वे बड़ा प्रोत्साहित करते थे। मुझे भी उन्होने काफी प्रोत्साहित किया। उनकी वजह से मेरे कॅरियर को सही दिशा मिली। अक्सर वे बड़े मैच मुझे कवर करने के लिए दिया करते थे, जिसकी वजह से मेरा कॅरियर अच्छा बन पाया। पॉलिटिक्स की समझ की वजह से उनकी क्रिकेट की पॉलिटिक्स की समझ काफी अच्छी थी। कपिल देव ने जब क्रिकेट खेलना शुरू किया और जब कपिल किसी विदेशी दौरे पर जाते थे, तो प्रभाष जी अपने पास कपिल को बुलाते थे और समझाते थे कि ‘डाउन टू अर्थ’ रहो, ग्लैमर की दुनिया आदमी को ख़राब भी कर सकती है। अगर क्रिकेट के प्रति आपकी कमिटमेंट रहेगी तो आप काफी आगे जाओगे। उन्होने काफी युवा खेल पत्रकारों को बढ़ावा दिया। जब 1982 में दिल्ली में एशियन गेम्स हुए, तब इंडियन एक्सप्रेस का सेंट्रल डेस्क बना और प्रभाष जी उसके हेड बने। उनके मार्गदर्शन में क्रिकेट अलावा बाकी खेलों को भी बढावा दिया गया। कई सीनियर क्रिकेटर उनकी काफी इज्जत करते थे। उनसे हमेशा सर, सर कहकर बात करते थे। उन्होंने क्रिकेट से जुड़े कई बड़े मुद्दों को उछाला और क्रिकेट को विस्तार से कवर किया, चाहे वो देश में हो या विदेश में।
-प्रदीप मैग्जीन, खेल सलाहाकार, हिंदुस्तान टाइम्स
काफी नेक इंसान थे प्रभाष जी। जब हम छोटे से थे, काफी प्रोत्साहित किया करते थे हमें। उन्होंने हमारे साथ प्रेस जैसा व्यवाहर नहीं किया। जब भी मुझे उनकी जरूरत होती थी, तो वो हमेशा मेरे साथ खड़े होते थे। उन्होने जिंदगी हमसे कहीं ज्यादा देखी थी… अपने अनुभव से वो हमेशा मुझे समझाते रहते थे। क्रिकेट के वे बहुत बड़े लेखक थे। बाद में वो दिल्ली आ गए, फिर उनसे थोड़ा संपर्क छूट गया, लेकिन जब भी मिलते थे, पुराने दिनों को याद करके उनमें खो जाया करते थे।
-कपिल देव, भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान
वे बहुत ही क्वालीफाइ राइटर थे। जर्नलिज्म की दुनिया में बहुत आदरणीय शख्सियत थे। अपने निजी फायदे के लिए नहीं लिखते थे और उसूलों वाले व्यक्ति थे। मेरे क्रिकेट कॅरियर के दौरान उन्होंने मुझे काफी क्रिटिसाइज भी की, लेकिन मैंने हमेशा उनकी बातो को पॉजिटिव लिया।
-बिशन सिंह बेदी, भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान
काफी स्पष्टवादी जर्नालिस्ट थे। फ्रैंक थे, ब्लंट थे और बहुत ही ईमानदारी से पत्रकारिता करते थे। वो एक ऑलराउंडर खिलाड़ी थे, जितनी जानकारी उनकी पॉलिटिक्स में थी, उतनी ही क्रिकेट में। एक बड़ा ऊंचा स्थान था उनका पत्रकारिता में। उनके ना होने से पत्रकारिता जगत की बड़ी क्षति हुई है। अक्सर जब उनसे क्रिकेट के बारे में बाते होती थीं, तो सुनकर आश्चर्य होता था कि उन्हें क्रिकेट की कितनी नॉलिज है।
-चेतन चौहान, पूर्व सलामी बल्लेबाज़, भारतीय क्रिकेट टीम
प्रभाष जी को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि। मेरे टीवी शो ‘मुकाबला’ के क्रिकेट शो के अलावा वे बाकी शो में भी हिस्सा लेते थे। गुरूवार को जब भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच मैच चल रहा था, सचिन ने 175 रनों की यादगार पारी खेली। सचिन उनके सबसे मनपसंद खिलाड़ी थे, उन्हें देखते-देखते वो दुनिया से गए हैं।
जब बाबरी मस्जिद गिराई गई, उसके बाद बीजेपी और संघ परिवार पर उन्होनें जितना लिखा और खुल कर लिखा, बहुत कम लोगो ने लिखा। और, आरएसएस पर उन्होंने काफी काम भी किया हुआ था और काफी पढ़ाई भी की हुई थी। मैं आज ही सुबह उन्हें याद कर रहा था उन्हें कि किस तरह उन्होंने संघ और आजादी की लड़ाई से संघ के जो लोग जुड़े हुए थे, उन पर काफी विस्तार से लिखा था। वीर सावरकर और संघ परिवार के बीच किस तरह के वैचारिक मतभेद थे, उसपर खुल कर लिखा। उन्हें पढ़ें, तो उनकी गहराइयों का पता चलता है।
ऐतिहासिक चीजों को आज से लाकर वो जोड़ देते थे। अभी हाल के दिनों में उन्होंने इस विषय पर खूब लिखा कि चुनावों के दौरान समाचार पत्रों की किस तरह की भूमिका रही। चुनाव के दिनों में पैसा लेकर खबरों को छापा गया। हाल के दिनों में उन्होनें जो काम किया, वो काफी सराहनीय है। एक तरह से पब्लिक इंटेलेक्चुअल की तरह उनकी भूमिका थी। वो चीज, जो लोगों के मन में आ रही है, उसे सही परिप्रेक्ष्य में रखना और अपनी बात कहना, ये उनकी खासियत थी।
उनकी एक खासियत और थी, उन्होंने जनसत्ता की जो टीम बनाई, वो जबर्दस्त थी। एक समय में जनसत्ता को चौथा थाना कहा जाता था। माना जाता था कि अगर पुलिस आपकी रिपोर्ट नहीं लिख रही है, तो आप जनसत्ता जाइए, वहां आपकी रिपोर्ट दर्ज हो जाएगी। आपको तुरंत फायदा होगा।
हिंदी पत्रकारिता को शिखर पर पहुंचाने वाले प्रभाष जी आज इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनके द्वारा पत्रकारिता में स्थापित किए गए मानदंड हमेशा नई पीढ़ी के पत्रकारों का मार्गदर्शन करते रहेंगे, प्रेरणा देते रहेंगे।
-दिबांग, मशहूर टीवी पत्रकार