पता नही, कहां चले गए… : जैसे ही यह आवाज मेरे कानों तक गयी की प्रभाष जी नहीं रहे, दिल मानों थम-सा गया हो….। गुरुवार और शुक्रवार की दरम्यानी रात कुछ ऐसा हुआ की वक्त ख़ुद ब ख़ुद मेरे सामने आकर खड़ा हो गया और बोला की पत्रकारिता के पितामह नहीं रहे। बीच-बीच में आंखें भी नम हो रहीं थीं और दिल में उथल-पुथल भी हो रही थी की जिसे मैं गुरुवार की रात तहलका में (हम नमक सत्याग्रही) पढ़ रहा था…. वो तैयारी कर रहा था किसी दूसरे लोक को जाने की।
जीवन में पहली बार किसी के नहीं रहने का आभाव महसूस हुआ। पत्रकारिता के पितामह प्रभाष जोशी नहीं रहे। जितनी बार ये शब्द मेरे कानों में पड़ते है…. दिल मचलने लगता है और आंखें नम हो जाती हैं। की-बोर्ड से हाथ उठकर आंखों से बह रहे आंसुओं को रोकने के लिए उठ जाते हैं। मेरा उनसे कभी इतना मेल-मिलाप नहीं रहा कि आलोक तोमर या फिर किसी अन्य वरिष्ठ पत्रकारों की तरह मैं अपने आप को उनसे सीधा जोड़ सकूं। मेरी प्रभाष जी से मुलाकात वर्ष 2003 में वाराणसी में एक सम्मलेन के दौरान हुई थी। तब मैं इलाहबाद यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता का कोर्स कर रहा था।
कितना तेज था उस चेहरे में….. क्या कड़क आवाज थी। उसी आवाज का जादू था कि जीवन में एक बार, मैंने सोच लिया था कि मुझे जनसत्ता में काम करने का अवसर मिल जाए। यह उनका ही आशीर्वाद रहा होगा कि मेरी यह इच्छा 2007 में पूरी हुई, जब मैंने चंडीगढ़ अमर उजाला छोड़कर चंडीगढ़ में ही जनसत्ता ज्वाइन किया। अमर उजाला की चंडीगढ़ में बेहतर स्थिति थी और मुझे तब के संपादक उदय कुमार जी ने रोका भी था, लेकिन मैं अपने आप को सिर्फ़ प्रभाष जी की वजह से उस 300 प्रतियां छपने वाले अखबार से ख़ुद को जोड़ना चाह रहा था, जिसका सपना मैंने 2003 में वाराणसी में देखा था।
जब मेरे पास जनसत्ता का ऑफर लेटर आया तो मेरी आंखें ठीक वैसी ही नम हो गयी जैसे आज उनके इन्तिकाल की ख़बर सुनकर। दोनों में बस फर्क इतना है कि वो मेरे खुशी के आंसू थे और आज जो निकल रहे हैं वो किसी की कमी के आंसू हैं, किसी के प्रताप के आंसू है, जिनकी कमी मुझे नहीं लगता की कभी भर पाएगी। नमन करता हूं प्रभाष जोशी को….. नमन करता हूं उनके साहस को और नमन करता हूं उनके क्रिकेट प्रेम को।
मेरे लिए उनके प्रति उपजे सम्मान को यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वो एक भगवान थे और मैं उनका भक्त, जिसके तार मन से जुड़े होते हैं……..
………..पता नही प्रभाषजी कहां चले गए…..।