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कंधे पर हाथ रख कहा- कैसे हो पंडित?

प्रभाष जोशीवह अक्तूबर, 1991 की कोई तारीख थी. तब मैं गुवाहाटी से प्रकाशित हिंदी दैनिक पूर्वांचल प्रहरी में काम करता था. उन दिनों कोलकाता (तब कलकत्ता) से जनसत्ता निकालने की तैयारियां जोर-शोर से चल रही थीं. खुद मेरे अखबार के अलावा सेंटिनल के दर्जनों लोगों ने वहां अप्लाई किया था और लिखित परीक्षा दे आए थे. मेरी भी इच्छा तो थी लेकिन मैंने आवेदन नहीं भेजा था. उसी दौरान एक दिन राय साब (राम बहादुर राय) गुवाहाटी पहुंचे. उन्होंने मुझे सर्किट हाउस में आ कर मिलने का संदेश दिया. वह उनसे मेरी पहली मुलाकात थी. मिलने पर उन्होंने पहला सवाल किया कि आपने आवेदन क्यों नहीं भेजा. दरअसल, इस सवाल की वजह थी. पूर्वांचल प्रहरी में रहते हुए मैंने मई,91 में पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों पर जनसत्ता (दिल्ली) के लिए काफी लिखा था. शायद राय साब को मेरी रिपोर्टिंग पसंद आई थी. मैंने कहा कि कोई खास वजह नहीं है. बस यूं ही.

प्रभाष जोशी

प्रभाष जोशीवह अक्तूबर, 1991 की कोई तारीख थी. तब मैं गुवाहाटी से प्रकाशित हिंदी दैनिक पूर्वांचल प्रहरी में काम करता था. उन दिनों कोलकाता (तब कलकत्ता) से जनसत्ता निकालने की तैयारियां जोर-शोर से चल रही थीं. खुद मेरे अखबार के अलावा सेंटिनल के दर्जनों लोगों ने वहां अप्लाई किया था और लिखित परीक्षा दे आए थे. मेरी भी इच्छा तो थी लेकिन मैंने आवेदन नहीं भेजा था. उसी दौरान एक दिन राय साब (राम बहादुर राय) गुवाहाटी पहुंचे. उन्होंने मुझे सर्किट हाउस में आ कर मिलने का संदेश दिया. वह उनसे मेरी पहली मुलाकात थी. मिलने पर उन्होंने पहला सवाल किया कि आपने आवेदन क्यों नहीं भेजा. दरअसल, इस सवाल की वजह थी. पूर्वांचल प्रहरी में रहते हुए मैंने मई,91 में पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों पर जनसत्ता (दिल्ली) के लिए काफी लिखा था. शायद राय साब को मेरी रिपोर्टिंग पसंद आई थी. मैंने कहा कि कोई खास वजह नहीं है. बस यूं ही.

राय साब मुझे गुवाहाटी में रखना चाहते थे. लेकिन मैंने कहा कि अगर सिलीगुड़ी में रहने का मौका मिले तो मुझे खुशी होगी. उन्होंने बाकी बाातें की और फिर कहा कि आप दो-तीन पेज में लिख कर दीजिए कि जनसत्ता को सिलीगुड़ी में एक कार्यालय संवाददाता क्यों रखना चाहिए. मैंने वहीं बैठे-बैठे लिख कर दे दिया. अगर कोई अखबार कलकत्ता से निकालना था तो वह सिलीगुड़ी की अनदेखी नहीं कर सकता था. सिलीगुड़ी कलकत्ता के बाद बंगाल का दूसरा सबसे बड़ा शहर तो है ही, उत्तर बंगाल की अघोषित राजधानी भी है. नेपाल, सिक्किम, भूटान, नेपाल और बांग्लादेश की सीमा से लगे इस शहर का रणनीतिक महत्व भी है. सिलीगुड़ी का गलियारा ही पूर्वोत्तर राज्यों को देश के बाकी हिस्सों से जोड़ता है. खैर, राय साब वह पत्र ले कर दिल्ली लौट गए. मैं भी रोजमर्रा के कामकाज में वह बात भूल गया. लेकिन एक हफ्ते बाद जब दफ्तर पहुंचा तो पता चला कि इंडियन एक्प्रेस के गुवाहाटी दफ्तर से फोन आया था मेरे लिए. तब एसएमएस बोरदोलोई वहां मैनेजर थे, जो बाद में मेरे करीबी मित्र बन गए. मैंने फोन किया तो पता चला कि दिल्ली से टेलीप्रिंटर पर संदेश आया है कि प्रभाष जी 22 अक्तूबर को कलकत्ता में मिलना चाहते हैं.

उस समय मैं गुवाहाटी में अकेला था. दुर्गापूजा होने की वजह से पत्नी सिलीगुड़ी गई थी. मैं अगले दिन सिलीगुड़ी पहुंचा और वहां एक दिन रुक कर किसी को कुछ बताए बिना अगले दिन कोलकाता. सुबह तैयार हो कर कलकत्ता के चौरंगी स्थित इंडियन एक्सप्रेस के कार्यालय में बैठ कर हम लोग प्रभाष जी का इंतजार करने लगे. मेरे साथ अमरनाथ भी थे जो गुवाहाटी में जनसत्ता से जुड़े. एक घंटे इंतजार करने के बाद खबर मिली की प्रभाष जी की तबियत कुछ ठीक नहीं है. इसलिए हमें होटल में ही बुलाया है. हम वहीं बगल में होटल ओबराय ग्रैंड स्थित उनके कमरे तक पहुंचे. तब तक मन में काफी झिझक थी. इतने बड़े संपादक-पत्रकार से पहली मुलाकात जो थी. लेकिन उनसे मिल कर सारी झिझक एक पल में दूर हो गई. उन्होंने कहा कि आपका पत्र पढ़ने के बाद ही हमने आपको सिलीगुड़ी में रखने का फैसला किया है. उससे पहले सिलीगुड़ी के लिए एक अंशकालीन संवाददाता रखा जा चुका था. उन्होंने कामकाज के बारे में कोई सवाल नहीं पूछा. फिर वहीं होटल के पैड पर ही आफर लेटर लिख कर थमा दिया. मैं अगले दिन सिलीगुड़ी लौट आया.

उसके बाद जनसत्ता के स्थापना दिवस पर होने वाले समारोहों में उनसे मुलाकात होती थी. बाद में वह सिलसिला खत्म हो गया.  इस बीच, जून 1997 में मेरा तबादला गुवाहाटी हो गया. कोई साल भऱ बाद प्रधानमंत्री का दौरा कवर करने के लिए मैं शिलांग गया था. वहां से घर फोन करने पर पता चला कि प्रभाष जी ने फोन किया था और मुझसे बात कराने को कहा है. उन्होंने अपना नंबर छोड़ रखा था. मैंने शिलांग से फोन किया तो प्रभाष जी ने कहा कि अरे भाई, जीएल (जीएल अग्रवाल, पूर्वांचल प्रहरी के मालिक व संपादक) से कहो कि आ जाएं. वे किसी सम्मेलन में जीएल को बुलाना चाहते थे. मैंने जीएल अग्रवाल को भी बता दिया. बाद में शायद वे गए नहीं.

उसके बाद लंबे अरसे तक प्रभाष जी से कोई मुलाकात नहीं हुई. कोलकाता तबादला होने पर एक बार भाषा परिषद में मुलाकात हुई थी. मैं क्रिकेट पर लिखे उनके लेखों का मुरीद रहा शुरू से ही. शायद इसकी वजह यह रही हो कि मैं भी क्लब स्तर से क्रिकेट खेलता रहा हूं. बाद में जनस त्ता के लिए भी मैंने कई एकदिनी मैचों और आईपीएल के पहले सीजन की रिपोर्टिंग की है. मैं अपने अखबार में खेल संवाददाता नहीं हूं. लेकिन गुवाहाटी और अब कोलकाता में क्रिकेट की रिपोर्टिंग का कोई मौका नहीं चूकता. सचिन के 17 हजार रन पूरे होने के मौके पर मैं आज सुबह के अखबार में उनका लेख पढ़ने का इंतजार कर रहा था. लेकिन उसकी जगह मिली उनके जाने की दुखद सूचना.

प्रभाष जी मेरी आखिरी मुलाकात बीते साल नवंबर में बनारस में हुई. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय की ओर से पराड़कर जयंती पर बनारस में एक आयोजन था. कुलपति अच्युतानंद मिश्र जी ने कहा था कि मौका मिले तो आ जाइए. मैं वहां पहुंच गया. समारोह स्थल पर कुछ देर में प्रभाष जी नामवर सिंह के साथ पहुंचे. मैंने नमस्ते की तो कंधे पर हाथ रख कर कहा कि कैसे हो पंडित? तुम्हारा लिखा तो पढ़ता रहता हूं.

प्रभाकर मणि तिवारीसमारोह के बाद वे उसी दिन दिल्ली लौट गए.


लेखक प्रभाकर मणि तिवारी जनसत्ता, कोलकाता में कार्यरत हैं.

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