जाना एक समर्थ पत्रकार और एक अद्मय जीवट के इनसान का : सुबह नींद से उठ कर अखबार पलट ही रहा था कि बड़े भाई साहब डाक्टर रुक्म त्रिपाठी के कुछ शब्द मुझे दहला देने के लिए काफी थे। उन्होने कहा-`जानते हो प्रभाष जी नहीं रहे।’ पल भर को एहसास हुआ जैसे कायनात थम गयी, जैसे सार्थक और सोद्देश्य व निष्पक्ष पत्रकारिता का सूर्यास्त हो गया। प्रभाष जोशी एक बाईपास झेल चुके थे पर प्रभु की कृपा से भले -चंगे और कार्यक्षम थे। उनकी सक्रियता को देख ऐसा नहीं लगता था कि वे एक बड़ा आपरेशन झेल चुके हैं। उनकी सशक्त और अपने में अनुपमेय लेखन शैली निरंतर गतिशील रही और हिंदी पत्रकारिता को देती रही नये आयाम, नये उत्कर्ष। जोशी जी के साहचर्य में पत्रकारिता के जितने भी क्षण हम जैसे लोगों ने बिताये हैं, वे निश्चित ही उस महामना की प्रज्ञा, विचारों की प्रखरता और प्रासंगिकता व उनकी तरह की समाजपरक पत्रकारिता के हमेशा कायल रहेंगे।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की प्रभाष जी ने अंग्रेजी पत्रकारिता व अंग्रेजी भाषा के चंगुल में आकंठ फंसी हिंदी पत्रकारिता को सुदामा वृत्ति से मुक्त कर उसे उसका अपना सम्माननीय स्थान दिलाया। उनके संपादन में निकलने वाला पत्र जनसत्ता जनता की आवाज और सोद्देश्य पत्रकारिता की एक मिसाल माना जाता था। प्रभाष जी सच को सच की तरह कहने में न सकुचाते थे न ही डरते थे। उनकी बेबाक टिप्पणियों से कई लोग उनके दुश्मन तक बन गये थे। लेकिन इसकी भी उन्हें परवाह नहीं थी। जो वह उचित और सही समझते थे उसे लिखने से वे कभी पीछे नहीं हटे। एक सच्चे पत्रकार का धर्म उन्होंने आखिरी क्षण तक निभाया।
अपने स्तंभ `कागद कारे’ के माध्यम से वे सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर अपनी अद्भुत शैली में आखिरी समय तक लिखते रहे। जनसत्ता के कोलकाता संस्करण में काम करने के दौरान अक्सर उनसे हम लोगों की भेंट होती रहती थी। वे उस वक्त अपनी जन्मभूमि मालवा, अपने पत्रकारिता के गुरु और नई दुनिया के अपने अनुभवों को हम लोगों ने बांटते थे। वे बताया करते कि क्रिकेट से उनका लगाव छुटपन से था और किस तरह से वे साइकिल से क्रिकेट खेलने जाया करते थे। क्रिकेट से उनका इतना अनुराग था कि वे बाईपास के बाद भी खेल से विरक्त नहीं हो पाये। मैच होता तो रात को जाग कर भी देखते। अजहरुद्दीन के क्रिकेट प्रवेश और उनके शानदार प्रदर्शन पर उन्होंने एंकर स्टोरी लिखी थी `अजहर तेरा नाम रहेगा’ जो जनसत्ता के सभी संस्करणों के प्रथम पृष्ठ पर छपी थी। अजहर की काबिलियत को उनके जैसा खेल पारखी ही आंक सकता था । उनका अनुमान अक्षरश- सच साबित हुआ । अजहर ने न सिर्फ कामयाबी हासिल की अपितु भारतीय क्रिकेट टीम का नेतृत्व करने तक का सम्मान उन्हें हासिल हुआ।
प्रभाष जी के तर्क अकाट्य होते थे। उन्हें वे प्रस्तुत भी इतनी खूबी से करते थे कि सामने वाला उनको काट ही नहीं सकता था। हम लोगों को याद है उनका भाषा को आसान और क्षेत्रीय पुटवाला बनाने पर हमेशा जोर रहता था। वे कहते थे अखबार को अगर जनसामान्य तक पहुंचना है तो जाहिर है उसे उसी भाषा में होना चाहिए जो वह समझता है। जोशी जी अपने लेखों में अक्सर अपने की जगह `अपुन’ शब्द प्रयुक्त करते थे सुनने में यह भले अटपटा लगे लेकिन उनके लेखों में यह बहुत ही अच्छा लगता था। `कागद कारे’ भले ही एक तरह से डायरी लेखन की शैली में लगता हो लेकिन उनका यह स्तंभ लोगों में बेहद चर्चित था। कुछ लोग तो इसे पढ़ने के लिए ही जनसत्ता खरीदते थे। जब कभी उनके नेतृ्तव में कोलकाता में संपादकीय विभाग की बैठक होती वे पहले तो अखबार की प्रगति का ब्यौरा लेते फिर मजेदार प्रसंग सुना कर या संपादकीय के साथियों से चुहलबाजी कर उनका वह बोझ हल्का कर देते जो उनकी पूछताछ से उन पर हावी हुआ है।
बैठक के अंत में लोग हलके मन और मुसकान के साथ विदा होते। अपने साथियों को वे बराबर याद रखते थे। यहां तक कि उनके परिवार के बारे में भी पूछना नहीं भूलते थे कि कौन कैसा है। हम लोगों को पता नहीं था कि आलोक तोमर जी की शादी बंगाल में हुई है। एक बार ऐसे ही बात-बात में प्रभाष जी ने ही कहा था -‘अरे भाई अपने आलोक जी की शादी तो बंगाल में ही हुई है।’ बाद में अपने स्तंभ ‘कागद कारे’ में भी उन्होंने इस बात का जिक्र किया था। कुमार गंधर्व उनके प्रिय गायकों में थे। उनके निधन पर वे काफी मर्माहत हुए थे। कुमार गंधर्व जी पर भी उन्होने अपने स्तंभ में कई बार स्मृतिचारण किया था। उनका यह स्तंभ जिन लोगों ने भी पढ़ा होगा उसमें मालवा की माटी की गंध, वहां की संस्कृति की झांकी और आत्मीयता का एक अथाह सागर पाया होगा।
जोशी जी का कृतित्व और व्यक्तित्व इतना विशाल है कि उन पर जितना भी लिखा जाये कम है। वे ज्ञान के सागर थे उनसे हमने कुछ बूंदे पा लीं और धन्य हो गये। उन्होने सिखाया पत्रकारिता का पहला धर्म है समाजपरक होना इसलिए समाज को सर्वोपरि रख कर लेखनी चलानी चाहिए। उन्होने निष्पक्षता पर जोर दिया और कहा कि पत्रकारिता को किसी वाद या दल से न बंधना चाहिए और न प्रभावित होना चाहिए। बस जो सच है उसे वैसा ही प्रस्तुत करना चाहिए। आज जोशी जी नहीं हैं लेकिन उनके विचार, उनकी रचनाएं आज भी हैं और हमेशा रहेंगी। जो जमाने को कुछ देकर जाते हैं वे कभी तिरोहित नहीं होते। शताब्दियों तक अक्षुण्ण रहती है उनकी कीर्ति, अमर रहता है उनका नाम। ऐसे महामना को मेरा शत शत प्रणाम। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति और व्यथित परिजनों को यह दुख सहन करने की शक्ति दें यही प्रार्थना है।
जब तक सार्थक पत्रकारिता है उसके सारथी प्रभाष जी हर सच्चे पत्रकार के हृदय और कर्म में जीवित रहेंगे, समाज के प्रति पत्रकारों के दायित्व की प्रेरणा देते रहेंगे।