प्रभाष जोशी को मैंने अपना हीरो कभी नहीं माना। इसके पीछे दो तीन वजह हैं। एक तो उनका अतिशय क्रिकेट प्रेम मुझे कभी नहीं सुहाया। ‘कागद कारे’ जैसे महत्वपूर्ण स्पेस में क्रिकेट पर कागज काला करना मुझे पत्रकारिता के साथ ज्यादती करने जैसा लगता है। हालांकि ढेर सारे लोग प्रभाष जी को उनके क्रिकेट प्रेम की वजह से ही चाहते हैं लेकिन मुझे अब भी लगता है कि क्रिकेट नामक खेल को दुनिया भर की जनता को बेवकूफ बनाने, कंपनियों को करोड़ों रुपये कमाने और जेनुइन मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए इतना हाइप दिया जाता है। क्रिकेट को लेकर मैं गलत हो सकता हूं, इसका मुझे पूरा यकीन है। (जब सभी नकटे हों तो एकाध नाक वाले खुद को सामान्य नहीं मान सकते)
लेकिन क्रिकेट विरोधी मेरा मन हमेशा क्रिकेट विरोधी रहेगा, यह भी अटल है। हीरो न मानने की दूसरी वजह यह रही कि प्रभाष जी जिस जनसत्ता से जुड़े रहे, उस जनसत्ता का हाल बेहाल होना हमेशा सवाल खड़े करता रहा कि इतना बड़ा व्यक्तित्व आखिर अखबार को सफल क्यों नहीं करा सका? सफलता शब्द का इस्तेमाल यहां प्रसार के संदर्भ में कर रहा हूं। अगर आप सभी इतने बड़े क्रांतिकारी थे तो देश भर की जनता को जनसत्ता के लिए टूट पड़ना चाहिए था और जनसत्ता को किसी भी कीमत पर ब्लैक में बिकना चाहिए था। पर ऐसा नहीं हुआ। इसके लिए पूरा दोष प्रभाष जी का नहीं है। प्रबंधन का रुख और प्रबंधन के खेल-तमाशे काफी कुछ तय करते-कराते हैं। तीसरा कारण रहा प्रभाष जी और उनकी पूरी टीम का आत्ममुग्ध होना। जनसत्ता वाले जितने भी नामी-गिरामी लोग हुए, सबके सब मुझे आत्ममुग्ध ज्यादा दिखे। आत्ममुग्धता का मैं सम्मान करता हूं क्योंकि यह रोग थोड़ा-बहुत मेरे में भी है लेकिन आपकी आत्ममुग्धता किसी दूसरे को रिकागनाइज ही न करने दे, यह नहीं होना चाहिए। खैर, ये सब मन की बातें थीं, जिसे लिख दिया।
बात प्रभाष जोशी की कर रहा था। प्रभाष जी को आजकल मैं प्यार करने लगा हूं, चाहने लगा हूं, बड़ा मानने लगा हूं। भड़ास4मीडिया ने चुनाव में पैसे लेकर विज्ञापन की जगह खबर छापने के मुद्दे को जिस दुस्साहस (दुस्साहस ही कहिए क्योंकि आजकल सच को सच कहने के लिए अतिरिक्त साहस की जरूरत पड़ती है, जो व्यक्तित्व के ”दु”र्गुण से ही संभव है) के साथ उठाया, भंडाफोड़ किया, खबरें व घटनाएं प्रकाशित कीं, लोगों को इस मुद्दे पर जागरूक किया, उस पर मीडिया के उन दिग्गजों की तरफ से कोई आवाज नहीं आई जिन्हें हम पुरोधा मानते रहे हैं। लेकिन प्रभाष जी जब इस मुद्दे पर जगे तो जग ही गए और अब दुनिया भर को जगाने में लगे हैं।
जनसत्ता के अपने रविवारीय संपादकीय कालम ‘कागद कारे’ में प्रभाष जी पूरे साहस, पूरी ऊर्जा और पूरे तेवर के साथ वह सब लिख रहे हैं, जिसे लिखने की हिम्मत इन दिनों मुख्यधारा की पत्रकारिता में सक्रिय किसी संपादक में नहीं है। जिन संपादकों में हिम्मत है भी, वे न जाने क्यों इस पर नहीं लिख रहे हैं या फिर इस मुद्दे से मुंह मोड़ चुके हैं। मेरे खयाल से मीडिया के सामने इससे बड़ा मुद्दा हो ही नहीं सकता। जब सब कुछ बिक रहा हो, सिद्धांत व दर्शन तेल लेने जा रहे हों, ब्लैक मनी ने संपादकों और मालिकों से सीधा रिश्ता जोड़ लिया हो तब पत्रकारिता के हमारे नायक संपादक क्यों चुप बैठे हैं, समझ में नहीं आ रहा। पर चहुंओर कायम चुप्पी में प्रभाष जी चपर-चपर बोल रहे हैं और टपर-टपर लिख रहे हैं। लोग उनके साहस को सलाम करते हुए उन्हें सुन-पढ़ रहे हैं। प्रभाष जी को मैं प्यार करने लगा हूं क्योंकि उनमें वो कबीराना फक्कड़पन और साहस बाकी है जो संपादकों का अनिवार्य गुण हुआ करता है। प्रभाष जी ने इस हफ्ते ‘कागद कारे’ में जो लिखा, उसे रविवार को ही पढ़ा और कई घंटे सोचता रहा। प्रभाष जी इससे पहले भी कई हफ्ते इसी मुद्दे पर लिख चुके हैं।
प्रभाष जी के साहस से सबक लेते हुए हम सभी को यह तय कर लेना चाहिए कि भ्रष्टाचारी अखबार मालिकों और संपादकों को यूं ही नहीं माफ कर देंगे। उन्हें नंगा करेंगे। उनका बहिष्कार करेंगे। उन्हें उनकी लालच, नीचता और पाप का एहसास कराएंगे। अगर आज हम ऐसा नहीं कर पाएंगे तो यही नीच मालिक और संपादक कल हम लोगों को पत्रकारिता पर लंबे चौड़े लेक्चर देते नजर आएंगे। वे खुद गहरे कीचड़ में धंसे होने के बावजूद लोकतंत्र और पत्रकारिता के सबसे बड़े अलंबरदार के रूप में हम लोगों के माथे और सीने पर ‘खूनी झंडा’ फहराते मिलेंगे। चंद रुपयों के लिए ऐसे भ्रष्टाचारी मालिकों-संपादकों के तलवे चाटने वाली जमात को कतई पत्रकार नहीं कहा जाना चाहिए बल्कि इन्हें ‘ब्लैकमेलर गैंग’ का सदस्य करार दिया जाना चाहिए।
आखिर में दो शब्द प्रभाष जी के लिए….प्रभाष जी, आपने इस उम्र में जो हिम्मत दिखाई है, उसे देखकर मैं कह सकता हूं कि आप असल युवा पत्रकार हैं और हम सब कथित युवा पत्रकार, जो समय और बाजार की आंच में खुद ब खुद चिपक-झुलस कर नपुंसक बन चुके हैं या नपुंसक बना दिए जाने को ‘इंज्वाय’ कर रहे हैं। आप दीर्घायु हों, आपको हम कथित युवा पत्रकारों की भी उम्र लग जाए।
प्रभाष जी ने अपने इस हफ्ते के ‘कागद कारे’ में अखबार का तो नाम नहीं लिया है लेकिन सभी को पता है कि यूपी का यह अखबार कौन है। प्रभाष जी ने एक जगह लिखा है कि इस अखबार के संपादक और मालिक ने चुनाव में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार किया, तो क्या हम लोगों को इस मालिक और संपादक के नाम का ऐलान नहीं कर देना चाहिए? कुछ उसी तरह जैसे भ्रष्टतम आईएएस अफसर का नाम आईएएस एसोसिएशन ने खोल दिया था। आपकी क्या राय है?
प्रभाष जी को पढ़ने के बाद आपके उत्तर का इंतजार करूंगा कि आखिर वो कौन मालिक-संपादक है जिसे प्रभाष जोशी लोकसभा चुनाव के दौरान का सबसे भ्रष्टाचारी मालिक-संपादक बता रहे हैं और जिससे संबंध न रखने और जिसका बहिष्कार करने का अनुरोध अरविन्द केजरीवाल और अरुणा राय से कर रहे हैं?
यशवंत सिंह
एडिटर, भड़ास4मीडिया
नई पत्रकारिता व्यवसाय अपना पहला काम और मुनाफे को अपना पहला प्रयोजन मानती है
-प्रभाष जोशी-
वे जब सूचना के जन अधिकार अभियान के कार्यकर्ता हुआ करते थे तो अरविन्द केजरीवाल से मिलना-जुलना होता था। फिर जब सूचना के अधिकार का कानून बन गया तो केजरीवाल ने दिल्ली जैसे महानगर में काम करने के लिए ‘परिवर्तन’ नामक संस्था बनाई। गांवों में काम करने वाले लोगों से सीधे मिल-जुलकर और बात की बात से प्रचार करके काम चला सकते हैं। महानगर में मीडिया की सहायता के बिना लोगों तक पहुंचा नहीं जा सकता। केजरीवाल ने इसलिए दिल्ली के मीडिया से संबंध बनाए और उससे मिले सहयोग के कारण उनके काम का असर भी हुआ। भले लोगों की सिफारिश पर उन्हें मेग्सेसे भी मिल गया। अब वे सूचना के अधिकार आंदोलन के नेता हो गए। अब वे पब्लिक कॉज रिसर्च फाउन्डेशन के जरिए सूचना के अधिकार को बढ़ाने वाले लोगों को राष्ट्रीय पुरस्कार देने वाले हैं।
अच्छा है। लेकिन इससे अपने को उत्तेजित होने की जरूरत नहीं थी। यह ‘कागद कारे’ इसलिए लिख रहा हूं कि अरविन्द केजरीवाल ने यह पुरस्कार तय करने के लिए जो समिति बनाई है, उसमें ऐसे अखबार और उसके मालिक संपादक को भी रखा है, जिसने इस लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार किया। भ्रष्टाचार तो हिन्दी इलाके के और भी, बल्कि देश भर के अखबारों ने किया। पैसे लेकर उम्मीदवारों के प्रचार को खबर बनाकर छापा और पाठकों को बताया तक नहीं कि ये खबरें उनकी नहीं, उम्मीदवार के प्रचार के विज्ञापन हैं। उम्मीदवारों को अपना खर्च सीमा में रखने और काले पैसे से मनचाहा प्रचार पाने की सुविधा हुई। चुनाव कवरेज के लिए हिन्दी इलाके में घूमने वाले समझदार और जानकार पत्रकारों का अंदाजा है कि उत्तर प्रदेश के इस अखबार ने इस चुनाव में कोई दो सौ करोड़ रुपये का काला धन बनाया है।
काला धन तो देश के और भी धंधेबाज बनाते हैं और इससे ज्यादा ही बना लेते हैं। मनमोहन सिंह की उदारवादी नीतियों के बावजूद पिछले 18 साल में देश के उद्योग व्यापार को ईमानदार होने की प्रेरणा और प्रोत्साहन नहीं मिला है। काला धन कथित समाजवाद के जमाने से ज्यादा बन रहा है। लेकिन आज तक भ्रष्टाचार केवल नेताओं का उजागर और चर्चित होता है। उदारवादी पूंजीवाद की पवित्र गैयाएं हैं- उद्योग और व्यापार- और उनके भ्रष्टाचार पर ना अखबार बात करते हैं ना चैनल। मुझे कुछ वर्षों से शंका हो रही थी कि हमारी मीडिया को हमारी पूंजी ने अपना सहयोगी बना लिया है और अपने सहोदरों के भ्रष्टाचार पर बात करना हमारा शिष्टाचार नहीं है। लेकिन इस चुनाव के दौरान मुझे अच्छी तरह समझ आ गया कि काले धन के धंधे में हमारा उद्योग-व्यापार और हमारे नेता ही शामिल नहीं हैं बल्कि हमारा मीडिया भी बराबर का सहयोगी और भागीदार हो गया है। उम्मीदवारों ने अखबारों और चैनलों को खुलकर पैसा दिया, काला पैसा। और अखबारों और चैनलों ने बिना किसी पत्रकारीय आचार विचार के उन्हें खूब प्रचार दिया।
अब काले धन का धंधा इतना सर्वव्यापी है तो मैं हिन्दी के एक अखबार के पीछे क्यों पड़ा हूं? इसलिए कि एक तो वह अखबार है और दूसरे, अखबार होते हुए भी चुनाव के समय लोकतंत्र और वोटर के प्रति अपनी जिम्मेदारी को सरासर ठेंगा दिखा कर काले धन के धंधे में पड़ा है और तीसरे, जनता के सूचना के अधिकार के गंगाजल में अपने हाथ धोने की कोशिश में लगा है। अरविन्द केजरीवाल से मैंने यही पूछा कि भाई, जो कानून भ्रष्टाचार का भंडा फोड़ने के लिए बानया गया है और जो लोगों के सही सूचना पाने के अधिकार को उनका मौलिक अधिकार बनाता है उसके आंदोलन और पुरस्कारों से आप एक ऐसे अखबार और उसके मालिक संपादक को कैसे जोड़ते हो जिसने पूरे चुनाव भर जनता के सूचना के अधिकार का खुद होकर उल्लंघन किया, भ्रष्टाचार में लिप्त रहा और अपनी इन करतूतों पर परदा डालने के लिए मतदाता जागरण अभियान चलाता रहा जिसमें आप और हमारी अरुणा राय भी शामिल हो गईं?
उत्तर प्रदेश से चुनाव लड़ने वाले लगभग सभी उम्मीदवारों को इस अखबार के व्यवहार और ब्लैकमेली हरकतों से शिकायत रही। कम से कम दो उम्मीदवारों ने तो अपने चुनाव प्रचार में इस अखबार को अपने विरोध का सीधा और खुला निशाना बनाया। लखनऊ में अटल बिहारी वाजपेयी की सीट से लड़ने वाले भारतीय जनता पार्टी के लालजी टंडन और समाजवादी पार्टी की तरफ से देवरिया से लड़ने वाले मोहन सिंह। भाजपा और सपा दोनों ने इस अखबार के एक-एक मालिक को राज्यसभा में भेजा है। मोहन सिंह ने सभा में पूछा कि वे बताएं कि उनको राज्यसभा में भेजने के पार्टी ने कितने पैसे लिये थे जो आज हमारी खबरें छापने के पैसे मांग रहे हैं। लालजी टंडन अटलजी के पुराने सहयोगी रहे हैं और उन्हें लखनऊ से चुनाव लड़वाते रहे हैं। वे जानते हैं कि समझदार राजनीति और अच्छा जनसंपर्क क्या होता है। लेकिन उन्हें भरी सभा और खुली प्रेस कांफ्रेंस में कहना पड़ रहा है। लालजी टंडन ने आखिर तक इस अखबार का पैकेज नहीं खरीदा और जनता के समर्थन से जीत कर आए।
अब सूचना के अधिकार का कानून और उसकी भावना का तकाजा है कि इस अखबार से पूछा जाए कि दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में चुनाव के समय अखबार की पहली और सबसे बड़ी जिम्मेदारी मानी जाती है कि वह वोटरों को निष्पक्ष और उचित रूप से सही और सच्ची जानकारी दे ताकि वे वोट देने का सही फैसला कर सकें। हर लोकतंत्र में जिम्मेदार और स्वतंत्र प्रेस का यह पहला पत्रकारीय कर्तव्य है। अपनी खबरों की जगह उम्मीदवारों के प्रचार को बेचकर अखबार ने पाठकों के सूचना के अधिकार को खारिज किया है। वह बताएं कि क्यों? फिर हर लोकतंत्र में स्वतंत्र प्रेस की खबरों की जगह को पवित्र माना जाता है क्योंकि पाठक भरोसा करता है कि अखबार सच्ची और सही खबर देगा। दुनिया में हर पाठक अखबार खबर के लिए खरीदता है, विज्ञापन के लिए नहीं। सब समझदार मानते हैं कि पाठक और अखबार के इस भरोसे के बिना अखबार और पत्रकारिता टिके नहीं रह सकते। इस अखबार से पूछना पड़ेगा कि यह विश्वास उसने क्यों तोड़ा?
मैं जानता हूं कि अखबार कहेगा- जैसा कि ऐसा धंधा करने वाले दूसरे अखबार भी कहते हैं- कि हम आखिर एक व्यावसायिक गतिविधि हैं। जैसा सूचना का अधिकार है, वैसा ही रोजी और मुनाफा कमाने का अधिकार है। बिना पूंजी, बिना कमाई और बिना मुनाफे के कोई अखबार चल नहीं सकता। सही है। लेकिन अखबार अनिवार्य रूप से लोकहित का कार्य है और लोकहित की व्यापारिक गतिविधि भी मुनाफे की ऐसी अंधी दौड़ नहीं हो सकती जिसमें खबर की पवित्र जगह काले धन में बेच दी जाए। आखिर व्यापार-व्यवसाय भी नियम कायदे से ही चल सकते हैं। अखबार माल है और खबरें सब्जी-मच्छी की तरह बिकती हों तो उन पर माल के स्टैंडर्ड लगाए ही जाएंगे। तंबाकू बेचना भी व्यवसाय है, फिर क्यों चेतावनी छापना ही पर्याप्त नहीं माना गया और अब बीड़ी-सिगरेट की डिबिया पर फोटू छापना पड़ रहा है। आपने क्यों नहीं लिखा कि यह हमारी खबर नहीं, उम्मीदवार का विज्ञापन है। माल में भी बताना तो पड़ता ही है कि उसमें क्या-क्या है।
पत्रकारिता और व्यवसाय दोनों के कानून-कायदे आप तोड़ें और अपने पाठक के प्रति नहीं बल्कि काला धन देने वाले उम्मीदवार के प्रति जिम्मेदार हों तो आप प्रेस को मिली स्वतन्त्रता पर दावा कैसे कर सकते हैं? चलिये एक बार मान लें कि ये सवाल पत्रकारिता और व्यवसाय के हैं और उनके उत्तर अरविन्द केजरीवाल और अरुणा राय से नहीं मांगे जाने चाहिये। लेकिन अरुणा राय ने सूचना के अधिकार का आंदोलन राजस्थान के गरीब और अनपढ़ किसानों और मजदूरों के लिए चलाया था। उसमें इतनी आग थी कि वह देश भर में फैल गया। आखिर पहले अटलजी और फिर मनमोहन सिंह की सरकार को कानून बनाना पड़ा। कोई अखबार व्यापारिक गतिविधि हो सकता है, लेकिन सूचना के अधिकार का आंदोलन तो पूरी तरह लोकहित में लोकसेवा की भावना से चलाया गया और चलता है। पैसे आंदोलन को भी चाहिये लेकिन आज तक किसी जन आंदोलन ने नहीं कहा कि हम मुनाफे के हो चले हैं। लोक संघर्ष का यह स्थान लोकहित का पवित्र स्थान है। इसे आप उन लोगों और संस्थानों को कैसे सौंप सकते हैं जिनका दावा है कि वे मुनाफा बनाने के लिए हैं और ऐसा करने में वो शुभ-अशुभ और नैतिक-अनैतिक का कोई विचार नहीं रखना चाहते?
लेकिन अखबार आजकल पाठकों को सही और सच्ची सूचना देने और सार्वजनिक मामलों में उन्हें ठीक राय बनाने में मदद करने से संबंधित अपने कर्तव्य की दो-कौड़ी चिंता नहीं करते। वे खबरों की जगह विज्ञापन छाप कर पैसे कमाने में लगे हैं। वे जानते हैं कि ऐसा करने में लोक सेवा और लोकहित की पवित्र लोकतांत्रिक जगह उनके हाथ से जाती रहती है। पाठक और देश का कुल सभ्य समाज उनका वह सम्मान और उनमें वह विश्वास नहीं रखता जो पहले के लोकहित सेवक और रक्षक अखबारों और पत्रकारों का करता था। इसलिए अखबार आजकल सार्वजनिक हितों के आंदोलनों में भागीदारी करना चाहते हैं ताकि उनकी पुण्याई इन्हें गंगा स्नान का पुण्य दे सके। और इसे वे नई पत्रकारिता कहते हैं। पुरानी पत्रकारिता, पत्रकारिता के जरिए ही लोकहित और लोकसेवा करती थी और इसी को अपना काम मानती थी। नई पत्रकारिता व्यवसाय अपना पहला काम और मुनाफे को अपना पहला प्रयोजन मानती है। जिस तरह उद्योग-व्यापार अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिए कुछ कमाई आंदोलनों और समाज सुधार में दे देते हैं वैसे ही नई पत्रकारिता- ‘लीड इंडिया’, ‘मतदाता जन जागरण’ और ‘घूस को घूंसा’ जैसे अभियान चलाती है। यह काली कमाई करते हुए गंगा में डुबकी लगाना है।
आपने देखा कि टाइम्स आफ इंडिया ने इस लोकसभा चुनाव में ‘लीड इंडिया’ अभियान चलाया, 26/11 की घटना पर मुंबई के मध्यवर्ग की प्रतिक्रिया देखकर। क्या असर हुआ? जिस दक्षिण मुंबई में ताज और ओबेराय जैसे होटल और नरीमन गेस्ट हाउस था और जहां ऐसे भयानक आतंकवादी हमले हुए थे, वहां उतने लोग भी वोट देने नहीं आए, जितने पिछले चुनाव में आए थे। अंग्रेजी पढ़ने-लिखने वाले महानगरीय समाज ने भारत का नेतृत्व करना तो दूर, लोकतंत्र की जिम्मेदारी भी नहीं ली। वही मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने और राहुल के यंग ब्रिगेड में भी वही वंशवादी चेहरे आगे दिखे। मतदाता जनजागरण और घूस को घूंसा का भी यही हश्र हुआ। लोग जानते हैं कि कौन भ्रष्टाचारी गंगा में हाथ धो रहे हैं। गंगा किसी को हाथ धोने से मना थोड़े करती है! नई पत्रकारिता ने पत्रकारिता छोड़ कर पुण्याई को कमाई बनाने का निश्चय किया है। पत्रकारिता और जनांदोलनों को उनकी सही भूमिका में रखना आप नागरिकों का कर्तव्य है।
प्रभाष जी के अन्य आलेख-संबोधन-विचार जानने-पढ़ने-देखने के लिए क्लिक करें-