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मालिकों को इंतजार कराया, हमसे पहले मिले

दो दिन बाद प्रभाष जी कोलकाता एक कार्यक्रम में आने वाले थे मगर नियति ने कोलकाता वालों से यह मौका छीन लिया : जनसत्ता, कोलकाता में पाच नवंबर को मैं रात की पाली में था। यहां संस्करण रात 10.30 से 11.00 बजे के आसपास छूट जाता है। संस्करण छोड़ने के बाद अपने वरिष्ठ सहयोगी पलाश विश्वास के साथ घर लौटा। सुबह देर से जगा तो मेरी बेटी अरूणा ने मुझे बताया कि प्रभाष जोशी नहीं रहे। उसके मोबाइल पर न्यूज अलर्ट में यह खबर आई थी। खबर सुनते ही दिल भर आया। दुख हो भी क्यों नहीं। आखिर पत्रकारिता की उनकी कार्यशाला से काफी कुछ सीखा और आत्मीयता भी मिली थी।

<p align="justify"><strong>दो दिन बाद प्रभाष जी कोलकाता एक कार्यक्रम में आने वाले थे मगर नियति ने कोलकाता वालों से यह मौका छीन लिया :</strong> जनसत्ता, कोलकाता में पाच नवंबर को मैं रात की पाली में था। यहां संस्करण रात 10.30 से 11.00 बजे के आसपास छूट जाता है। संस्करण छोड़ने के बाद अपने वरिष्ठ सहयोगी पलाश विश्वास के साथ घर लौटा। सुबह देर से जगा तो मेरी बेटी अरूणा ने मुझे बताया कि प्रभाष जोशी नहीं रहे। उसके मोबाइल पर न्यूज अलर्ट में यह खबर आई थी। खबर सुनते ही दिल भर आया। दुख हो भी क्यों नहीं। आखिर पत्रकारिता की उनकी कार्यशाला से काफी कुछ सीखा और आत्मीयता भी मिली थी।</p>

दो दिन बाद प्रभाष जी कोलकाता एक कार्यक्रम में आने वाले थे मगर नियति ने कोलकाता वालों से यह मौका छीन लिया : जनसत्ता, कोलकाता में पाच नवंबर को मैं रात की पाली में था। यहां संस्करण रात 10.30 से 11.00 बजे के आसपास छूट जाता है। संस्करण छोड़ने के बाद अपने वरिष्ठ सहयोगी पलाश विश्वास के साथ घर लौटा। सुबह देर से जगा तो मेरी बेटी अरूणा ने मुझे बताया कि प्रभाष जोशी नहीं रहे। उसके मोबाइल पर न्यूज अलर्ट में यह खबर आई थी। खबर सुनते ही दिल भर आया। दुख हो भी क्यों नहीं। आखिर पत्रकारिता की उनकी कार्यशाला से काफी कुछ सीखा और आत्मीयता भी मिली थी।

1991 से जनसत्ता का कोलकाता संस्करण निकलना शुरू हुआ और तबसे बतौर मुख्य संपादक जब भी कोलकाता उनका आना होता था तो साथियों से मिलकर उनकी हौसलअफजाई करना नहीं भूलते थे। बड़े हल्के-फुल्के माहौल में बातचीत करते हुए लगभग हर किसी का हालचाल पूछ लेते थे। यह इत्तेफाक ही है कि अपने परमप्रिय और इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका की पुण्यतिथि पांच अक्तूबर के ठीक एक महीने बाद ही पांच नवंबर को प्रभाषजी का अवसान हुआ। यह सिर्फ तारीखों का मेल नहीं है। दोनों शख्सियतों ने मिलकर सिद्धांतों की लड़ाई लड़ी। 1975 में आपातकाल के दिनों में प्रभाषजी भी इंडियन एक्सप्रेस के उन योद्धाओं में से एक थे जिन्होंने प्रेस की आजादी की लड़ाई लड़ी।

कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं करने की बेजोड़ मिसाल थे प्रभाषजी। छोटी से छोटी बातों का सिद्धांत के लिहाज से खयाल रखते थे। इसका एक वाकया अभी तक जेहन में मौजूद है। बात 1991 की ही है। दिल्ली में हुई परीक्षा के बाद पांच लोगों (पलाश विश्वास, डा. मान्धाता सिंह, सुमन्त भट्टाचार्य, दिलीप मंडल और संजय शर्मा) को साक्षात्कार के बाद कोलकाता भेजा गया था। इसके बाद कुछ लोगों ने अपने वेतनमान में सुधार के लिए कहा था। तो हम लोग  कृपाशंकर चौबे, समाचार संपादक अमित प्रकाश के साथ होटल ग्रांड में प्रभाषजी से मिलने गए थे। हम भी नीचे लाउंज में बैठे थे। तभी विवेक गोयनका जी और मनोज संथालिया जी (दोनों इंडियन एक्सप्रेस अखबार समूह के मालिक) भी प्रभाष जी से मिलने पहुंचे। प्रभाष जी चाहते और उचित भी यही था कि हम लोगों को बैठने को बोलकर दोनों लोगों से पहले मिल लेते मगर उन लोगों को इंतजार करने को बोलकर पहले साथियों को बुलवा लिया। तसल्ली से बात भी की। ऐसा करने से हो सकता है कि हमारे मालिकान को बुरा भी लगा होगा मगर हमें बुलाए थे मिलने के लिए तो पहले साथियों से ही मिले। ऐसे कार्य या पंगे उन्होंने हमेशा किए जिसके कारण चाहे वह बजरंग दल हो, अपना प्रबंधन हो, या साहित्यकार, सभी से उनकी वैचारिक व सिद्धांतों की लड़ाई होती रहती थी। यह अलग बात है कि संभवतः इस अक्खड़पन के कारण वैचारिक विरोध उन्हें ज्यादा झेलना पड़ा। 

हिंदी पत्रकारिता के युग पुरुष प्रभाष जोशी इन सबसे अलग हिंदी पत्रकारिता में नवीन प्रयोगों के लिए सर्वदा याद किए जाएंगे। देशज शब्दों का इस्तेमाल सबसे अनूठा प्रयोग साबित हुआ। बहरहाल मैं दुख के मौके पर कोई समीक्षा करने की मनःस्थिति में नहीं हूं इसलिए अपनी इन्हीं यादों के साथ पत्रकारिता के प्रेरणास्रोत प्रभाषजी को नम आखों से श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। दो दिन बाद प्रभाष जी कोलकाता एक कार्यक्रम में आने वाले थे मगर नियति ने कोलकाता वालों से यह मौका छीन लिया।


लेखक डा. मांधाता सिंह जनसत्ता, कोलकाता में कार्यरत हैं.
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