प्रभाष जोशी के बारे में सोचता हूं तो कई बार यकीन नहीं होता कि कोई आदमी इतना महान कैसे हो सकता है. ग्रेजुएशन के प्रोजेक्ट के सिलसिले में हमें कुछ संपादकों के इंटरव्यू करने थे. आलोक तोमर सर ने प्रभाष जी का इंटरव्यू करने के लिए कहा और खुद उनसे मुलाक़ात का इन्तेजाम भी कराया. इस यादगार मुलाक़ात में प्रभाष जी ने हमे ये भी बताया था कि उन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत किस तरह की थी. मुलाक़ात वाले दिन नियत समय पर हम (मैं और मेरे दो मित्र भारत शर्मा और नरेन्द्र कुमार) उनके निर्माण विहार वाले निवास पर जा ही रहे थे कि रास्ते में एक आदमी नेकर और टीशर्ट पहने हुए प्रभाष जी जैसा दिखा. अभी तक हमने प्रभाष जी को सिर्फ धोती और कुरते में ही देखा था इसलिए हैरानी तो हुई मगर नजदीक जाकर उन्हें पहचान लिया.
उन्हें हमने बताया कि आपने मिलने का वक़्त दिया था तो उन्होंने कहा कि मैं अभी सैर करके आता हूं, तुम लोगों को घर तो पता ही है, घर जाकर बैठो. हम प्रभाष जी के घर तो पहुंच गए मगर इतनी बड़ी हस्ती होने के कारण हमारी उनके घर के अन्दर घुसने कि हिम्मत नहीं हुई. हम गर्मी होने के बावजूद उनके घर के बाहर उनके इन्तेज़ार में खड़े रहे. प्रभाष जी आये और उन्होंने नाराज़ चेहरे से हम तीनों को घूरकर देखा. हमसे पूछा जब तुम्हे अन्दर जाकर बैठने के लिए कहा था तो गर्मी में बाहर क्यों खड़े थे? मैंने इस बात को टालने कि कोशिश कि मगर भारत ने कहा कि किसी ने हमे अन्दर आने के लिया कहा ही नहीं.
प्रभाष जी हमे ससम्मान अन्दर लेकर गए और अन्दर घुसते ही सबसे पहले अपनी धर्मपत्नी से शिकायत की इन बच्चों को आपने अन्दर आने के लिए क्यों नहीं कहा. लेकिन गलती उनकी पत्नी कि भी नहीं थी क्योकि उन्हें पता ही नहीं था कि हम उनके घर किसी से मिलने आये हैं. ये बात बेशक बहुत छोटी सी थी, लेकिन प्रभाष जी कि महानता देखिये कि उन्होंने कहा कि उन्हें ये बात बिलकुल अच्छी नहीं लगी क्योकि हम उनके मेहमान थे, फिर भी हम बाहर खड़े रहे.
खैर, इसके बाद हमने प्रभाष जी का बारी-बारी से इंटरव्यू किया और इंटरव्यू में प्रभाष जी ने उम्मीदों से कई कदम आगे बढ़कर शानदार जवाब दिए थे. इंटरव्यू के बाद जब प्रभाष जी ने हमारे घर परिवार के बारे में पूछा तो हमे बहुत हैरानी हुई कि इतना बड़ा संपादक हम जैसे स्टूडेंट्स के साथ भी कितनी जल्दी कितना घुल-मिल गया है, प्रभाष जी ने हमे अपनी छोटी-सी पोती से मिलवाया और उस दिन उन्होंने हमारे साथ खूब हंसी-मज़ाक भी किया. हम तीनों मित्र उस समय एक ही बात सोच रहे थे कि इतना गंभीर दिखने वाला आदमी अन्दर से कितना सरल और सहज है.
खैर इस मुलाक़ात में प्रभाष जी ने हमें ये भी बताया कि उन्होंने पत्रकारिता कि शुरुआत कैसे की थी. प्रभाष जी ने बताया था कि 1960 के आसपास (साल मुझे ठीक से याद नहीं है) एक टेस्ट मैच चल रहा था, उन दिनों किसी के घर में रेडियो होना भी बहुत बड़ी बात थी. प्रभाष जी के घर में रेडियो नहीं था सो उन्होंने अपने इलाके के फायर स्टेशन के अधिकारियों के दफ्तर के बाहर पांचों दिन सुबह से शाम तक मैच की कमेंटरी सुनकर उस पर एक फीचर लिखा और उसे इंदौर के अखबार नयी दुनिया में छापने के लिया दिया था. इस तरह उनकी प्रभाष जोशी बनाने की शुरुआत हुई थी. उस समय किसे पता होगा कि ये आदमी आगे चलकर न सिर्फ इतना बड़ा पत्रकार बनेगा, बल्कि इतना महान इंसान भी बन जायेगा कि हम जैसे युवा पत्रकारों के लिए उनकी लेखनी और उनका जीवन दोनों ही प्रेरणा बन जायेंगे. इस मुलाक़ात के बाद महसूस हुआ कि आलोक सर प्रभाष जी को जितना महान बताते थे, वे तो उससे भी आगे निकले. उस मुलाक़ात को पांच साल से ज्यादा हो चुके हैं. उसके बाद मैं पत्रकारिता में बहुत सारे लोगों से मिला. कई बहुत अच्छे लोग भी मिले, लेकिन प्रभाष जी जैसा कोई नहीं मिला और शायद कभी मिलेगा भी नहीं. वैसे प्रभाष जी की आलोचना करने वाले लोग भी आपको बहुत मिल जायेंगे लेकिन यकीन मानिए, वे ना तो साधारण सम्पादक थे और ना ही साधारण इंसान.