Connect with us

Hi, what are you looking for?

कहिन

प्रभाष जी का अंतिम ‘कागद कारे’

पहली नवंबर को प्रभाष जोशी का अंतिम ‘कागद कारे’ जनसत्ता में छपा। इंदिरा गांधी पर था। पर इंदिरा के बहाने आज के दौर की जिस सूक्ष्मता से पड़ताल उन्होंने की है वह अद्वितीय है। पाठकों से अनुरोध है कि वे इस कागद कारे को जरूर पढ़ें, लंबा है, लेकिन धैर्य के साथ पढ़ेंगे तो प्रभाष जी की दृष्टि को समझ सकेंगे।  -एडिटर, भड़ास4मीडिया

<p align="justify">पहली नवंबर को प्रभाष जोशी का अंतिम 'कागद कारे' जनसत्ता में छपा। इंदिरा गांधी पर था। पर इंदिरा के बहाने आज के दौर की जिस सूक्ष्मता से पड़ताल उन्होंने की है वह अद्वितीय है। पाठकों से अनुरोध है कि वे इस कागद कारे को जरूर पढ़ें, लंबा है, लेकिन धैर्य के साथ पढ़ेंगे तो प्रभाष जी की दृष्टि को समझ सकेंगे। <strong> -एडिटर, भड़ास4मीडिया</strong></p>

पहली नवंबर को प्रभाष जोशी का अंतिम ‘कागद कारे’ जनसत्ता में छपा। इंदिरा गांधी पर था। पर इंदिरा के बहाने आज के दौर की जिस सूक्ष्मता से पड़ताल उन्होंने की है वह अद्वितीय है। पाठकों से अनुरोध है कि वे इस कागद कारे को जरूर पढ़ें, लंबा है, लेकिन धैर्य के साथ पढ़ेंगे तो प्रभाष जी की दृष्टि को समझ सकेंगे।  -एडिटर, भड़ास4मीडिया


पच्चीस साल बाद भी

चर्चा के बाद उसमें भाग लेने वाले कम से कम तीन मित्रों ने पूछा- तो क्या इंदिरा गांधी के बारे में आपने अपनी राय बदल ली है?

क्या करें? पच्चीस साल में पूरा संदर्भ ही बदल गया है। उनके बाद के नेताओं और प्रधानमंत्रियों ने उनका कद और उनकी जगह इतनी ऊपर चढ़ा दी है कि इंदिरा गांधी महान लगने लगी हैं। अब आप भ्रष्टाचार, तानाशाही और गलत नीतियों के लिए किसके पीछे पड़ें? किसकी आलोचना करें? इंदिरा गांधी अपने स्वभाव और ढंग से देश को बनाने की कोशिश कर रही थीं। इसलिए उनसे बहस थी, विवाद था, झगड़ा था। अब तो लगता है कि हमने अपने आप को संसार की शक्तियों को सौंप दिया है। वे चाहे जैसा हमें बनाएं। कोई हम अपने को थोड़ी बना रहे हैं। किसका विरोध करे? भूमंडलीकरण का? अपनी अर्थ और राजनीतिक नीतियों के अमेरिकीकरण का? भारत के अपने मैकॉले पुत्रों का अपने ही देश को एक उपनिवेश बनाने का? भारत का आज अपना पराक्रम क्या है? हम वैसे ही बनते और बनाए जा रहे है जैसा कि अमेरिका और यूरोप है। जबकि सब जानते हैं कि हमारी बुनियादी समस्याएं बिलकुल अलग हैं और वे सब की सब बनी हुई हैं। जैसा अंग्रेजों ने अपना एक भारत बनाया था वैसा ही साम्राज्यवाद की भारतीय संतानें अपना इंडिया बना रही हैं। उसमें देश के लोगों- करोड़ों भूखे, नंगे, बेघर, बेरोजगार और वंचित लोगों को लगातार हाशिए पर धकेला जा रहा है। हमारे बहुसंख्यक लोग हाशिए पर और थोड़े से लोग पूरा पन्ना घेरे हुए हैं। देख लीजिए अपने सार्वजनिक जीवन और मीडिया को। उसमें किसकी चर्चा है?

मैं तो बोलता चला जाता लेकिन दूरदर्शन वाले ने दस्तखत के लिए कागज आगे कर दिए। वह चर्चा इंदिरा गांधी को उसके पच्चीसवें शहीदी दिवस पर याद करने की थी। उसमें एक लड़की ने फिर भी पूछा था कि इंदिरा गांधी के बाद गरीबी हटाने की बात कौन कर रहा है? किसी ने उसे जवाब नहीं दिया। वह चर्चा इंदिरा गांधी को श्रद्धांजलि चढ़ाने के लिए थी। असुविधाजनक सवाल पूछने और उनके जवाब देने के लिए नहीं। इस जवान मित्र को उत्सुकता थी कि मैं भी कैसे चुप रहा। उसकी जिज्ञासा सही थी। लेकिन क्या आप किसी औपचारिक श्रद्धांजलि सभा में किसी के बखिए उधेड़ते हैं? नहीं, आज जो हो रहा है उसके लिए आप इंदिरा गांधी की आलोचना कैसे कर सकते हैं? उनके जाने के बाद बारी-बरी से सभी राज कर चुके हैं। उन्हीं ने तो इंदिरा गांधी को ऊंचे ओटले पर खड़ा कर दिया है।

अब तो आप यही कर सकते हैं कि इंदिरा गांधी के होने और न होने के प्रभाव का आकलन करें। उनके जैसा कोई नेता और प्रधानमंत्री उनके बाद नहीं हुआ। इंदिरा गांधी के पहले भारत की पार्टियों में कोई सर्वोच्च नेता नहीं हुआ करता था। जवाहरलाल भी प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष दोनों रहे लेकिन वे सर्वोच्च नहीं थे। उनसे पार्टी और सरकार दोनों में सवाल पूछे जा सकते थे। चुनौती दी जा सकती थी। वे कमजोर दिखने की हद तक लोकतांत्रिक थे। इंदिरा गांधी ने कांग्रेस तोड़ी और अपनी वाली कांग्रेस को ही सच्ची कांग्रेस पार्टी बना दिया। उसके बाद वे उसकी सर्वोच्च नेता-सुप्रीमो- हो गईं। पहले कांग्रेस से आंतरिक लोकतंत्र गया और फिर एक-एक कर सभी पार्टियों से। अब हर पार्टी में सर्वोच्च नेता हैं। जैसी कांग्रेस में सोनिया गांधी वैसे बसपा में मायावती। कबीर जैसी उलटबांसी है कि भारतीय लोकतंत्र को ऐसी पार्टियां चला रही हैं जिनमें किसी में भी आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। सर्वोच्च नेताओं के संतुलन और राजनीतिक मजबूरियों और सदभावना से हमारा लोकतंत्र चल रहा है। कोई एक पूरा तानाशाह नहीं हो सकता क्योंकि सब छोटे-छोटे तानाशाह हैं। भारतीय राजनीति में यह इंदिरा गांधी के होने का प्रभाव और परिणाम है।

इंदिरा गांधी के पहले शासन का सबसे बड़ा उपकरण मंत्रिमंडल का सचिवालय हुआ करता था। क्योंकि सत्ता मंत्रिमंडल में हुआ करती थी। इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री कार्यालय को मंत्रिमंडल सचिवालय से ज्यादा शक्तिशाली और निर्णायक बनाया क्योंकि उनके होने से मंत्रिमंडल नहीं प्रधानमंत्री ज्यादा सत्तावान हो गया और वे अपनी सत्ता को अपने कार्यालय से चलाती रहीं। प्रधानमंत्री मंत्रियों का प्रधान होने के कारण सबसे सत्तावान हुआ करता था। इंदिरा गांधी के कारण मंत्रिमंडल उनके होने का उपकरण हो गया। इमरजंसी लगाने जैसा अहम फैसला रात में उनने किया। सवेरे मंत्रिमंडल ने उस पर स्वीकृति की मुहर लगाई। वे कोई भी निर्णय खुद लेती थीं और अपने कार्यालय के जरिए उस पर अमल करवाती थीं। मंत्रिमंडल उनके निर्णय पर लोकतांत्रिक सांस्थानिक मुहर लगाता था। उनके होने के कारण मंत्रिमंडल था और वह विचार उनकी मर्जी और रियायत से करता था। सत्ता चलाने का यह निजी तरीका इंदिरा गांधी ने विकसित किया था। लेकिन उनने इसे इतना सफल बना कर दिखा दिया कि बाद के सभी प्रधानमंत्रियों ने ऐसे ही सत्ता चलाई।

और तो और, अटल बिहारी वाजपेयी तो चौबीस पार्टियों के गठबंधन के भाजपाई प्रधानमंत्री थे। वे अपनी सरकार, अपने गठबंधन और अपनी पार्टी के वैसे सर्वोच्च नेता नहीं थे जैसी इंदिरा गांधी हुआ करती थीं। फिर भी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सत्ता प्रधानमंत्री कार्यालय से ही चलती थी। उसके मुखिया ब्रजेश मिश्र अपने पूरे कैरियर में कभी उतने शक्तिशाली नहीं रहे जितने अटल जी के प्रधानमंत्री कार्यालय के मुखिया के नाते। यह इंदिरा गांधी का प्रधानमंत्रीय योगदान ही है कि वाजपेयी जैसे अधिक लोकतांत्रिक और उदार नेता के बावजूद उनका कार्यालय ही इतना शक्तिशाली और प्रभावी था कि उसकी सत्ता क्षीण करने को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक उत्सुक रहा करता था। सब जानते हैं कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री जरूर हैं, पर राजनीतिक सत्ता उनके पास नहीं है। फिर भी सरकार का काम उनके कार्यालय से ही चलता है। इंदिरा गांधी का यह योगदान उनके बाद के सभी प्रधानमंत्रियों को फला है।

जरूरी नहीं है कि इसे आप उनका नकारात्मक प्रभाव मान कर ही चलें। सभी पार्टियां सर्वोच्च नेता चलाती हैं इसीलिए पार्टियों को सर्वोच्च नेता चला रहे हैं। उन्हें अगर यह मॉडल मंजूर नहीं होता तो वे ज्यादा लोकतांत्रिक या पूरी तरह तानाशाही मॉडल विकसित करतीं। लेकिन आप भाजपा को देखिए। कुछ वर्षों से उसमें सर्वोच्च और सर्वमान्य नेता नहीं है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बावजूद वह कितनी बिखरी हुई और दिशाहीन है। उसमें भी आंतरिक लोकतंत्र कहां है? क्यों उसके अंदर से ही आवाज उठती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उसका टेकओवर कर ले। सब जानते हैं कि संघ संसदीय लोकतंत्र में विश्वास नहीं करता न वह अपने को राजनीतिक संगठन कहलवाने देता है। फिर भी संघ के उसके ले लेने की बात इसलिए उठती है कि कोई शक्तिशाली नेता या संगठन ही किसी पार्टी को ठीक कर सकता है। यह भाजपा में इंदिरा गांधी की जरूरत की मांग है। है ना आश्चर्य। संघ के होते हुए भाजपा को कोई इंदिरा गांधी चाहिए।

इसी तरह कैबिनेट के बजाय प्रधानमंत्री सरकार चलाए इसे भी भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था ने स्वीकार कर लिया है। आप कह सकते हैं कि यह निर्गुण और सांस्थानिक व्यवस्था से ज्यादा सगुण और व्यक्तिपरक व्यवस्था की चाह में हुआ है। यानी इंदिरा गांधी ने लोकतांत्रिक सत्ता के मध्य में अपनी निजी सत्ता की जो स्थापना की थी और जो उन्हें इमरजंसी लगाने जैसे तानाशाही रास्ते पर ले गई उससे भी भारतीय व्यवस्था को कोई सख्त और बुनियादी एतराज नहीं है। इसलिए प्रधानमंत्री कार्यालय के उपकरण को उनके बाद के हर प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया। हर प्रधानमंत्री अब मंत्रिमंडल का प्रधान होने के नाते नहीं, प्रधानमंत्री होने के कारण सरकार चलाना चाहता है। सच है कि इंदिरा गांधी के बाद कोई भी प्रधानमंत्री उतना सत्ताधिकारी नहीं रहा जितनी वे थीं, लेकिन सब उन्हीं के गढ़े उपकरण से काम करते रहे। यह भी भारतीय शासन व्यवस्था में इंदिरा गांधी का स्थायी योगदान है। इससे पार्टी और शासन में लोकतंत्र की जो हानि हो रही है वह तो सही है। लेकिन लोग और उनके नेता अपने ढंग से ही अपना लोकतंत्र गढ़ते हैं ना!

Advertisement. Scroll to continue reading.

लेकिन इतना कह देने के बाद यह मत मान लीजिए कि अपन ने इंदिरा गांधी को इमरजंसी लगाने और लोकतांत्रिक सत्ता को तानाशाही ढंग से चलाने के पाप से मुक्त कर दिया है। उनने यह सब करके देश के लोकतंत्र के लिए जो खतरा पैदा कर दिया था वह कोई उन्हें हटाने पर अड़े उनके राजनीतिक विरोधियों और प्रतिद्वंद्वियों की डरपोक कल्पना नहीं थी। जरा सोचिए कि सन सतत्तर के चुनाव में वे किसी तरह जीत जातीं तो क्या होता। क्या वे उन सभी नागरिक आजादियों को वैसा ही रहने देती जैसी वे इमरजंसी के पहले थीं? इंदिरा गांधी को आयोग्य इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ठहराया था, जेपी और राजनीतिक नेताओं और पार्टियों ने नहीं। वे चुनाव में भ्रष्टाचारी तरीके अपनाने की दोषी पाया जाए और उच्च न्यायालय उसे आयोग्य ठहरा दे तो वह पद से चिपका नहीं रह सकता क्योंकि संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री राजनीतिक नैतिकता का भी रक्षक और प्रेरक होता है। उच्च न्यायालय ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट में अपील का रास्ता दिया था और वहां से उनके वोट देने के अधिकार पर मामले के फैसले तक पाबंदी लग गई थी।

उच्च और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले विपक्षी दलों और जयप्रकाश नारायण के राजनीतिक षड्यंत्र के परिणाम नहीं थे। इंदिरा गांधी ने उनका सम्मान न करके राजनीतिक लड़ाई के जरिए प्रधानमंत्री बने रहने का फैसला करके न्यायालयी कार्रवाई और नतीजों का राजनीतिकरण किया और इस तरह न्यायापालिका को अपने स्वतंत्र और स्वायत्त स्थान से खींच कर सत्ता राजनीति के दलदल में घसीट लिया। लोकतांत्रिक व्यवस्था को यह इंदिरा गांधी का आघात था जिसके स्थायी घाव आप अब भी उस पर देख सकते हैं। क्या किसी का लगातार सत्ता में बने रहना इतना अनिवार्य होता है कि लोकतंत्र को भी निलंबित कर दिया जाए?

इंदिरा गांधी के सत्ता के भागीदार कहेंगे कि हां। वे इतिहास और लोकतंत्र के सामने झूठ बोल रहे हैं। उनकी बात पर मत जाइए। इंदिरा गांधी इस सब के बावजूद महान और शक्तिशाली नेता थीं। उन्हें याद करके हम अपने को धन्य ही करते हैं। साभार : जनसत्ता

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You May Also Like

Uncategorized

भड़ास4मीडिया डॉट कॉम तक अगर मीडिया जगत की कोई हलचल, सूचना, जानकारी पहुंचाना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. इस पोर्टल के लिए भेजी...

टीवी

विनोद कापड़ी-साक्षी जोशी की निजी तस्वीरें व निजी मेल इनकी मेल आईडी हैक करके पब्लिक डोमेन में डालने व प्रकाशित करने के प्रकरण में...

Uncategorized

भड़ास4मीडिया का मकसद किसी भी मीडियाकर्मी या मीडिया संस्थान को नुकसान पहुंचाना कतई नहीं है। हम मीडिया के अंदर की गतिविधियों और हलचल-हालचाल को...

हलचल

[caption id="attachment_15260" align="alignleft"]बी4एम की मोबाइल सेवा की शुरुआत करते पत्रकार जरनैल सिंह.[/caption]मीडिया की खबरों का पर्याय बन चुका भड़ास4मीडिया (बी4एम) अब नए चरण में...

Advertisement