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ऐसी खबर जनसत्ता ही छापेगा, प्रभाषजी को भेज दो

जुलाई 1983 में मैं गोरखपुर से लखनऊ आया और ‘प्रतिदिन’ सांध्य दैनिक में अखिलानंदजी और बाद में सुरेश द्विवेदी (पूर्व संपादक, नवजीवन) के सानिध्य में पत्रकारिता का ककहरा सीख रहा था. इसी दौर में जनसत्ता का दिल्ली से प्रकाशन शुरू हुआ था. लखनऊ में जनसत्ता दोपहर के बाद पहुंचता था और उसके चाहने वाले उसका बेसब्री से इंतजार करते थे. कारण जनसत्ता हिन्दी पत्रकारिता को लेखन की एक नई दिशा दे रहा था. उन्हीं दिनों श्रीपति मिश्र उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. 1984 में मुख्यमंत्री के बेटों ने अधिकारियों को प्रभाव में लेकर गलत तरीके से एक पुरानी इमारत, जहां खादी ग्रामोद्योग बोर्ड का मुख्यालय था, के खाली पड़े भूभाग को अपने नाम करा लिया और उस पर आलीशान मकान बनवाना शुरू कर दिया. विपक्ष से जुड़े तमाम नेताओं ने इस मुद्दे पर हो-हल्ला तो शुरू किया लेकिन मीडिया चुप्पी साधे रही. मीडिया की चुप्पी के पीछे खास कारण एह रहा कि कतिपय बड़े पत्रकारों को इस खबर को दबाने के लिए गोमती नगर में प्रस्तावित पत्रकारपुरम में भूखण्ड देने का आश्वासन मिला था.

<p align="justify">जुलाई 1983 में मैं गोरखपुर से लखनऊ आया और 'प्रतिदिन' सांध्य दैनिक में अखिलानंदजी और बाद में सुरेश द्विवेदी (पूर्व संपादक, नवजीवन) के सानिध्य में पत्रकारिता का ककहरा सीख रहा था. इसी दौर में जनसत्ता का दिल्ली से प्रकाशन शुरू हुआ था. लखनऊ में जनसत्ता दोपहर के बाद पहुंचता था और उसके चाहने वाले उसका बेसब्री से इंतजार करते थे. कारण जनसत्ता हिन्दी पत्रकारिता को लेखन की एक नई दिशा दे रहा था. उन्हीं दिनों श्रीपति मिश्र उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. 1984 में मुख्यमंत्री के बेटों ने अधिकारियों को प्रभाव में लेकर गलत तरीके से एक पुरानी इमारत, जहां खादी ग्रामोद्योग बोर्ड का मुख्यालय था, के खाली पड़े भूभाग को अपने नाम करा लिया और उस पर आलीशान मकान बनवाना शुरू कर दिया. विपक्ष से जुड़े तमाम नेताओं ने इस मुद्दे पर हो-हल्ला तो शुरू किया लेकिन मीडिया चुप्पी साधे रही. मीडिया की चुप्पी के पीछे खास कारण एह रहा कि कतिपय बड़े पत्रकारों को इस खबर को दबाने के लिए गोमती नगर में प्रस्तावित पत्रकारपुरम में भूखण्ड देने का आश्वासन मिला था. </p>

जुलाई 1983 में मैं गोरखपुर से लखनऊ आया और ‘प्रतिदिन’ सांध्य दैनिक में अखिलानंदजी और बाद में सुरेश द्विवेदी (पूर्व संपादक, नवजीवन) के सानिध्य में पत्रकारिता का ककहरा सीख रहा था. इसी दौर में जनसत्ता का दिल्ली से प्रकाशन शुरू हुआ था. लखनऊ में जनसत्ता दोपहर के बाद पहुंचता था और उसके चाहने वाले उसका बेसब्री से इंतजार करते थे. कारण जनसत्ता हिन्दी पत्रकारिता को लेखन की एक नई दिशा दे रहा था. उन्हीं दिनों श्रीपति मिश्र उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. 1984 में मुख्यमंत्री के बेटों ने अधिकारियों को प्रभाव में लेकर गलत तरीके से एक पुरानी इमारत, जहां खादी ग्रामोद्योग बोर्ड का मुख्यालय था, के खाली पड़े भूभाग को अपने नाम करा लिया और उस पर आलीशान मकान बनवाना शुरू कर दिया. विपक्ष से जुड़े तमाम नेताओं ने इस मुद्दे पर हो-हल्ला तो शुरू किया लेकिन मीडिया चुप्पी साधे रही. मीडिया की चुप्पी के पीछे खास कारण एह रहा कि कतिपय बड़े पत्रकारों को इस खबर को दबाने के लिए गोमती नगर में प्रस्तावित पत्रकारपुरम में भूखण्ड देने का आश्वासन मिला था.

इसी दौरान मुख्यमंत्री के बेटों के उक्त अवैध निर्मित मकान से जुड़े महत्वपूर्ण साक्ष्य मेरे हाथ लगे. मैंने इस संबंध में एक रिपोर्ट तो तैयार कर लिया लेकिन इसे कहां छपने को भेजू, यह समझ नहीं पा रहा था. एक वरिष्ठ पत्रकार, जिनका मुझ पर विशेष स्नेह रहा, से इस बारे में बातचीत की. उन्होंने सलाह दी कि इस तरह की खबर जनसत्ता ही छाप सकता है, इसलिए इसे प्रभाष जी के नाम से जनसत्ता, दिल्ली के पते पर भेज दिया. मुझे भरोसा नहीं था कि यह खबर जनसत्ता में छपेगी. कारण, लखनऊ के तेजजर्रार पत्रकार जयप्रकाश शाही यहां से संवाददाता थे और वे भी इस खबर को दबाना चाहते थे, नहीं तो यह खबर कबकी छप चुकी होती. बहरहाल करीब 15 दिन बाद मेरे एक साथी नरेन्द्र निर्मल ने दोपहर बाद मेरे आवास पर आकर बधाई देते हुए जनसत्ता अखबार दिया जिसके खोज-खबर पेज पर मेरी उक्त रिपोर्ट हू-ब-हू छपी हुई थी.

जनसत्ता जैसे अखबार में एक नये लड़के की धमाकेदार खबर छपनी बड़ी बात थी. मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा, कुछ वरिष्ठों ने उत्साहित किया, लेकिन कुछ ऐसे लोग भी मिले जो डराने लगे कि मुझे लखनऊ छोड़ कर भाग जाना पड़ेगा. इसी बीच यह मामला शान-ए-सहारा में भी छप चुका था और जनसत्ता में छपने के बाद इतना तूल पकड़ा कि मुख्यमंत्री की छीछालेदर हो गई और प्रशासन को उनके बेटों के मकान का निर्माण रोकवाना पड़ा. चूंकि मामला मुख्यमंत्री से जुड़ा था, इसलिए मैं अंदर से डरने भी लगा था. इसी बीच मैने प्रभाष जोशीजी से संपर्क किया तो उन्होंने दूरभाष पर ऐसा अभयदान दिया कि मेरा डर काफूर हो गया. इसके बाद से जोशीजी के प्रति मेरे मन में जो भाव पैदा हुआ उसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता. जोशीजी के दर्शन की तमन्ना तभी से थी जो 28 नवंबर 2007 में तब पूरी हुई, जब आधी जिंदगी इधर-उधर गुजारने के बाद दिल्ली से शुरू होने वाली एक पत्रिका ‘द इंडिया पोस्ट’ से जुड़ा. पत्रिका का विमोचन समारोह इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेन्टर, लोदी रोड में होना था, जिसमें प्रभाषजी को ले जाने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई.

मैं सुबह 10 बजे निर्माण विहार स्थित जोशीजी के आवास पर पहुंच गया. आधे घंटे बाद जोशीजी नीचे उतरे और उन्हें करीब से देखकर मैं धन्य हो गया. पैर छूकर नमन करना चाहा तो उन्होंने कंधा पकड़ कर उठा लिया. मैं चाहता था कि गाड़ी में आगे बैठूं लेकिन जोशीजी ने अपने साथ पीछे बैठा लिया. रास्ते में उनके पूछने पर जब मैंने अपना नाम बताया तो उनका कहना था कि यह नाम तो जाना पहचाना लगता है. मैंने 1984 में फोन पर हुई बातचीत का जिक्र किया तो ऐसा लगा कि वे मेरे बारे में सब कुछ जान लेना चाहते हैं. गाड़ी चलती रही और मैं माया, सेवाग्राम, राजस्थान पत्रिका, न्याय, स्वतंत्र भारत, दैनिक जागरण, राष्ट्रीय सहारा होते हुए दिल्ली तक पहुंचने की यात्रा कथा सुनाता रहा. घर-परिवार के बारे में पूरा तहकीकात करने के बाद जिन जगहों से होकर मैं गुजरा था वहां से जुड़ी कई स्मृतियों को सुनाते रहे.

विमोचन कार्यक्रम के बाद उन्हें दिल्ली दूरदर्शन में एक साक्षात्कार देना था. उनके साथ दूरदर्शन गया, जहां सुधांशु रंजन साक्षात्कार के लिए उनकी प्रतीक्षा में थे. दूरदर्शन से चलते समय जोशीजी ने चालक से कहां ऐसे रास्ते से चलो ताकि खेल गांव में चल रही तैयारी को देख सकू. खेल गांव देखते निर्माण विहार पहुंचते-पहुंचते पांच बज गये. इस तरह उस मनीषी, जिससे मिलने की अभिलाषा मैं 1984 से पाले हुए था, ना खाली पूरी हुई बल्कि उनके साथ कई घंटे इत्मिनान से गुजारने का सौभाग्य मिला. लेकिन जोशीजी से दोबारा मिलने की इच्छा अधूरी रह गई. जबसे पता चला था कि वे अब वसुंधरा में रहने लगे हैं, उत्साहित रहा लेकिन शुक्रवार को आफिस आते ही जैसे नेट पर प्रभाषजी के नहीं रहने की खबर देखा, हतप्रभ रह गया. विश्वास ही नहीं हो रहा कि प्रभाषजी नहीं रहे…..


लेखक सदाशिव त्रिपाठी ‘द संडे इंडियन’ भोजपुरी पत्रिका में वरिष्ठ उप संपादक हैं.
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