सुबह-सुबह जब खबर मिली कि प्रभाष जोशी नहीं रहे तो दिल-दिमाग धक् सा रह गया। प्रभाष जी का जाना वैसे तो पूरे पत्रकारिता जगत की बड़ी क्षति है। लेकिन, हिन्दी पत्रकारिता के लिए तो एक मजबूत स्तम्भ के गिरने जैसा है। 73 साल के इस बुजुर्ग पत्रकार ने जिस युवा जोश के साथ ‘डिरेल’ होती पत्रकारिता को फिर से पटरी पर लाने, उसे मूल्यगत और मर्यादित करने की मुहिम छेड़ी थी- वो कोई साधारण काम नहीं था। और, निश्चित रूप से ये काम कोई उनके जैसा बिरला ही कर सकता था।
सचेत भीष्म पितामह सरीखे : बाजारवाद के इस दौर में उनकी स्थिति कभी-कभी उस भीष्म पितामह जैसी लगती थी, जो शर-शय्या पर हो, लेकिन सही गलत, उचित-अनुचित, धर्म-अधर्म, मर्यादा-अमर्यादा को लेकर न केवल पूरी तरह सचेत हो, बल्कि इस बाबत हर किसी को संदेश भी देता हो। जहां यह विभेद न हो कि कौन कौरव है और कौन पांडव यानी कौन किस खेमे, बिरादरी या पंथ का है। और, ये विभेद हो भी कैसे सकता था, क्योंकि प्रभाषजी वाणी, लेखन और सोच में हमेशा से साफगोई पसंद रहे। उनकी तीक्ष्णता बहुतों को सालती थी, तो कहीं मरहम का काम भी करती थी। कुछ-कुछ कबीरपंथी सरीखा।
गिरते मूल्यों से आहत : गांधी का गहरा असर था उन पर। प्राय: जेपी-विनोबा-इमरजेंसी के संस्मरण उनकी बातों में तैरते थे- क्योंकि उस दौरान के जीवन को उन्होंने न केवल जिया था, बल्कि अंतिम समय तक वे उनसे प्रभावित भी दिखे। संभवत: इसी के चलते वे मौजूदा पत्रकारिता को शैंपू-साबुन की तरह जब बिकते दिखते थे, तो भीतर तक आहत हो जाते थे। पिछले दिनों उन्होंने कई अखबारों की चुनावी रिपोर्टिंग को मुद्दा बनाते हुए उस पर प्रहार भी किए थे। वो चाहते थे कि हर कीमत पर अखबारों पर जन विश्वास बना रहे- यह खत्म नहीं होना चाहिए। तर्क था कि यह खत्म हो जाएगा तो लोकतंत्र खत्म हो जाएगा।
हम कह सकते हैं कि जनता की आजादी, उसके विचारों की आजादी का एक बेबाक और मजबूत पहरुआ चला गया। वैसे, ऐसा नहीं है कि प्रभाषजी के विचारों के आलोचक न हों। उनके समर्थक-प्रशंसकों की जमात है, तो आलोचक भी काफी हैं। मैं खुद कभी-कभी सोचता हूं कि प्रभाषजी जैसा खुले विचारों का व्यक्ति, आधुनिक खयालात वाला, मानवीय-उदार दृष्टि से सराबोर, किसी युवा से भी ज्यादा क्रिकेटप्रेमी- जिसका दिल हर बॉल-शॉट और अच्छी फिल्डिंग के साथ कैच पर धड़कता ही नहीं, कुलांचे मारता हो, वो भला कैसे सती प्रथा का समर्थन कर सकता है? वो भला कैसे उन दकियानूसी, रूढ़िवादी, कट्टरपंथी परंपराओं के साथ खड़ा हो सकता है, जो उसकी खुद की आधुनिक, लोकतांत्रिक, मानवीय दृष्टि और उसके उदारवादी फ्रेम में फिट न बैठती हो?
प्रतिद्वंद्वी विचारों के टीले पर : मुझे खूब याद है कि तब सती प्रथा पर उनके समर्थन का खूब विरोध भी हुआ था और बहुत से बुद्धिजीवियों-लेखकों ने तब जनसत्ता अखबार में न लिखने की बात की थी और बहिष्कार तक की बात उठी थी। वो ठीक है कि गुबार धीरे-धीरे शांत हो गया। दरअसल, प्रभाष जी बहुत से विचारकों-दार्शनिकों की तरह अनेक बार प्रतिद्वंद्वी विचारों के टीलों पर खड़े दिखते हैं। इसीलिए तो कभी वो अयोध्या आंदोलन में कमंडल के साथ हो जाते हैं तो फिर पिछड़ों-दलितों को न्याय दिलाने के लिए मंडल के साथ हो जाते हैं। कभी परंपरा का साथ निभाते दिवराला के सती कांड में एक नई राह पर चलते दिखते हैं, तो कभी सर्वोदयी, भूदान आंदोलन से जुड़ते है और मुरैना में डाकुओं के समर्पण में गांधी के ह्दय परिवर्तन की अवधारणा के नजदीक जाते। शायद कोई मार्क्सवादी इसकी ‘द्वंद्वात्मक’ व्याख्या करे, लेकिन मेरी नजर में प्रभाष जी हिन्दी पत्रकारिता के जवाहरलाल नेहरू थे। वो नेहरू जिसे हिमालय और गंगा से प्यार है, जो बुद्ध, आदि शंकराचार्य, अकबर और अशोक से प्रभावित है तो मिस्र, रोम और चीनी सभ्यताओं से भी। जो जरथ्रस्ट, कन्फ्यूशियस, लाओत्से, ह्रेनसांग और फाहियान से प्यार करता है, जो मार्क्सवाद और पश्चिमी लोकतांत्रिक समाजवाद ही नहीं, पश्चिमी रहन-सहन से भी प्रभावित है, जो खुद तो पढ़ता है इंग्लैंड के कैंब्रिज में, लेकिन उसका दिल धड़कता है सैकड़ों साल पहले के नालंदा, विक्रमशिला और तक्षशिला विश्वविद्यालयों के अवशेषों में, उनकी ज्ञान की धाराओं में।
परंपरा और आधुनिकता : शायद प्रभाष जी हिन्दी पत्रकारिता में नेहरू सरीखे ही थे। तभी तो वे कभी परंपरा से जुड़ते दिखते हैं और कभी आधुनिकता की ईंट तलाश कर नई इमारत का निर्माण करते हुए। आलोचक तो नेहरू के भी हैं- जो उनके सिद्धांत-व्यवहार में अंतर गिनाते हैं। लेकिन, इससे किसी का कद कम नहीं हो जाता। सच्चाई यही है कि बीसवीं शताब्दी में भारत में गांधी के बाद यदी किसी को सबसे ज्यादा जनता का प्यार मिला, तो वे नेहरू ही थे। और प्रभाष जी हिन्दी पत्रकारिता के नेहरू जैसे ही हैं, जिन्हें परंपरा और आधुनिकता दोनों से एक जैसा प्यार है। दोनों की वाणी सीधी है, स्पष्ट है। पत्रकारिता में हिन्दी को उसके गंभीर-पांडित्यपूर्ण शब्दों से निकाल कर प्रभाषजी ने उसे देशज बनाया तो नेहरू ने हिन्दी-उर्दू के मिश्रित रूप हिन्दुस्तानी जुबान के जरिए सियासत को जन अभिव्यक्ति दी।
मजे की बात ये है कि नेहरू की तरह ही प्रभाष भी अंतर्विरोधों को जीते हुए दिखते हैं- लेकिन दोनों ही न्यायपूर्ण आधुनिक व्यवस्था के पक्षधर हैं। दोनों ही बेहतर समाजरचना के लिए हर दिशा से आती स्वस्थ हवा-प्रकाश का स्वागत करते हैं और दोनों ही इस देश की मध्यमार्गी सूफी-संतों की धारा का समर्थन ही नहीं करते, उसे विरासत मान नए समाज की नींव भी बनाना चाहते हैं।
गौर करने की बात है कि प्रभाष जी की समन्वयी, मानवीय और उदार दृष्टि उनकी तीक्ष्ण-धारदार कलम पर हमेशा ही हावी भी इसी कारण रहती है, क्योंकि उसके केंद्र में मनुष्य है, न्याय है। इस मनुष्य का हंसना-रोना, सपने देखना, संताप करना और उसके देशज बोल-मुहावरे तक कभी ओझल होते हों, ऐसा नहीं लगता। उनकी कलम हमेशा उसी मनुष्य को मुखरित करती सी प्रतीत होती है। और शायद प्रभाष जी के द्वंद्व का कारक भी यही मनुष्य है, जो अलग-अलग स्थितियों में न केवल अलग-अलग आचरण करता है, बल्कि कई बार एक जैसी स्थितियों में भी अलग-अलग तरीके से ‘रिएक्ट’ करता है। और, एक ईमानदार पत्रकार हमेशा ही उस मनुष्य के प्रति ही तो प्रतिबद्ध होता है- शायद यही पत्रकारिता की सबसे बड़ी ताकत है, तो सबसे बड़े कमजोरी भी। क्योंकि, यही जुड़ाव कभी जन आंदोलन के ज्वार का नायक बनाता है, तो कभी गुजरे जमाने के निर्मम विश्लेषण में खलनायक भी। आखिर इतिहास निर्मम जो होता है।
जो भी हो, उस प्रतिबद्ध कलम को प्रमाण और ईमानदार पत्रकार प्रभाष जोशी को भी नमन्। कामना है कि यह ईमानदार प्रतिबद्धता हमेशा जीवित रहे।
लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं. इन दिनों वे लोकमत समाचार, नागपुर के संपादक हैं. उनका यह लिखा ‘लोकमत समाचार’ से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है.