मैं सिर्फ हथेली पर नोट लेता था और उसी से पूरा पेज भर देता था : पढ़ने में रुचि नहीं थी : तबसे दिल्ली में आकर धूल फांक रहा हूं : प्रभाष जोशी ने पिछले दिनों भड़ास4मीडिया को दिए एक विस्तृत इंटरव्यू में अपने जन्म की कथा बयान की थी। उन्होंने अपने परिवार, पारिवारिक स्थितियों, भाई-बहनों की खूब चर्चा की। इसमें उन्होंने अपने पत्रकार बनने की कहानी भी बयान की। पेश है प्रभाष जी की ही जुबानी, उनके बचपन और पत्रकारिता में आने की कहानी- ” मां का कहना है कि 15 जुलाई 1937 को जिस दिन मैं जन्मा, (मध्य प्रदेश के सिहोर जिले के आस्टा गांव में) दो-तीन दिन पहले से ही खूब बारिश हो रही थी। मेरे प्रसव के लिए मां मौसी के घर गई थीं। आस्टा गांव के किनारे पार्वती नदी बहती है। नदी लबालब थी, बाढ़ की स्थिति थी।
मुश्किल इतनी थी कि मुझे और मेरी मां को खटिया पर डालकर जिनिंग फैक्ट्री (कपास के बीज की फैक्ट्री), जो सबसे ऊंची जगह थी, वहां लाया गया। तब जाकर हम बचे। उसके बाद भी बारिश दो दिन तक होती रही। हम 12 भाई बहन थे, जिसमें दो नहीं रहे। तीन बहनों के बाद मैं पहला बेटा था। गरीब परिवार था। मगर अभाव के बावजूद गदगद वातावरण था। मां पढ़ी-लिखी नहीं थी। सिर्फ गीता पढ़ पाती थी। मेरे पिताजी होल्कर स्टेट में फौजदारी में थे। राव साहब कहलाते थे। दुनिया भर के अपराधी जिनमें ज्यादातर मुसलमान थे, अक्सर आया करते थे। एक दिन कोई अपराधी केस जीत गया। घर आया। पिताजी घर पर नहीं थे। उनने पिताजी जहां बैठते थे, वहां माला रखा, मिठाई रखी और चला गया। बड़ी बहनों की शादी हो गई तो मैं मां की मदद के लिए घर के सारे काम करता था। बहनों से भी बड़ा स्नेह था। जब बड़ी बहन का निधन हुआ तो मैने मालवा के लोकगीत ‘म्हारी बेन्या बाई जोवे बाट’ के शीर्षक से ‘कागद कारे’ में लिखा। पढ़ने में रुचि नहीं थी। हाई स्कूल तक की शिक्षा महाराजा शिवाजी राव प्राइमरी और मिडिल स्कूल में हुई। बहुत तेज नहीं था, बस पास हो जाता था। एक बार फेल हो गया था तो शिक्षकों के पीछे लग कर सपलमेंटरी ले लिया। घुमक्कड़ी का शौक था। मित्र कैलाश मालवीय और मैं साइकिल से जंगल निकल जाते। मां घर से कसार बना कर देती थी। भूख लगती तो जंगल में ही मैं चूल्हा बनाता और मालवीय छाना (पशुओं के सूखे हुए गोबर) लाते। फिर दूध में कसार डालकर दोनों आधा-आधा खाते। कालेज में आकर थोड़ा ठीक हुआ।
सन् 51 या 52 में मैट्रिक के बाद इंदौर में ही होल्कर कालेज में दाखिला लिया, मगर पिताजी चाहते थे कि मैं साइंस और मैथ पढ़ूं तो गुजराती कॉलेज चला आया। नौकरी- करियर जैसी चीजों मे कभी मन नहीं लगा। क्रिश्चियन कॉलेज के समाजशास्त्र के प्रो. पाटिल लड़कों को गांव ले जाते थे। उनसे संबंध निकाल मैं भी साथ जाने लगा। तब देश आजाद हुआ था और देश को नए सिरे से बनाने का सपना था। सन् 1955 में इंटर की परीक्षा छोड़ दी और सुनवानी महाकाल गांव में लोगों के बीच काम करने चला गया। पिताजी इससे काफी दुखी रहते थे। एक दिन बस से घर लौट रहा था तो पास में एक सज्जन बैठे थे। तब दाढ़ी उग आई थी और मैं खादी पहनता था। मुझे देखते रहे, फिर पूछा, किसके बेटे हो? मैने बताया। वो पिताजी के दोस्त थे। वे बोले, तुम्हारे पिता इसीलिए दुखी रहते हैं। फिर उन्होंने सुनवानी महाकाल में मुझे प्राइमरी स्कूल में मास्टरी पर लगवा दिया।
सुबह बच्चों को इकठ्ठा कर पूरे गांव में झाड़ू देता था। अपना अनाज खुद पीसता था। गांव की महिलाएं मुझे छेड़ने के लिए अपने घर का अनाज मेरे दरवाजे पर रख जाया करती थीं। वहां गांव के हर घर में, चाहे वह किसी जाति का हो, मैंने खाना खाया। तब रसोई में महिलाएं और लड़कियां मेरे झाड़ू लगाने और अनाज पीसने को लेकर खूब मजाक किया करती। गांव का जब भी कोई बीमार होता तो उसे लेकर पास के शहर देवास जाता था। वहीं 55-56 में कुमार गंधर्व से मुलाकात हुई। दुनिया भर के क्लासिकल किताबों को यहीं पढ़ा। जिस लेखक को शुरू करता उसकी आखिरी किताब तक पढ़ जाता। चाहे वो तोल्सताय हों, शेक्सपीयर या चेखव। गांव वाले भी खूब मानते थे। जब वे अनाज बेचने इंदौर जाते तो मेरे घर पूरे साल का अनाज दे आते थे। 1960 तक मैं यहीं रहा। 60 में मुझे लगा कि या तो मुझे राजनीति में जाना पड़ेगा या मैं भ्रष्ट हो जाऊंगा, क्योंकि सारा गांव मुझे लिजेंड मानता था। उधर कांग्रेस वालों को लगता था कि मैं कांस्टीट्यूएन्सी बना रहा हूं, जबकि मैं तो देश के नव-निर्माण में लगा था।
जब मैंने वहां से हटने का फैसला किया तभी मैने सोचा कि पत्रकारिता में क्यों नहीं आऊं। बिल्ली के भाग से छीका फूटा वाली बात हुई। उसी दौरान विनोबा जी इंदौर आए। वो क्या कह रहे हैं, तब उन्हें समझने वाला कोई नहीं था। नई दुनिया, इंदौर के संपादक राहुल बारपुते ने कहा कि तुम करो। तब मैंने इसे एक महीने तक कवर किया। मैं सिर्फ हथेली पर नोट लेता था और उसी से पूरा पेज भर देता था। विनोबा जी सुबह तीन बजे से काम शुरू कर देते थे। मैं 2.45 में ही उनके पास पहुंच जाता। सारा दिन कवर कर वहां से नई दुनिया जाता। इसने पत्रकारिता के दरवाजे खोल दिये। मैं वहां काम करने लगा।
एक दिन कोई भी आफिस नही आया। तब मैने अकेले चार पन्नों का अखबार निकाला। दूसरे दिन मैं नाराज हुआ तो सभी ने कहा कि हम तो टेस्ट ले रहे थे। राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर और शरद जोशी के साथ वो जो ट्रेनिंग हुई, वो हमेशा काम आई। यहां 60 से 66 तक छह साल तक काम करते हुए मजे में बीता। इसी बीच एक बार प्रेस इंस्टीट्यूट में माइकल हाइट्स, जो लीड्स के किसी अखबार के संपादक थे, से मुलाकात हुई। वह हर क्षेत्र में मेरी रुचि से बेहद खुश थे। उन्होंने इंग्लैंड के प्रतिष्ठित वीकली ‘न्यू स्टेट्समैन’ के संपादक जॉन फ्रीमन से कहा। इस तरह मैं 1965 में इंग्लैंड गया। वहां इंग्लैंड से निकलने वाले ‘मैनचेस्टर गार्डियन’ और लीड्स के ‘टेलीग्राफ आर्गस’ में कुछ महीनों तक काम किया। फिर लौट आया।
वापस आने के बाद मैं कुछ नया करना चाहता था। नई दुनिया ट्रेडिशनल अखबार था और वहां प्रयोग की गुंजाइश नहीं थी। तभी शरद जोशी के पास भोपाल से ‘मध्यदेश’ नाम से अखबार निकालने का प्रस्ताव आया। मुझसे भी बात की गई तो मैने हामी भर दी। हम दोनों ने मिलकर इसे निकाला। बाद में अखबार आर्थिक संकट का शिकार हो गया। पत्नी का जेवर गिरवी रखकर अखबार चलाना पड़ा। रद्दी बेच कर मोटरसाइकिल में पेट्रोल डलवाया। सन् 66-68 तक चलने के बाद इसे बंद करना पड़ा। 68 में ही गांधी शताब्दी समिति में पब्लिकेशन का सचिव होकर दिल्ली आ गया। तब से दिल्ली में धूल फांक रहा हूं।”
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