क्या पता था यह उनके जन्मदिन का अंतिम आयोजन था। मेरे लिए तो पहला था क्योंकि उनके किसी जन्मदिन में मैं पहली बार शामिल हुआ था। पत्रकारिता में कदम रखने वाले हर शख्स की तरह मैं भी प्रभाष जी को पढ़ते-गुनते इस फील्ड में आया। एक लिविंग लीजेंड से मिलने की तमन्ना वर्षों से दिल में थी लेकिन मुलाकात का मौका दिल्ली आने पर ही मिला। मुझे अफसोस है कि मैं प्रभाष जी से कभी इत्मीनान से बतिया नहीं पाया। एक मौका था। उनका इंटरव्यू करने का। तो वह मौका लपक लिया अपने साथी अशोक कुमार ने। भड़ास4मीडिया के लिए अशोक ने विस्तृत इंटरव्यू किया। मैंने मन को समझाया था। आगे कभी इत्मीनान से मैं खुद एक राउंड और इंटरव्यू करूंगा प्रभाष जी का। जो चीजें अशोक से छूटी हैं, उस पर प्रभाष जी से बात करूंगा। उनकी मनःस्थिति, उनके विचारों को गहराई से समझने की कोशिश करूंगा।
पर क्या पता था कि प्रभाष जी अब कोई मौका नहीं देने वाले हैं।
इसी बीते 15 जुलाई को उनके 73वें जन्मदिन पर गांधी शांति प्रतिष्ठान में आयोजन हुआ। प्रख्यात गांधीवादी सुब्बाराव के साथ गाने की बात आई तो मैं खुशी-खुशी मंच पर गया और कोरस टीम का हिस्सा बना। बच्चे-सी मुस्कान लिए प्रभाष जी अपने जन्मदिन पर इनसे-उनसे मिलने में व्यस्त थे। वे गेट पर खड़े आने-जाने वालों का स्वागत कर रहे थे। मैं भी वहां इधर-उधर घूम रहा था।
किसी ने मेरे कान में कहा था कि ‘देखो, प्रभाष जी गेट पर इसलिए खड़े हैं क्योंकि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित आने वाली हैं और वे उनकी अगवानी की तैयारी में हैं।’
उस शख्स ने यह बात व्यंग्य के तौर पर कही थी। मैंने भी सच मान लिया। पर बात को मैं पेट में दबा नहीं पाया। अचानक मेरे मन में शैतानी सूझी।
प्रभाष जी के पास टहलते हुए पहुंचा और पूछ लिया- ‘सर, शीला जी का इंतजार कर रहे हैं?’
प्रभाषजी जोर से हंसे और बोले- ‘नहीं, वो तो आ ही नहीं रही हैं। उनके इंतजार में नहीं हूं।’
उन्होंने इतना कहा ही था कि उनके सामने फिर कोई प्रकट हुआ और वे उनसे बात करने में तल्लीन हो गए। इस दौरान वे मेरे कंधे पर अपना हाथ रख चुके थे। इस पोज की तस्वीर मेरे किसी दोस्त ने उतार ली थी, किसने उतारी यह ठीक से याद नहीं, शायद अशोक ने या संजय ने। मैं इस तस्वीर को बेहद पसंद करता हूं। प्रभाष जी का मेरे कंधे पर वह हाथ मुझे अजीब किस्म की ऊर्जा से भर गया।
मानो तो देवता नहीं पत्थर वाले तर्ज पर मैंने अपने कंधे पर रखे गए प्रभाष जी के उस हाथ की ऊर्जा व उष्मा को जमकर महसूस किया। उस तस्वीर को भड़ास4मीडिया पर प्रकाशित करने का मोह भी नहीं त्याग पाया। मुझे लगा, प्रभाष जी के साथ अपनी इस पोज की तस्वीर को वेब के महासमुद्र में भड़ास4मीडिया के माध्यम से डाल देना चाहिए ताकि प्रभाषजी रहें न रहें, मैं रहूं न रहूं, ये तस्वीर हमेशा मुझे उनसे जोड़कर रखेगी।
प्रभाष जी के जन्मदिन की पूरी खबर व अन्य तस्वीरें देखने के लिए क्लिक कर सकते हैं- जन्मदिन पर मीडिया दिग्गजों की जुटान
आज जब यह सब लिख रहा हूं तो खुद अपने कंधे पर प्रभाष जी का हाथ पा रहा हूं। एक जिम्मेदारी का बोध महसूस कर रहा हूं। उनकी सोच और उनके विचार को आगे बढ़ाने का एहसास पैदा होता पा रहा हूं। यहां मैं का मतलब सिर्फ यशवंत नहीं बल्कि हम सभी हैं। पूरी हिंदी पत्रकारिता बिरादरी है। मैं का छोटा अर्थ खुद से है और मैं का व्यापक अर्थ सभी से है, पूरे ब्रह्मांड से हैं।
उनका यह हाथ, हम सभी के कंधे पर है।
पत्रकारिता में ईमानदारी कायम रखने के लिए प्रभाष जी ने जिस कदर लिखा-पढ़ा-लड़ा, सेमिनार-गोष्ठियों को संबोधित किया, पत्रकारों को जागरूक बनाया, संस्थाओं पर दबाव बनाया वह बेमिसाल है।
इतनी उम्र होते हुए भी उनकी सक्रियता और उनका लेखन देखकर मैं दंग होता था।
प्रभाषजी से कतई उम्मीद नहीं थी कि वे इस कदर सक्रिय होते हुए अचानक एक दिन चले जाएंगे। उनके एक और जन्मदिन का हिस्सेदार न बन पाने का दुख मुझे हमेशा रहेगा। होते तो शायद फिर कभी वे मेरे कंधे पर अपना हाथ रखते।
प्रभाषजी से जुड़ी कोई स्मृति अगर आपके पास है तो भड़ास4मीडिया पर प्रकाशन के लिए भेज सकते हैं, [email protected] के जरिए.