Connect with us

Hi, what are you looking for?

कहिन

आखिर अपन बहत्तर के हो गए

प्रभाष जोशी

आखिर अपन बहत्तर के हो गए। अब ये होने का ऐसा है कि आप चाहो कि होते रहना रुक जाए और आप वहीं खड़े रहो जहां कि कल खड़े थे तो ऐसा नहीं हो सकता। और ऐसा भी नहीं हो सकता कि आप जल्दी-जल्दी होने लगें और जितनी लिखा कर लाए थे वह आज ही पूरी हो जाए। होते रहना आपके साथ और आपके बावजूद भी होता रहता है। आप कैसे ही तीस मार खां हों, आपका होना आप से निरपेक्ष है। इस पर आपका कोई बस नहीं चल सकता।

प्रभाष जोशी

प्रभाष जोशी

आखिर अपन बहत्तर के हो गए। अब ये होने का ऐसा है कि आप चाहो कि होते रहना रुक जाए और आप वहीं खड़े रहो जहां कि कल खड़े थे तो ऐसा नहीं हो सकता। और ऐसा भी नहीं हो सकता कि आप जल्दी-जल्दी होने लगें और जितनी लिखा कर लाए थे वह आज ही पूरी हो जाए। होते रहना आपके साथ और आपके बावजूद भी होता रहता है। आप कैसे ही तीस मार खां हों, आपका होना आप से निरपेक्ष है। इस पर आपका कोई बस नहीं चल सकता।

जैसे मैं मन ही मन मना रहा था कि बहत्तर पूरे न करूं। इस साल को लेकर मेरे अंदर कई शंकाए और भय भरे हुए हैं। उन्नीस सौ आठ में जन्मे मेरे दा साब मजे से चल रहे थे कि एक दिन अचानक पता चला कि उन्हें गले में कैंसर है। इंदौर के घर में सब लोग सुन्न रह गए। मैं चंडीगढ़ था तो उन्हें लेकर आया। वहां के पीजीआई में उनके कागज दिखाए। रेडियोल़ॉजिस्ट डाक्टर गुप्ता ने कहा कि जल्दी पकड़ में आ गया है। बिलकुल फिकर मत करो। ठीक हो जाएंगे। उनने रेडियो थेरपी की और दा साब सचमुच ठीक हो गए। उनने दाढ़ी रख ली। इंदौर हो आए। छह महीने बाद पीजीआई में फिर जांच हुई तो कैंसर का गले में नामोनिशान नहीं था। सेहत बनाने के लिए चंडीगढ़ से बेहतर कोई जगह हो नहीं सकती थी। अच्छा खाना-पीना और सुबह-शाम टहलना।

बिलकुल ठीक चल रहे थे कि सन अस्सी के दिसंबर महीने के आखिरी दिनों में एक शाम टहलने निकले। सड़क पर बस से टकरा गए। न कोई चोट न कोई खून। उसी पीजीआई में उन्हें निर्जीव देखा, जहां से वह कैंसर से मुक्त होकर आए थे। डॉक्टर गुप्ता सदमे में। कैंसर से तो नहीं हो सकती डेथ। जी सही है। वे एक्सीडेंट में गए। दा साब बहत्तर साल और कुछ महीनों के थे।

वैसे ही मन्ना!  यानी भवानीप्रसाद मिश्र। हमारे लिए दिल्ली में दा साब के पर्याय। उनने दिल के इतने दौरे झेल लिए थे कि कई बार लगता था हमारी गिनती अवैज्ञानिक है। दो दौरे तो हमारे सामने पड़े थे। एक गांधी निधि में और दूसरा कानपुर में। कानपुर का बड़ा जबरदस्त था। वहीं उन्हें अस्पताल में देखा। देखते ही बोले- हिरना, समझ बूझ बन चरना। उन दिनों कुमार जी का गाया यह कबीर पद हम लोगों के मुंह पर था। कानपुर में उन्हें पेस मेकर लगा। उसकी उमर पूरी हुई तो दस साल बाद इरविन में नया लगा।

कवि सम्मेलन करने या यों ही भाषण देने जाते तो सबसे मिलकर जाते। विदा करने वालों को डर लगता रहता कि क्या पता फिर इन्हें देखने का मौका मिले न मिले। वे तब भी उस उमर और उस स्वास्थ्य में सेकंड स्लीपर पर यात्रा करते। ऊपर की बर्थ मिल जाती तो भी सीना और उमर दिखा कर बदलवाते नहीं। ऊपर चढ़ कर झोले में पैसे लिए रात काट देते। लौट कर फिर सबसे मिलते तो कहते लगते- देखो लौट आया सई सलामत।

ऐसा ही एक यात्रा पर वे अपने गांव-नगर नरसिंहपुर गए। खंडवा में दो भाषण दिए। फिर नरसिंहपुर गए। एक दिन दिल का ऐसा जानलेवा दौरा पड़ा कि न पेस मेकर काम आया न कोई दवा। नरसिंहपुर में उनके खेत पर ही राख हुआ उनका शरीर देखा। मन्‍ना भी बहत्‍तर बरस के थे।

नहीं, यह मत समझ लीजिए कि दा साब और मन्‍ना के बहत्‍तर पूरे करके जाने से अपन डरे हुए हैं कि अब अपना नंबर। ऐसे तथ्‍य मैं छानबीन करके अपने पास रखता हूं ताकि सभी संभावनाओं से अपने को सचेत रखूं। अभी उस दिन मन्‍ना के बड़े बेटे अब्‍बी यानी अमिताभ मिश्र के साथ हम अपोलो अस्‍पताल जा रहे थे। उन्‍हें भी यह हिसाब मैंने सुनाया। उनने कहा-कोई बात नहीं भाई साब ! अपन अपनी उमर में अपने आप से बेहतर हैं और दा साब तो इस उमर में बहुत बूढे लगते थे। आप तो बडे चंगे हैं। डॉक्‍टर ने कहा ही है। लेकिन यह तो हिसाब है अब्‍बी भैया। दुनिया हिसाब से चलती कहां है। मां के बाद पिता ही अपनी देह बनाने वाला है। उसे याद रखना चाहिए।

हमारे विष्‍णु चिंचालकर यानी गुरुजी तो चौरासी के होकर गए। उनके मन में सहस्र चंद्र दर्शन की इच्‍छा थी। लेकिन ये विलक्षण चित्रकार जब पचहत्‍तर के हुए तो हमने उनका अमृत महोत्‍सव मनाने का विचार किया। गुरूजी मालवी के ‘गेल्‍या’ होने तक सीधे और सच्‍च्‍ो आदमी थे। मेरी बरात में उज्‍जैन गए। बस में बैठे-बैठे सुंदर सरौते से बारीक सुपारी काट रहे थे। खुद ही बोले और हंसे ‘गेल्‍यो’  बेटो बारात जाए, पान सुपारी घर की खाय। ऐसे गुरुजी ने हमसे कहा-‘ मैं पचहत्‍तर का हुआ, इसमें मेरा क्‍या पराक्रम है ! समय ने अपना काम किया है। उसके अजेय पराक्रम का उत्‍सव हम निराक्रमी कैसे मना सकते हैं।’ लेकिन उनने अपने जाने के लिए शीलनाथ महाराज का वही भजन कुमार जी से गवा रखा था जो शीलनाथ बाबा ने ऋषिकेश में समाधि लेते हुए अपने शिष्‍यों से सुना था। उस भजन से गुरुजी को ऐसा मोह था कि एनसीईआरटी ने उन पर जो फिल्‍म बनाई उसके अखीर में भी उनने वही बजवाया। रविशंकर महाराज ने जब सौंवे साल में प्रवेश किया जो अपन अमदाबाद में थे। प्रकाश भाई के साथ उनके दर्शन करने गए। बिल्‍कुल गांधी वाली सादगी में, जो कमरे को पावित्रय दे रहे थे, वे लेटे थे। बातचीत के अंत में प्रकाश भाई ने उनसे पूछा- अब सौवीं वर्षगांठ कैसे मनाओगे। उनने सादी निर्मल मुस्‍कान के साथ कहा- बस इसी तरह लेटे-लेटे।

उमर का ऐसा अहसास ही न हो, मुझे लगता है कि यही असली जिजीविषा है। जीने और जीते रहने का सही तरीका। हम नाहक अपने मन और शरीर पर जिए हुए वर्षों की मरी हुई लकडियों का बोझ डाले रहते हैं। बचपन में माताराम कहती थी- बीस में विद्या तीस में धन आ जाना चाहिए। लेकिन अपने को तो न विद्या आई न धन मिला। दिल्‍ली आया तो तीस का था। रेल का टिकट उधार पैसे से खरीदा।भेनजी गिरस्‍ती लेकर आई तो एक टैक्‍सी में सब आ गया था। रामनाथ गोयनका और राधाकृष्‍ण पहली बार घर आए तो बैठाने को दो कुर्सियां नहीं थीं। भागवत बाबू मंत्री बने तो दिल्‍ली आए। भेनजी ने कागज जलाकर चाय बनाई और उन्‍हें पिलाई। एक बार मुकुंद कुलकर्णी बस भर के अपने कार्यकर्ता ले आए। रात हो गई थी। उन्‍हें ठहरा तो लिया, लेकिन रोटी बना कर खिलाने पूरता घर में आटा नहीं था।

Advertisement. Scroll to continue reading.

इस सबसे न तो अपने को धन कमाने की प्रेरणा हुई न कभी दीनता और दैन्‍य का अहसास। कबीर ने सिखाया था कि फकीरी में मन लगाओगे तो चारों खूंट जगीरी में होंगे। अब भी हैं, हालांकि फकीरी उतनी नहीं रही। अपनी फकीरी पर कभी तरस नहीं आया दूसरों के वैभव से जान नहीं जली। गिरस्‍ती बस गई तो फिर कबीर ने साथ दिया। सांई इतना दीजिए जा में कुटुम समाय, मैं भी भूखा न रहूं न साधू भूखा जाए। जो मेरा है उसे मुझसे कोई छीन नहीं सकता, जो दूसरे का है वो मेरा हो नहीं सकता। इसलिए सारी छीना-झपटी बेकार है। आप किसी के साथ दौड में नहीं हैं। जो हैं वे पिछड जाने के लिए अभिशप्‍त हैं। शायद रवींद्रनाथ ने कहा है- मैं किसी से नहीं लडा, क्‍योंकि कोई भी मेरे वार के लायक नहीं था।

मैं जानता हूं कि अपने यहां मनमोहन सिंह खुले बाजार की पूंजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था ले आए हैं। सब ज्‍यादा से ज्‍यादा कमाने की होड में दौड रहे हैं। होड को नव-उदार पूंजीवाद तरक्‍की की पहली प्रेरणा और शक्ति मानता है। अपने चमकीले नौजवानों को टाई बांधे और लैपटाप लटकए बदहवास दौडते हुए मैं देखता हूं और मेरी इच्‍छा होती है कि उनके कंधे पर हाथ रख कर पूंछूं- बेटा कहां जा रहे हो ?, पैसा और अमेरिका स्‍वर्ग नहीं है। और यह होड तुम्‍हें स्‍वर्ग में भी रुकने नहीं देगी। यह चाहती है कि तुम दौडते हुए गिरो और खल्‍लास हो जाओ। तुम्‍हारी जगह से कोई और ज्‍यादा सक्षम जवान दौडने लगे। यह सबको दुडवाती रहना चाहती है। बताती नहीं कि जो दौडता है वह कहां पहुंचता है?  कितने देश अमेरिका और उससे भी ज्‍यादा समृद्ध हो गए?  अमेरिकी कितने सुखी और सार्थक हैं?? पैसे से क्‍या-क्‍या खरीदा नहीं जा सकता। तोबडा बांध कर जो तुम्‍हें दुडवा रहा है उससे पूछो कि वह तुम्‍हें पहुंचाएगा कहां? होड का तोबडा इसीलिए कि कोई रुक कर पूछे नहीं कि क्‍यों? पद दूसरों की उधार पूंजी पर कैसे जी सकते हैं

इससे आपको कहीं यह न लगे कि अपन बहत्‍तर से डरे हुए है और सन्‍यास में झूठी सार्थकता देख रहे हैं। पंद्रह साल पहले अपन ने संपादकी छोडी इसलिए कि अपनी और भेनजी की बाईपास हुई थी। डॉक्‍टरों का कहना था कि अब थोडे आराम से जियो। लेकिन उसके बाद डायबिटीज को पच्‍चीस साल हो गए। पेसमेकर भी लग गया। लेकिन घूमना तो रुका ही नहीं हैं। पहले से ज्‍यादा यात्राएं होती हैं। ज्‍यादा गोष्ठियों, सभा-सम्‍मेलनों और मेलों में जाना होता है। पहले से ज्‍यादा लिख रहा हूं। लिखने -पढने में पहले से ज्‍यादा मन लगता है। संगीत सुनता हूं। क्रिकेट और टेनिस देखता हूं। लोगों से बातें करते हुए अक्‍सर भावुक हो जाता हूं। अमूर्त स्थितियां और अनुभूतियां रुला तक देती हैं।

लोग उमर और शारीरिक अवस्‍था की याद दिलाते हैं तो मुझे अच्‍छा नहीं लगता। सभा-गोष्ठियों में हिंदी वालों की आदत के मुताबिक-पितृ पुरुष, शिखर पुरुष पितामह आदि कहा जाता है तो मुझे अपमानजनक लगता है। यह कोई फोकट की जवानी छांटना नहीं है। अपनी उमर का दिखना सच्‍चा दिखना है। जो बाल काले करते हैं वे मुझे अपनी हकीकत छुपाने वाले झूठे लोग लगते हैं। सुबह-शाम में चौदह गोलियां लेने और दिन में तीन बार छत्‍तीस यूनिट इंसुलिन लगाने वाले आदमी को क्‍या अपनी सेहत का अंदाजा नहीं होगा? फिर भी मुझे अंदर से कभी बुढापा नहीं लगता न कभी सब कुछ छोड देने की इच्‍छा होती है। अभी उस दिन दिग्विजय सिंह के साथ आसनसोल उतरा। कार से देवघर गया। वहां से बांका होते हुए सुल्‍तागंज पहुंचा। वहां से रात साढे दस बजे धौरी के लिए निकले और वहां से रात दो बजे देवघर। ढाई बजे सोए। साढे चार बजे फिर उठे। नहा-धोकर निकले और दो घंटों में सुल्‍तानगंज पहुंचे। भागलपुर से बांका होते हुए रात को देवघर। छत्‍तीस घंटों में बस दो घंटे नीद।

आप कहेंगे पागलपन है। लेकिन अपने ने एक पल भी नहीं सोचा कि क्‍यों ? ऐसा करने के खतरे जानता हूं। लेकिन बैठ गया तो सड जाऊंगा। किसी से दौड में नहीं हूं। अपने से भी नहीं। बचपन से रोज कुआं खोदने और पीने की आदत है। पीछे की कमाई न जोड के रखी है न उस पर जीता हूं। जीवन का काम तो अभी करना है। अपना सर्वश्रेष्‍ठ तो अभी आना है।


जनसत्ता के ‘कागद कारे’ कालम से साभार
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अपने मोबाइल पर भड़ास की खबरें पाएं. इसके लिए Telegram एप्प इंस्टाल कर यहां क्लिक करें : https://t.me/BhadasMedia

Advertisement

You May Also Like

Uncategorized

भड़ास4मीडिया डॉट कॉम तक अगर मीडिया जगत की कोई हलचल, सूचना, जानकारी पहुंचाना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. इस पोर्टल के लिए भेजी...

Uncategorized

भड़ास4मीडिया का मकसद किसी भी मीडियाकर्मी या मीडिया संस्थान को नुकसान पहुंचाना कतई नहीं है। हम मीडिया के अंदर की गतिविधियों और हलचल-हालचाल को...

टीवी

विनोद कापड़ी-साक्षी जोशी की निजी तस्वीरें व निजी मेल इनकी मेल आईडी हैक करके पब्लिक डोमेन में डालने व प्रकाशित करने के प्रकरण में...

हलचल

[caption id="attachment_15260" align="alignleft"]बी4एम की मोबाइल सेवा की शुरुआत करते पत्रकार जरनैल सिंह.[/caption]मीडिया की खबरों का पर्याय बन चुका भड़ास4मीडिया (बी4एम) अब नए चरण में...

Advertisement