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हलचल

इन साथियों के संघर्ष को सलाम करें

: प्रमोद दाभाडे और सुभाष चौहान की लड़ाई के चलते सैकड़ों मीडियाकर्मियों को फायदा हुआ : पर इनके साथ लड़ाई में खड़ा होने कोई नहीं आया : पत्रकारिता के बदलते स्‍वरूप को लेकर कई मंचों पर तमाम बातें की जाती हैं, अखबारों में लम्‍बे लम्‍बे लेख लिखे जाते हैं, सेमिनारों में चिंता जताई जाती है. जिन लोगों के हाथों में पत्रकारिता की दशा दिशा बदलने की ताकत होती है, वो लोग इसके गिरते स्‍तर और बदलते मिजाज पर विलाप करते हैं. लेकिन इससे इतर बड़े-छोटे मीडिया हाउसों में काम करने वाले आम पत्रकार की स्थिति क्‍या है, इस पर ना तो कोई चर्चा होती है और ना ही इसकी कोई चिंता करता है.

<p style="text-align: justify;">: <strong>प्रमोद दाभाडे और सुभाष चौहान की लड़ाई के चलते सैकड़ों मीडियाकर्मियों को फायदा हुआ : पर इनके साथ लड़ाई में खड़ा होने कोई नहीं आया</strong> : पत्रकारिता के बदलते स्‍वरूप को लेकर कई मंचों पर तमाम बातें की जाती हैं, अखबारों में लम्‍बे लम्‍बे लेख लिखे जाते हैं, सेमिनारों में चिंता जताई जाती है. जिन लोगों के हाथों में पत्रकारिता की दशा दिशा बदलने की ताकत होती है, वो लोग इसके गिरते स्‍तर और बदलते मिजाज पर विलाप करते हैं. लेकिन इससे इतर बड़े-छोटे मीडिया हाउसों में काम करने वाले आम पत्रकार की स्थिति क्‍या है, इस पर ना तो कोई चर्चा होती है और ना ही इसकी कोई चिंता करता है.</p> <p>

: प्रमोद दाभाडे और सुभाष चौहान की लड़ाई के चलते सैकड़ों मीडियाकर्मियों को फायदा हुआ : पर इनके साथ लड़ाई में खड़ा होने कोई नहीं आया : पत्रकारिता के बदलते स्‍वरूप को लेकर कई मंचों पर तमाम बातें की जाती हैं, अखबारों में लम्‍बे लम्‍बे लेख लिखे जाते हैं, सेमिनारों में चिंता जताई जाती है. जिन लोगों के हाथों में पत्रकारिता की दशा दिशा बदलने की ताकत होती है, वो लोग इसके गिरते स्‍तर और बदलते मिजाज पर विलाप करते हैं. लेकिन इससे इतर बड़े-छोटे मीडिया हाउसों में काम करने वाले आम पत्रकार की स्थिति क्‍या है, इस पर ना तो कोई चर्चा होती है और ना ही इसकी कोई चिंता करता है.

मुश्किलों से गुजर रहा कोई पत्रकार इस व्‍यवस्‍था के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश भी करता है तो ये ताकतें उसकी आवाज को दबा देती हैं. कारण साफ है, इस चौथे स्‍तम्‍भ के भीतर इंसाफ करने का अधिकार उसी के पास होता है जिसने गुनाह किया है. समाज में होने वाले अन्‍याय के खिलाफ कलम चलाने और आवाज उठाने वाला पत्रकार वैसे तो प्रशासन सरकार को हिला देने का दंभ भरते हैं, जब उसके खुद के साथ अन्‍याय होता है, और खासकर तब, जब यह अन्‍याय उसका अपना ही संस्‍थान या कोई वरिष्‍ठ करता है, तब उसकी कलम की धार और आवाज, दोनों कुंद पड़ जाते हैं. तब यह लड़ाई हौसले से नहीं, जिंदगी की जरूरतों से जुड़ जाती है, करियर से जुड़ जाती है, समझौतावादी चरित्र से जुड़ जाती है, हमारे संघर्ष करने की क्षमता से जुड़ जाती है.

लेकिन दैनिक भास्‍कर, इंदौर के पूर्व पत्रकार प्रमोद दाभाडे और सुभाष चौहान इन सबसे अलग हैं. इन लोगों ने अपने पत्रकार दोस्‍तों के हित के लिए अपनी नौकरी गंवा दी. दोनों अपना हक और अपनी नौकरी पाने के लिए पिछले डेढ़ दशक से संघर्ष कर रहे हैं. लंबे संघर्ष ने उनको कमजोर नहीं किया है बल्कि हर एक गुजरते दिन ने उनके हौसले को और अधिक मजबूती दी है. प्रमोद दाभाडे के संघर्ष की कहानी फिल्‍मी लगती है, जिसमें कई रंग हैं. जिसमें दर्द है, खुशी है, अपनापन है, परायापन है, धोखा है, रिश्‍तों के बदलते रंग-रूप हैं, तो कहीं न्‍याय प्रणाली का दोहरा चरित्र, साथ ही मीडिया का असली चेहरा भी.

प्रमोद दाभाडे के जीवन में 18 नवम्‍बर 1996 का दिन एक अलग महत्‍व रखता है. इसी दिन इनको दैनिक भास्‍कर, इंदौर की नौकरी से निकाला गया था. इसी दिन एक ऐसे संघर्ष की पटकथा लिखी गई थी, जो अमूमन पत्रकारिता में देखने को नहीं मिलती. प्रमोद और उनके दोस्‍त सुभाष की गल्‍ती सिर्फ इतनी थी कि उन्‍होंने समाचार कर्मचारी यूनियन द्वारा भविष्‍य निधि आयुक्‍त से कर्मचारियों के भविष्‍यनिधि में कवरेज के लिए की गई शिकायत में गवाह बन गए थे. यह बात इन लोगों के अखबार दैनिक भास्‍कर मैनेजमेंट को नागवार लगी, और 18 नवम्‍बर को इन दोनों को नौकरी से निकालने का फरमान सुना दिया गया.

यह अलग बात थी कि इन दोनों के इस बलिदान का फायदा इंदौर में 700 मीडियाकर्मियों को मिला, जिनको इनकी गवाही पर भविष्‍यनिधि में कवरेज किया गया. प्रमोद बताते हैं, ‘भविष्‍यनिधि की लड़ाई के दौरान मेरे साथ भास्‍कर के वरिष्‍ठ और कनिष्‍ठ सभी लोग थे, लेकिन जब मेरी नौकरी गई तो फिर कोई आगे नहीं आया, लोगों ने मुझसे मुंह फेर लिया, मुझसे बात करना छोड़ दिया गया. साथी व्‍यंग्य करते थे कि नेतागिरी कर रहा था, मुझे देखकर खिल्‍ली उड़ायी जाती थी, लोग हंसते थे. तब कभी कभी हौसला और हिम्‍मत जवाब दे जाते, इसके बावजूद मैंने कभी हार नहीं मानी. मेरा पूरा परिवार मेरे साथ था. मेरे माता-पिता कहते थे, बेटा तू क्षत्रिय मराठा है, ऐसे हार मत मानना, तूने किसी का बुरा नहीं किया है. तेरी नौकरी गई तो क्‍या हुआ, इतने लोगों का भला तो हुआ. इस दौरान प्रहलाद चौकसे जी और बालकृष्‍ण प्रधान जी ने मुझे हौसला बंधवाया और भास्‍कर के खिलाफ केस दर्ज कराने को कहा. मैंने केस दर्ज करवाया, लेकिन अन्‍य पत्रकार मित्र और कर्मचारी यह कहते कि दैनिक भास्‍कर के खिलाफ केस दर्ज करवाया है, वे कानून और कानून के रखवालों को जेब में रखकर चलते हैं. इन बातों से मुझे बहुत धक्‍का लगता था, तकलीफ होती थी, लेकिन प्रधान साहब और चौकसे जी कहा करते थे कि कानून प्रधानमंत्री और राष्‍ट्रपति को नहीं छोड़ती तो फिर भास्‍कर चीज क्‍या है. इसी आधार पर अपने मन को समझाता था, मेरी मेरे माता-पिता और ईश्‍वर पर पूर्ण आस्‍था थी. कई बार आर्थिक परेशानियों ने मुझे और सुभाष को तोड़कर रख दिया. मैं परिवार वालों की जरुरतों को तो पूरा नहीं ही कर पा रहा था, मुझे केस के लिए भी उन्‍हीं लोगों से पैसे लेने में अखर होती थी, लेकिन परिवार के लोग हर समय मेरे साथ खड़े रहे. और आखिर मैं और साथी सुभाष चौहान 2005 में नौकरी का केस जीत गये.’

प्रमोद आगे बताते हैं, ‘माननीय श्रम न्‍यायालय ने मुझे नौकरी पर रखने और 1996 से 2006 तक का 50 प्रतिशत वेतन देने का निर्देश भास्‍कर समूह को दिया. मुझे बड़ी खुशी हुई, लेकिन जब नौकरी के लिए भास्‍कर कार्यालय गया तब मुझे नौकरी पर नहीं रखा गया औ ना ही मेरा आवेदन लिया गया. फिर मैंने वकील के मार्फत रजिस्‍ट्री एडी से नोटिस भेजा. इस दरम्‍यान करीब 5-6 बार भास्‍कर को नोटिस भेज चुका हूं. लेकिन भास्‍कर ने मुझे और सुभाष को नौकरी पर नहीं रखा. बल्कि श्रम न्‍यायालय के आदेश के खिलाफ माननीय हाईकोर्ट में दैनिक भास्‍कर ने याचिका दायर की, लेकिन हाई कोर्ट ने भास्‍कर की याचिका खारिज कर दी. याचिका खारिज होने के बाद भी मैं और सुभाष चौहान नौकरी का आवेदन लेकर गए, लेकिन भास्‍कर प्रबंधकों ने हमें नौकरी पर नहीं रखा और खुलेआम श्रम न्‍यायालय के आदेश की अवमानना करते रहे. आखिर में तंग आकर मैं वकील के पास गया. इसके बाद मेरे वकील ने 2006 में भास्‍कर के खिलाफ कोर्ट की अवमानना के लिए श्रमायुक्‍त से परमिशन मांगी. लेकिन आज तक श्रमायुक्‍त कार्यालय से इसकी परमिशन नहीं मिल पाई है. जबकि बार बार श्रमायुक्‍त कार्यालय का चक्‍कर लगा रहा हूं.’

प्रमोद को दुख इस बात का है कि उन्‍होंने अपनी समस्‍याओं को अपने कई दोस्‍तों तथा अखबारों में दी लेकिन किसी ने उनका साथ नहीं दिया. उनके अनुसार, ‘मैंने अपनी सारी व्‍यथा इंदौर के कई अखबारों में लिखकर दी, लेकिन कोई आगे नहीं आया. परन्‍तु इस दरम्‍यान हमने भास्‍कर से एक बड़ी लड़ाई जीती. वह था भास्‍कर द्वारा भाचावत वेतन बोर्ड के अनुरूप वेतन न देने की याचिका. मेरे द्वारा 1990 में मेरी नौकरी लगने से लेकर 1996 में नौकरी जाने तक कम वेतन के खिलाफ दायर की गई याचिका में हमलोगों को जीत मिली. मेरे साथ इस मामले में ब्रजमोहन पाल, सुभाष चौहान, पुनीत दूबे, उमेश कछोले, अजय जैन और राजू देशमुख शामिल थे. कोर्ट ने इस मामले में 90‍ दिनों के भीतर भास्‍कर को करीब 10 लाख रुपया जमा करने के निर्देश दिए, लेकिन 90 दिन बीत जाने के बावजूद भास्‍कर की तरफ से यह धन जमा नहीं की गई. जिसके बाद श्रमायुक्‍त कार्यालय से आरआरसी जारी हुई. नायब तहसीलदार ने कुर्की की कार्रवाई के आधार पर भास्‍कर से समझौता करवाकर सभी कर्मचारियों को अच्‍छी खासी रकम दिलवाई. इसमें किसी को एक लाख तो किसी को दो लाख और किसी को इससे भी ज्‍यादा राशि मिली. इस विजय के बाद मेरा हौसला बढ़ा. इसके बाद मैंने श्रम न्‍यायालय के आदेशानुसार 1996 से 2006 तक का 50 प्रतिशत वेतन की मांग की. जिसकी रकम 151 हजार रुपये थी. इस मामले में आरआरसी जारी होकर नायब तहसीलदार संजय शर्मा के यहां तारीख चल रही है और अंतिम नोटिस भी भास्‍कर को दिया जा चुका है. परन्‍तु अभी तक भास्‍कर ने यह पैसा जमा नहीं कराया है. इसके पश्‍चात दोबारा 2005 से फरवरी 2010 तक वेतन केस भी मात्र तीन माह में जीता. इस प्रकार सफलता पर सफलता ने मेरा हौसला बढ़ाया, लेकिन नौकरी के लिए अभी भी मेरी लड़ाई जारी है.’

प्रमोद के मुताबिक, ‘जो लोग मुझे देखकर मुंह फेर लेते थे, आज वो अच्‍छे से बात करते हैं. मैं जिस प्रेस में मैं नौकरी मांगने जाता था, वहां पहुंचने से पहले ही मेरे नेता होने की खबर पहुंच जाती थी. लेकिन ऐसे लोग ही आज मेरी जीत और अच्‍छी खासी रकम मिलने के बाद मुझसे बात करने लगे हैं.’

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प्रमोद के जो सहयोगी बुरे वक्‍त में उनसे दूर रहे, आज वे उनसे नजदीकी दिखाना चाहते हैं. बुरे वक्‍त में उनके साथ सिर्फ उनका परिवार खड़ा था. बकौल प्रमोद, ‘मेरे माता-पिता, भाई और मेरी पत्‍नी ने मुझे कभी किसी बात की कमी महसूस नहीं होने दी. जब भी कोई खर्च की जरुरत पड़ती ये सभी लोग आगे बढ़कर मुझे सहयोग करते थे. इस पन्‍द्रह साल के बुरे वक्‍त में परिवार के अलावा प्रह्लाद चौकसे और संझा लोकस्‍वामी के मालिक जीतेन्‍द्र सोनी जी का सहयोग मिला. मैं इन दोनों लोगों का हमेशा आभारी रहूंगा कि इन्‍होंने मेरे बुरे वक्‍त में मेरा साथ दिया. मैं जीवन में कभी जीतेन्‍द्र सोनी जी को नहीं भूलूंगा, उनकी प्रेरणा, उनका विश्‍वास और उनके लड़ने के दमखम ने ही मुझे लड़ने का साहस दिया.’

प्रमोद कहते हैं, ‘मैं बहुत छोटा हूं और छोटी मुंह बड़ी बात कर रहा हूं, लेकिन अपने पत्रकार भाइयों से इतना अवश्‍य कहूंगा कि वे जिस तरह लोगों के बारे में छापते हैं, उन्‍हें लड़ने की प्रेरणा देते हैं, आज वे स्‍वयं कहां और कितने शोषित हैं, कभी इस बारे में भी तो चार लाइन लिखकर दिखाएं. मैंने कई वरिष्‍ठ पत्रकारों का भविष्‍य देखा है, जिनकी जीवनचर्या आज आप भी देखेंगे तो आंखों में आंसू आ जायेंगे. प्रमोद कहते हैं, ‘कई कर्मचारियों को मैनें राष्‍ट्रीय राजमार्ग पर, जो कि प्रेस परिसर के समीप है, दुर्घटना में मौत के मुंह में जाते देखा है.’

प्रमोद सवाल करते हैं, ‘कोई बताए मेरा सहयोग किसने किया, मेरे परिवार की तरफ किसने देखा?’ प्रमोद कहते हैं कि ऐसे कर्मी जहां काम करते थे, उन अखबारों तक में उनका नाम नहीं छापा गया. अब आप ही बताइये ऐसे मालिकों और प्रबंधकों से वफादारी कर हम कौन सा धर्म निभा रहे हैं. बकौल प्रमोद, ‘मैं और मेरे सहयोगी सुभाष चौहान ने यह प्रतिज्ञा ली है कि नौकरी का अपना हक पाने के लिए हम अंतिम सांस तक लड़ते रहेंगे. जिस नौकरी ने हमारे पन्‍द्रह वर्ष खराब किए हैं उसके लिए कुछ भी करना पड़े, हम करके रहेंगे.’

लेखक अनिल सिंह भड़ास4मीडिया के कंटेंट एडिटर हैं. उनसे संपर्क [email protected] या फिर 09717536974 के जरिए कर सकते हैं.

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0 Comments

  1. dkjain journlist gwalior

    August 7, 2010 at 6:04 pm

    parmod or subhash ke jajbe ko salam
    gwalior me navbharat ke sathi bhi apani ladaai lad rahe hai. pramod ki jeet se unka utshah badega .dk

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