एक मीडियाकर्मी के फ़ोन कॉल ने मुझे सालों पहले बंद हुई इंदौर की मिलों और इनके बंद होने के बाद मिल मज़दूरों की बदहाली कि याद ताज़ा करा दी। फ़ोन करने वाला शख़्स एक ऐसे चैनल में काम कर रहा था जो हाल ही में बंद हुआ है। ज़ाहिर है वो नौकरी दिलवाने में मदद के लिए बात कर रहा था। वैसे तो अभी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का शैशव काल ही है लेकिन इसी दौर में एक बड़े चैनल के बैठ जाने से सैकड़ों मीडियाकर्मियों की हालत उन मिल मज़दूरों की तरह हो गई है जो मिलें बंद होने के बाद बदहाल हुए थे। मैं श्रमिक बस्ती में ही पला बढ़ा और इन मिल मजदूरों की बदहाली को मैंने बहुत नजदीक से देखा है। कई मजदूरों ने अलग-अलग कामों को अपनाया। किसी ने सब्जी का ठेला लगाया, किसी ने रिक्शा चलाया, किसी ने ट्रांसपोर्ट, किराना दुकान, मेडिकल शॉप में हेल्पर का काम किया। बहुत से मजदूर थे जो बुरी तरह से टूटे और उन्होंने जीने की आस ही छोड़ दी।
वैसे इंदौर में कपड़े की छोटी बड़ी सैकड़ों मिलें थी लेकिन देश की सबसे बड़ी मिलों में यहां की 10-12 मिलें शामिल थी जिनमें हुकुमचंद, राजकुमार, मालवा, कल्याण जैसी मिलों के नाम प्रमुख थे। इन्हीं मिलों से सबसे ज़्यादा तादाद में मज़दूर बेरोज़गार हुए थे। मेरे पिता एक मज़दूर नेता हैं और इन मिलों के अचानक बंद हो जाने से वो बेहद दुखी हुए थे। आज मुझे भी दुख हो रहा है, शायद उतना नहीं, जितना मेरे पिता को था क्योंकि फ़िलहाल एक चैनल बंद हुआ है और अभी इससे बदहाल हुए मीडिया मज़दूरों को फिर बसने की संभावनाएं हैं। फिर भी एक डर मन में घर कर गया है। कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे चैनल्स की इस बाढ़ में कुछ और मीडिया मिलें इसी तरह बंद हुई तो ये बुरा दौर एक बार फिर देखना होगा।
जब चैनल्स की तादाद बढ़ रही थी तो ये कहा जा रहा था की मीडियाकर्मियों को बेहतर अवसर मिलेंगे। लेकिन इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद सबका ध्यान इस ओर भी गया है की चैनल शुरू करना शायद उतनी बड़ी चुनौती नहीं है जितना उसे चलाना और इस प्रतियोगिता में बनाए रखना। मीडियाकर्मियों को भी सोच समझकर अपने चैनलों को छोड़कर नई जगहों पर जाना चाहिए। जो चैनल बंद हुआ, उसमें कई प्रतिष्टित चैनल्स के उम्दा पत्रकारों को लिया गया था। कुछ तो पहले ही इसकी स्थिति भांपकर इसे छोड़ गये थे। कुछ अब भी इसके साथ बने हुए थे। अब उनकी बाज़ार में क्या स्थिति है, ये उनसे ही पूछिए। सालों का अनुभव होने के बावजूद नौकरी के लिए मारामारी करनी पड़ रही है। आधी तनख़्वाह पर काम करने के प्रस्ताव मिल रहे हैं। ये मैं इसलिए जानता हूं क्योंकि सिर्फ़ एक फ़ोन कॉल मेरे पास नहीं आया बल्कि मेरे कई अच्छे मित्र भी इस संस्थान से जुड़े रहे और इस वक्त मैं उनके दुख में बराबर शामिल हूं।
मिल मज़दूर कितने मेहनतकश होते हैं, ये मैं जानता हूं, लेकिन मीडियाकर्मियों की स्थिति को भी समझता हूं। उस वक़्त जिस मज़दूर को जो काम मिला, उसने परिवार पालने के लिए किया, लेकिन हम मीडियाकर्मियों के पास सीमित कार्यक्षेत्र हैं और उसमें भी अब गला काट प्रतियोगिता है। एक चैनल के ही बंद होने के बाद सैकड़ों अनुभवी पत्रकारों को एडजेस्ट करने में बहुत समय लगेगा। चैनलों से भी ज्यादा तेजी से बढ़ रहे पत्रकारिता स्कूलों से पढ़ कर निकल रहे युवाओं का पत्रकारिता में भविष्य तो और दूर की कौड़ी है। फिलहाल शुरुआत है और सिर्फ समस्या सामने है। मिल मज़दूरों के बाद मीडिया मज़दूरों की ये दुर्गति देखते नहीं बनती इसीलिए अपनी भड़ास निकाल रहा हूं।
pawan passi
March 13, 2010 at 8:47 am
sir,
jo aap ne media majdur sabad use kiya hai woh kabile tariff hai aur aise sachai hai jo har koi nahi keh sakta. hum aap dwara kahe is sabad ke kayal hai. umeed hai future main bhi apni koshish jari rakhenge jis se media houses me media majduro ka soshan rokne me lagam lage.
hum press club guhla cheeka ki aur se aap ki sabdawli ka sawagat karte hai.
Regards
pawan passi
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