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दुख-दर्द

रायपुर प्रेस क्लब में नक्सली समर्थक बुद्धिजीवियों की नो एंट्री!

राजनीतिक व्यवस्था में सर्वाधिक लोकतांत्रिक मूल्यों की पैरोकार मीडिया में यह पहली घटना है जब रायपुर प्रेस क्लब ने नक्सली समर्थक बुद्धिजीवियों को क्लब में कार्यक्रम न करने देने का सर्वसम्मति से फैसला किया है. क्लब ने यह प्रतिबंध समान रूप से वैसे वकीलों पर भी लागू किया है जो क्लब समिति की निगाह में नक्सली समर्थक हैं. नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुडूम अभियान शुरू करने वाली छत्तीसगढ़ सरकार के पास ऐसे कई रिकार्ड हैं जो अलोकतांत्रिक कानूनों को लागू करने में उसे पहला स्थान देते हैं. लेकिन यह पहली बार है जब राज्य में प्रेस प्रतिनिधियों की एक संस्था जो कि गैर सरकारी है, वह सरकारी भाषा का वैसा ही इस्तेमाल कर रही है जैसा की सरकार पिछले कई वर्षों में लगातार करती रही है.

हरिभूमि, रायपुर में प्रकाशित खबर

राजनीतिक व्यवस्था में सर्वाधिक लोकतांत्रिक मूल्यों की पैरोकार मीडिया में यह पहली घटना है जब रायपुर प्रेस क्लब ने नक्सली समर्थक बुद्धिजीवियों को क्लब में कार्यक्रम न करने देने का सर्वसम्मति से फैसला किया है. क्लब ने यह प्रतिबंध समान रूप से वैसे वकीलों पर भी लागू किया है जो क्लब समिति की निगाह में नक्सली समर्थक हैं. नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुडूम अभियान शुरू करने वाली छत्तीसगढ़ सरकार के पास ऐसे कई रिकार्ड हैं जो अलोकतांत्रिक कानूनों को लागू करने में उसे पहला स्थान देते हैं. लेकिन यह पहली बार है जब राज्य में प्रेस प्रतिनिधियों की एक संस्था जो कि गैर सरकारी है, वह सरकारी भाषा का वैसा ही इस्तेमाल कर रही है जैसा की सरकार पिछले कई वर्षों में लगातार करती रही है.

दंतेवाड़ा में वनवासी चेतना आश्रम में पांच जनवरी को हैदराबाद और मुंबई से आये चार लोगों और स्थानीय पत्रकारों के बीच हुई मारपीट के बाद प्रेस क्लब का यह फरमान आया. बाहर से आये चार लोगों में फिल्म निर्माता निशता जैन, लेखक-पत्रकार सत्येन बर्दलोइ, कानून के छात्र सुरेश कुमार और पत्रकार प्रियंका बोरपुजारी शामिल हैं, के खिलाफ स्थानीय पत्रकारों ने मारपीट और कैमरा छीन लिये जाने का मुकदमा स्थानीय थाने में दर्ज कराया है.

हरिभूमि, रायपुर में प्रकाशित खबर

इस मामले में जब बाहर से आए लोग थाने गये तो पुलिस ने मुकदमा दर्ज करने से इनकार कर दिया. स्थानीय मीडियाकर्मियों ने जो इनके साथ सुलूक किया और स्थानीय मीडिया को लेकर इनके जो अनुभव रहे, उस आधार पर इन लोगों ने स्थानीय मीडिया को बिकाऊ कह दिया. इसके बाद प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर ने 17 जनवरी को क्लब प्रतिनिधियों की आपात बैठक में कहा कि ‘दंतेवाड़ा में स्थानीय मीडिया को बिकाऊ कहने वाले कथित बुद्धिजीवियों के खिलाफ प्रशासनिक कार्यवाही हो, नहीं तो हमारे विरोध का तरीका बदल जायेगा. साथ ही ऐसे लोगों और एनजीओ को प्रेस क्लब में किसी भी तरह के कार्यक्रम करने की अनुमति न दी जाये. इसी तरह नक्सलवाद को जाने-समझे बिना मीडिया पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले अधिवक्ता के खिलाफ कानूनी टिप्पणी की जायेगी.’ बाद में इस प्रस्ताव का प्रेस क्लब के सदस्यों ने समर्थन दिया. छत्तीसगढ़ वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन के प्रदेश अध्यक्ष नारायण शर्मा, धनवेंद्र जायसवाल, कौशल स्वर्णबेर ने भी इस मामले में ऐसे बुद्धिजीवियों के बयान की निंदा की और छत्तीसगढ़ आगमन पर कड़े विरोध की चेतावनी दी.

इस बारे में जन वेबसाइट सीजीडाट नेट के संचालक और पत्रकार शुभ्रांशु से का कहना है, ‘प्रेस क्लब के पास ऐसा कौन सा पैमाना है जिससे किसी के नक्सल समर्थक होने को तौला जाना है. आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ बोलने वाला हर आदमी सरकार की निगाह में माओवादी है और चुप रहने वाला देशभक्त.’ कुछ इसी तरह की बात सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण भी कहते हैं, जिनके खिलाफ प्रेस क्लब ने टिप्पणी की है कि ‘ऐसे वकीलों पर भी कानूनी कार्यवाही की जायेगी.’ पिछले दिनों रायपुर यात्रा के दौरान प्रशांत भूषण ने कहा था कि ‘प्रदेश के डीजीपी विश्वरंजन राज्य में बढ़ती हिंसा और मानवाधिकारों के हनन के लिए व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदार हैं. अगर हालात यूं ही बदतर रहे तो कभी वह आदिवासियों के रिश्तेदारों या माओवादियों द्वारा मार दिये जायेंगे, नहीं तो जेल जायेंगे.’

रायपुर प्रेस क्लब के यह कहने पर कि वह प्रशांत भूषण जैसे वकीलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करेगा और मंच मुहैया नहीं करायेगा, के जवाब में प्रशांत भूषण ने कहा ‘यह गैर-संवैधानिक और मूल अधिकारों का हनन है. प्रेस क्लब से पूछा जाना चाहिए कि क्या सरकार माओवादी समर्थकों को गिनने में सक्षम नहीं है, जो प्रेस क्लब यह काम अपने हाथों में ले रहा है.’ इस बारे में प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर कहते हैं- ‘प्रेस ने गलतबयानी की है।’ जबकि ”हरिभूमि” में छपी खबर की तफ्तीश करने पर समाचार पत्र के रायपुर संपादक से पता चला कि ‘यह खबर सभी दैनिकों में छपी है, वह अब मुकर जायें तो बात दीगर है.’

सवाल यह है कि अगर मीडिया को कोई दलाल कहता है तो क्या उसे प्रेस क्लब में आने से रोक देना उचित है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मांग करने वाले मीडिया के जनतांत्रिक संस्थाओं के रहनुमा ही ऐसी ऊटपटांग बातें करेंगे तो सरकार के बाकी धड़ों से किस नैतिकता के बल पर पारदर्शी होने की मांग करेंगे? हाल-फिलहाल की बात करें तो बिकते मीडिया को लेकर सर्वाधिक चिंता मीडियाकर्मियों की ही रही है. हमारे बीच नहीं रहे पत्रकार प्रभाष जोशी इसके सबसे सटीक उदाहरण हैं, जिन्होंने जीवन के अंतिम समय तक मीडिया की दलाली पर तीखी टिप्पणी की. उन्हीं के द्वारा उठायी गयी आवाज का असर है कि एडिटर्स गिल्ड में इस मसले पर गंभीरता से विचार करने का सिलसिला शुरू हुआ है. जनज्वार’ ब्लाग से साभार

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0 Comments

  1. sagarbandhu

    January 26, 2010 at 11:47 am

    nuxali samarthk buddhijivio ke press club me praves par rok jagana galat hai. buddhijio se ladna hai to unhe manch jarur do. unke vicharo ko samjho aur apna tark do. nuxali buddhijivi bhi janhit ke liye hi ladte hai. unko manch nahi dene se unke vicharo ko koi rok nahi payega. patrakaro ko akadh logo se naraj ho kar is tarah ka faisla nahi karna chahie. nuxli vicharo ka is desh me jinda rahna bhut jruri hai. aap ko pata hona chahie ki is desh me bhut se akhabar kale dhan ki kmai se nikl rahe hai aur whe patrakaro ko dalal bana rahe hai. aap un akhbaro ki nitio ke khilaf koi faisla koi nahi lete ho. buddhijivio ke khilf faisla lena aasan hai vanspat mafiao ke.

  2. ambuj

    January 26, 2010 at 4:18 pm

    we need such sort of articles .
    keep it up
    its good for the readers

    thank you

  3. ????????? ???

    January 28, 2010 at 11:29 am

    भड़ासवालों से कुछ प्रश्न
    01. क्या हत्यारे, लुटेरे, बलात्कारी, गुंडे, आदिवासियों के घर से प्रतिदिन चावल दाल की वसूली करनेवाले, शिक्षा के बजाये बच्चों को गुरिल्ले सैनिक में तब्दली करनेवाले, सार्वजनिक संपत्ति का विनाश करनेवाले, गांजे की खेती करनेवाले, थाने लूटनेवाले, निहत्थे नागरिकों, आदिवासियों को मारनेवाले, आदिवासियों के विकास के लिए एक भी बुनियादी कार्य नहीं करनेवाले माओवादी-नक्सलवादियों को स्थानीय मीडिया द्वारा बहिष्कार प्रजातांत्रिक मूल्यों के विपरीत है ?
    02. क्या बस्तर के आदिवासी इतने गये बीते हैं, पिछड़ें हैं कि वे अपने विकास के लिए हिंसक माओवादी या नक्सली तो बन सकते हैं किन्तु ठीक नक्सलियों द्वारा सताये जाने पर उनके विरोध में खड़े नहीं हो सकते ? जिसे राज्य के बाहर और खासकर माओवादी और उनके समर्थक लेखक, एनजीओ, मानवाधिकारवादी सरकार प्रायोजित बताते फिरते हैं ?
    03. क्या बस्तर में सभी के सभी माओवादी हो गये हैं यानी ऐसे कुछ भी लोग वहाँ नहीं है जो उनका विरोध नहीं कर रहे हैं ? यदि ऐसा नहीं है तो वे आदिवासी क्यो अपने शोषण करनेवाले आदिवासी ही सही किन्तु हिंसावादियों का विरोध नहीं कर सकते ?

    शेष यहाँ पर पढ़े…
    http://janganmanindia.blogspot.com/2010/01/blog-post_28.html

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