ईमानदारी का जुनून पत्रकारिता में ले आया था : आज के दौर में मीडिया की नौकरी से बहुत कम लोग रिटायर हो पाते हैं। उम्र बढ़ने के साथ ज्यादातर लोगों को प्रबंधन दूध की मक्खी की तरह निकाल बाहर करता है। पर अमर उजाला, बरेली के चीफ मैनेजर रवि शर्मा ने बीते दिनों शान से रिटायरमेंट ली, पेशे की, उम्र की भी सबसे लंबी पारी खेलते हुए। उम्र के पड़ाव पर अब 58 पार हो चले। जब मीडिया सचमुच ईमानदार युवामन का सपना हुआ करता था, सन सत्तर के दशक में, रवि शर्मा ने सरकारी नौकरी छोड़कर पत्रकारिता की कटीली राह पकड़ी तो लगातार आगे ही बढ़ते चले गए। प्रबंधकीय कार्यकुशलताओं के चलते कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों के भी संवाहक बने। बीते दिनों उन्होंने अपने अतीत की 39 साल की पेशेवर चुनौतियों पर भड़ास4मीडिया से कुछ इस तरह बातचीत की…..”उन दिनों किसी भी पेशे का अंतर्द्वंद्व कितना कठिन और असहनीय था। मन भागता था, भागता रहता था अलग-अलग दिशाओं में। कभी मन करता कि ये करूं, कभी वो। युवा मन स्थिर-एकाग्र रहता भी कैसे। वह सत्तर के दशक का मध्याह्न था और मेरी युवा उम्र का पूर्वार्द्ध। यही कोई छब्बीस-सत्ताईस साल का था। छात्र जीवन से उबरने के बाद पहली-पहली बार पीडब्ल्यूडी की नौकरी लगी। देखा कि दफ्तर का माहौल अपने चारों ओर बजबजा रहा है। बास मार रहा है। दम घुटने लगता। सब वही रुपये-पैसे की, अनर्गल कमाई-धमाई की बातें। …और सुनते-सुनाते एक दिन ऐसा आया कि एक मामूली-सी बात पर मन का गुबार फूट निकला।
कई दिन ऊहापोह में रहा कि ये नौकरी करूं, न करूं! आखिरकार खुद के संशय से बाहर निकल लिया। तय किया कि इस वैतरिणी में अब और डुबकियां नहीं लगानीं। यहां के भ्रष्टाचार से जान बची तो लाखों पाए। मिल ही जाएगा कोई न कोई रास्ता। और मिल गया। ईमानदारी का तकाजा था, जुनून था, सो ज्यादा दिन नहीं गुजरें होंगे कि देखते ही देखते पेशा बदल गया। राह भी कुछ ऐसी मिली कि मन पर उस पेशे का नशा सा छाता चला गया। और उन दिनों डूबता चला गया मैं अपनी नौकरी की धुन में। उस जमाने में थोड़ी-बहुत मीडिया के लोगों के संग-साथ बैठने की सोहबत भी थी। एक ही शहर में रहते थे, अक्सर भेट-मुलाकातें हो जाया करती थीं। तब बरेली से कोई अखबार तो नहीं निकलता था, न्यूज एजेंसियां कई थीं यूएनआई, पीटीआई, भाषा, वार्ता आदि। बाहर से पत्र-पत्रिकाएं आती थीं। लाइब्रेरियों में, इधर-उधर से पढ़ता-सोचता रहता था, देश-दुनिया-समाज के बारे में भी। सोचिए कि ये 1975-76 की बात है। शुरुआत हुई ‘विश्व मानव’ हिंदी दैनिक से। जुड़ते ही लगा कि ये जॉब तो किसी भी सरकारी नौकरी से बहुत अच्छा है। जुनून में तनिक-बहुत बचपना भी मन को गुदगुदाया जाया करता कि चाहो, जिसके खिलाफ जैसा भी लिख मारो। कोई कितना भी बड़ा रंगबाज क्यों न हो, भ्रष्ट हो, बलशाली हो, अपनी कलम से उसकी पल में कलई उधेड़ डालो। कुछ इस तरह सोचते-जानते हुए लिखने-पढ़ने का चस्का बढ़ता गया। मुझे ऐसी खबरों की रिपोर्टिंग में बड़ा मजा आता था। तब अखबारी ठिकाने इतने तकनीकी भी नहीं थे। न सेटेलाइट, न कंप्यूटर, न ई-मेल, न इंटरनेट। सादी-सच्ची पत्रकारिता का युग था। पेशे में चारो तरफ आदर्श बिछे पड़े थे। लोग भी उसी तरह मान-सम्मान देते थे। इससे भी अपने पेशे को लेकर बड़ा फक्र महसूस होता था।
“लगभग एक साल का समय विश्व मानव में व्यतीत हुआ होगा कि तभी कदम अमर उजाला की ओर बढ़ चले। उन दिनों अमर उजाला पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पत्रकारिता का सिरमौर हुआ करता था। एकछत्र मीडिया घराना मुरालीलाल माहेश्वरी और डोरीलाल अग्रवाल का। दोनों ने अपने संघर्षों का बिरवा अमर उजाला के रूप में रोपा था। दोनों की ही योग्यता, आत्मीयता जितना भी जानता, सराहता कम लगती थी। सही बात तो ये कि उस समय अमर उजाला की नौकरी किसी गवर्नमेंट जॉब से ज्यादा बेहतर हुआ करती थी। खुला-खुला, लिखने-पढ़ने का माहौल। उस समय की पत्रकारिता के अपने आदर्श और मूल्य हुआ करते थे। सूचनाओं में जितनी पारदर्शिता, उतनी ही गैरपक्षधरता बरती जाती थी। कोई भी खबर बिना पूरी छानबीन, यकीन के प्रकाशित नहीं हो पाती थी। मुरारी लाला माहेश्वरी और डोरीलाल अग्रवाल ने पहले ही आवेदन में मुझे अप्वाइंट कर लिया। और रिटायर होने के दिनों तक की बात करूं तो मुझे उनकी विरासत संभालने वाले अतुल माहेश्वरी, राजुल माहेश्वरी, अशोक अग्रवाल आदि से भी उतना ही स्नेह-सम्मान मिलता रहा। नौकरी के आखिरी दिनों तक।
“कालांतर में धीरे-धीरे पेशे की दशा-दिशा बदलती गई और आधुनिक पत्रकारिता के प्रयोग ने मुझे भी अपने तई पेशे के स्वभाव में घुलने-मिलने, नए प्रयोगों से जुड़ने के प्रति आश्वस्त किया तो थोड़ी-थोड़ी प्रबंधन की ओर भी मन भागने लगा। सन 76 से शुरू हुआ करियर पहले समाचार प्रबंधन के निकष पर चढ़ा। मैं पीलीभीत में अमर उजाला का रिपोर्टर बनाकर भेज दिया गया। छह साल वहां रहा। ब्यूरो का पूरा काम देखते-संभालते प्रसार आदि की जिम्मेदारियों ने भी तब तक बहुत कुछ सिखा-पढ़ा दिया था। अमर उजाला के लिए अपेक्षित मेहनत-मशक्कत करता रहा, जूझता रहा। प्रबंधन को लगा कि मैं दायित्वों के प्रति पूरी तरह गंभीर हूं तो सन 81 में मुझे पीलीभीत से बरेली मुख्यालय बुला लिया गया। यहां कुछ दिनों बाद पेशे की धारा बदल गई। यहां मार्केटिंग मैनेजमेंट के काम-काज से जोड़ दिया गया। बाद में मार्केटिंग हेड के रूप में प्रमोट कर दिया गया। फिर ऐडमिनिस्ट्रेशन भी देखने लगा। थोड़-बहुत प्रोडक्शन का दायित्व संभालने का भी अवसर दिया गया। सीनीयर मैनेजर बना, और अब 58 साल का होकर चीफ मैनेजर के पद से रिटायर हुआ हूं, साढ़े तैंतीस साल के इस कार्य-व्यापार में। तब से आज सेवामुक्त होने तक इस अखबार ने जो वातावरण दिया, स्नेह दिया, सब पुत्रवत। फ्री हैंड काम करने का खूब अवसर मिला। इन्हीं सब बातों ने मुझे रिटायरमेंट की उम्र तक अमर उजाला में रोके रखा।
“जब मैंने विश्व मानव ज्वाइन किया था, 225 रुपये वेतन मिलता था। लगता था कि कितने ज्यादा पैसे मिल रहे हैं। घर-गृहस्थी आसानी से चल जाती। सात रुपये रोज की तनख्वाह पड़ती थी। भरपूर लगती थी। बाद में अमर उजाला के पायदान चढ़ते-चढ़ते वैतनिक आय इतनी होती चली गई कि कभी अभाव नहीं महसूस हुआ। अब भी खुश हूं उतना ही। रिटायर होने के बाद। अब क्या जीवन के, परिवार, समाज के साथ पूरा समय बिताने की उम्र हो चली है। अब जीवन और परिवार को इंज्वॉय करूंगा। अब तक कार्यगत व्यस्तताओं के चलते जो समय अपने परिवार, समाज को नहीं दे सका था, अब इनके साथ समय बीतेगा। अब मीडिया से कोई आर्थिक जुड़ाव नहीं। समय काटना है तो पेशवर क्यों, सामाजिक स्तर पर क्यों नहीं। सो, समाज के लिए भी जो कुछ हो सकेगा, सोचता करता रहूंगा। अब और क्या, उम्र के अवसान की ओर चलते चले जाना है। जो कुछ रहा, बहुत अच्छा रहा। आगे भी जो होगा, अच्छी ही कामना रखनी चाहिए।”