राष्ट्रीय सहारा, देहरादून के स्थानीय संपादक राजेश श्रीनेत अब इस समूह के हिस्से नहीं रहे। बताया जा रहा है कि उन्होंने संस्थान को बाय बोल दिया है। पिछले दिनों उनका तबादला देहरादून से नोएडा आफिस के लिए कर दिया गया था। नोएडा में कोई खास जिम्मेदारी न दिए जाने के बाद वे लंबी छुट्टी पर चले गए थे। अब पता चला है कि उन्होंने सहारा को प्रणाम कर दिया है। राजेश से भड़ास4मीडिया ने संपर्क किया तो उन्होंने खुद के अब सहारा के साथ न होने की बात कही। भविष्य की योजना के बारे में उनका कहना था कि कई तरह की योजनाएं हैं, कुछ दिनों बाद तय कर लूंगा कि किस योजना / प्रोजेक्ट पर काम करना है। उधर, सहारा से जुड़े उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि सहारा ग्रुप में कंटेंट से जुड़े तेवरदार लोगों को आमतौर पर देर तक बर्दाश्त करने की परंपरा नहीं रही है। इस ग्रुप में शीर्ष पदों पर वही लोग टिक पाते हैं जो काम के अलावा अन्य ‘कामों’ में ज्यादा दक्ष होते हैं। पहले अनिल भास्कर और अब राजेश श्रीनेत की विदाई से यह धारणा मजबूत हुई है।
कुछ लोगों का यह भी कहना है कि ग्रुप एडिटर रणविजय सिंह रणनीति के तहत किसी स्थानीय संपादक को मजबूत नहीं होने देना चाहते और किसी मजबूत स्थानीय संपादक को देर तक जमने नहीं देना चाहते। उन्हें मजबूत स्थानीय संपादकों से खुद को खतरा महसूस होता है। यही वजह है कि किसी न किसी बहाने रीढ़ वाले स्थानीय संपादकों को परेशान करने, अपमानित करने, निलंबित करने की प्रक्रिया सहारा ग्रुप के अंदर चलती रहती है। बताया जाता है कि रणविजय सिंह को वही स्थानीय संपादक पसंद हैं जो उनके सामने ‘स्टूडेंट’ की तरह पेश आएं। जानकारों के मुताबिक राष्ट्रीय सहारा अखबार में जनरल मैनेजरों को शह देकर स्थानीय संपादकों को परेशान करने की चाल चली जाती रही है। कोशिश यह रहती है कि अगर जनरल मैनेजर और स्थानीय संपादक आपस में भिड़े रहेंगे तो दोनों की पोल-पट्टी उपर तक पहुंचती रहेगी, साथ ही दोनों ताकतवर भी नहीं हो पाएंगे और आपस में ही उलझे रहेंगे। सहारा में किस स्थानीय संपादक को किस बात पर कब सस्पेंड कर दिया जाए और फोर्स लीव पर भेज दिया जाए, कहा नहीं जा सकता। यहां स्थानीय संपादकों के साथ प्रबंधन ट्रेनियों सरीखा व्यवहार करता है। सूत्रो का कहना है कि इस कवायद के पीछे भी वजह किसी को मजबूत न होने देना ही है। जो लोग काम के जरिए सहारा में जमना चाहते हैं तो उनकी सबसे ज्यादा दुर्गति होती है।